डंकी | एक मुश्किल सफ़र
सिर्फ़ स्पेलिंग बदल लेने से बात थोड़े ही बनती है, सो ‘डंकी’ राजकुमार हिरानी की फ़िल्म नहीं लगती, न ही यह अभिजात जोशी की स्क्रिप्ट मालूम होती है. एक्सप्लोरेशन की तर्ज़ पर मामूली-सी आगे बढ़ती है और इस कहानी को दिलचस्प बनाने की कोशिशें नाकाफ़ी मालूम होती है.
डंकी की कहानी साल 1995 में पंजाब के एक क़स्बे से शुरू होती है, जहां के नौजवान लंदन जाने का सपना पाले हुए हैं. और उनके इस सपने वजह यह कि पहले लंदन गए हुए लोगों के परिवारों के माली हालात बढ़िया हैं और वे परिवार सुक़ून से हैं. लंदन, उस क़स्बे में इस क़दर बसा हुआ है कि तमाम घरों की छत पर हवाई जहाज़ की शक़्ल वाली पानी की टंकियाँ ही नज़र आती हैं, घरों की दीवारों पर लंदन लिख रखा है और सपनों में भी लंदन ही दिखता है. कहानी के तीन मुख्य किरदार तापसी पन्नू, विक्रम कोचर और अनिल ग्रोवर, और मेहमान कलाकार विक्की कौशल लंदन जाना चाहते हैं. कोई अपनी माली हालात सुधारने की नीयत से तो कोई अपनी मोहब्बत के लिए.
इस सबके बीच में कहानी में शाहरुख़ ख़ान आते हैं और सारे किरदारों के साथ उनका एक जज़्बाती रिश्ता बन जाता है. जब क़ानूनी रूप से लंदन जाने की तमाम कोशिशें नाक़ामयाब हो जाती हैं तो मजबूरी के चलते सबको ग़ैर-क़ानूनी तरीक़ा (डंकी) अपनाना पड़ता है. वही तरीक़ा मीडिया जिसे कबूतरबाज़ी कहता आया है.
आगे की फ़िल्म लंदन पहुंचने और भारत वापस लौटने का सफ़र भर है. इस सफ़र को देशभक्ति के जज़्बात के साथ आगे बढ़ाने की कोशिश की है, लेकिन कमज़ोर कहन के चलते किरदारों का दर्शकों से रिश्ता नहीं बन पाता, और यही वजह है कि देशभक्ति का रंग भी कहानी में फीका-सा नज़र आता है.
इंटरवल से पहले की कहानी ज़बरदस्ती खींची-सी लगती है. पहली बार ऐसा भी लगा कि सम्पादन पर हिरानी की पकड़ ढीली रही है और उनकी पहले की फ़िल्मों की तरह चौंकाने वाले मोड़ भी कहानी में नहीं आते हैं. बमन ईरानी जब भी पर्दे पर आते हैं तो बोर करते हैं, हालाँकि इसमें उनका कोई दोष नहीं, क्योंकि लेखक ने उन्हें कुछ दिलचस्प करने के लिए दिया ही नहीं है. हाँ, विक्की छोटे-से किरदार में ज़रूर असर छोड़ते हैं. अंग्रेज़ी सीखने वाली क्लास के दृश्य और रोचक और हास्यपूर्ण हो सकते थे मगर ऐसा हो नहीं पाया है. इंटरवल से पहले शाहरुख़ और पन्नू का रोमांस भी दिलों में कोई हलचल पैदा नहीं कर पाता है.
ऐसा पहली बार हुआ है, जब हिरानी की फ़िल्म का सम्पादन सुस्त, संवाद उदास और पार्श्व संगीत कमज़ोर है. जहां तक फ़िल्म के गीतों का ताल्लुक है तो हिरानी की फ़िल्में कभी भी संगीत के लिए नहीं जानी गई हैं और इस लिहाज़ से डंकी भी अछूती नहीं है.
इंटरवल के बाद की फ़िल्म लंदन में बसे एशियाई देशों के लोगों की दुर्दशा का चित्रण है, देस की मिट्टी के लिए बेपनाह मोहब्बत (डायस्पोरा) और इतना एहसास तो कराने में क़ामयाब रहती ही है कि रोटी चाहे सूखी ही हो पर अपने घर की ही मीठी होती है. डंकी का दूसरा हिस्सा पहले की बनिस्बत बेहतर है और थोड़ा अधिक दिलचस्प भी. एक्शन सीन में रोमांच न के बराबर है और जिस हास्य के लिए हिरानी पहचाने जाते हैं, वो पूरी तरह से ग़ायब है. कई जगह फ़िल्म नीरस बनकर रह जाती है और दर्शकों को कुछ भी नया और मनोरंजक देने में असफल ही रहती है. डंकी का क्लाइमेक्स कुछ ऐसा है जिसका अंदाजा देखने वालों को फ़िल्म के शुरुआती तीस मिनट में ही लग जाता है और इसका नतीजा यह कि हिरानी की अन्य फिल्मों की तुलना में इस फ़िल्म का अन्त दिल को छूने वाला बिल्कुल नहीं बन पाया है.
फ़िल्म में शाहरुख़ को करने के लिए कुछ नया है बल्कि वे ख़ुद को दोहराते हुए नज़र आते हैं. तापसी पन्नू औसत हैं और सहायक कलाकार भी कमज़ोर पटकथा के चलते कुछ असरदार करने में असफल हुए हैं. कुल मिलाकर, ‘डंकी’ हिरानी की फ़िल्म नहीं लगती है. आमिर के साथ उन्होंने साल 2009 के बड़े दिन पर ‘थ्री इडियट्स’ और 2014 के बड़े दिन पर ‘पी.के.’ नाम के तोहफ़े दिये हैं, उनको ध्यान में रखकर देखने पर इस बार के बड़े दिन की यह फ़िल्म वैसा तोहफ़ा नहीं लगती है बल्कि उन अद्भुत फ़िल्मों से बहुत दूर खड़ी नज़र आती है. फ़िल्म निराश करती है और जो लोग शाहरुख़ और हिरानी की जोड़ी को लेकर पहले से ही उत्साहित थे, उन्हें तो कहीं ज़्यादा.
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