बायलाइन | शुभचिंतकों के पुण्य क्षय का दौर

  • 2:58 pm
  • 9 January 2022

दोस्तो और शुभचिंतकों के ‘गुड मॉर्निंग’ संदेशों की छटा में इन दिनों भारी बदलाव आया है. किसी फ़ोटो पर चस्पा अंग्रेज़ी वाले प्रेरक जुमलों के साथ ‘गुड मॉर्निंग’ के बजाय संदेश अब संस्कृत में भी आने लगे हैं. भेजने वालों की ख़ुद की संस्कृत की समझ के बारे में मुझे कोई अंदाज़ नहीं और न ही गूढ़ तत्वों की मीमांसा के बारे में उनकी क्षमता का पता है मगर चूंकि अंग्रेज़ी या हिंदी में उसका भाष्य भी साथ होता है तो समझने की कोशिश ज़रूर करता हूं.

आज सवेरे मिले ‘श्रीगणेश पुराण’ के उपासना खण्ड से उर्द्धत श्लोकों वाले एक संदेश पर ठहर गया – ‘पुण्य क्षयो भवेत्तस्य, परदोषं य ईरयेत’. अर्थात जो पुरुष सदा बड़े चाव से केवल दूसरों के दोषों का ही बढ़ा-चढ़ा कर बखान करता है, तथा अपनी बुद्धि हीनता के कारण उसकी अच्छाइयों को नहीं देखता, उसके स्वयं के समस्त पुण्य कर्म क्षीण हो जाते हैं, केवल पाप कर्म ही शेष रहते हैं.

इस ज़माने में जब ख़ुद को बड़ा दिखाने के लिए परनिंदा का रसायन ही अकेला मज़बूत हथियार बना हुआ है, यह बड़े पते की बात लगती है. हालांकि मुख्यधारा से लेकर सोशल कहे जाने वाले मीडिया तक एक ही किस्म का भावबोध फैला हुआ मिलता है. कुछ लोग सवेरे उठकर दांत साफ़ करने से पहले लाटरी की पर्चियों पर हाथ साफ़ करते हैं. जिसके नाम की पर्ची निकल आए, दिन भर ये उसकी धुलाई में लगे रहते हैं. अपनी ज़बान और कुत्सा के कौशल पर उन्हें बड़ा भरोसा है.

एकाध तो ऐसे भी हैं, जिनके पास पर्चियां तमाम दिखती हैं मगर हर पर्ची पर एक ही नाम लिखा हुआ होता है. पिछले कई सालों से इसी पर्ची की बदौलत एक ही मूरत तोड़ने की उनकी कोशिश हर सुबह शुरू होती है. मुमकिन है कि ‘शोले’ के अमिताभ बच्चन वाला सिक्का भी जेब में रखते हों, बाहर जाने कब किसी पर साबित करने की ज़रूरत पड़ जाए. उन्होंने ‘श्रीगणेश पुराण’ नहीं पढ़ा होगा, और अगर वह पढ़ा भी है तो ‘उपासना खण्ड’ नहीं पढ़ा और यह वाला श्लोक तो शर्तिया नहीं पढ़ा. तो उनके पुण्य कर्मों का क्षय रोकने के लिए शुभचिंतकों का यह फ़र्ज़ नहीं बन जाता कि भाष्य के साथ यह श्लोक उन्हें भेज दें!

अरे हाँ, शुभचिंतक से याद आया कि पुरानी फ़िल्मों में कई बार तस्करी का सोना या विलेन का अड्डा वगैरह पकड़वाने के लिए पब्लिक बूथ से फ़ोन करने से पहले जेब से एक सफ़ेद रुमाल निकालकर माउथपीस पर रखना ज़रूरी होता था. पब्लिक को यह समझाने के लिए कि ऐसा करने से संदेश देने वाले की आवाज़ बदल जाती है, पहचान में नहीं आती. इधर जब से मोबाइल आ गया है, फ़ोन पर बात करने वाले की पहचान स्क्रीन पर पहले ही चमकने लगती है तो ‘मैं आपका एक शुभचिंतक बोल रहा हूँ’ वाले डायलॉग की ज़रूरत ही ख़त्म हो गई है.

तो हुआ यह कि शुभचिंतकों के छुपकर बोलने का रिवाज़ जाता रहा. शुभ की चिंता वे अब खुलेआम ज़ाहिर करते हैं, सोशल कहलाने वाला मीडिया ऐसी चिंताओं से ऐलानिया भरा पड़ा है. यों भी कह सकते हैं कि जिनकी चिंता की जाती है, उन्हें ख़बर हो या नहीं मगर चिंतक अपने कर्म और शौर्य को क्षण भर के लिए नहीं भुलाते. और ऐसा करने के लिए उन्हें परनिंदा की ज़रूरत पड़ती है. ‘उनकी चिंता मेरी चिंता से ज़्यादा गाढ़ी क्यों…’ वाले उहापोह से निजात दिलाने वालों की भीड़ इससे अलग है.

कोई फरसा तो कोई गदा-तलवार लेकर मुकुट धारे हुए फोटुएं ठेल रहा है, कोई ध्यान-पूजा की तो कोई अपने तीरथ के सफ़र की. संदेश एक ही है – हे मेरी नामाक़ूल जनता, मेरी प्यारी भेड़ों…क्या तुमको मालूम नहीं कि हम तुम्हारे शुभचिंतक हैं. ये जो अपना घर-दुआर छोड़ के गाँव-शहर भटकते फिरते हैं ये किसके लिए है भला? और तुम्हारी छोटी-सी बुद्धि में यह क्यों नहीं घुसता कि अर्जित किए हुए समस्त पुण्य कर्मों के क्षरण की क़ीमत पर तुम्हारी ही ख़ातिर दिन-रात हम परनिंदा में लिप्त हैं. तुम्हें बार-बार भरोसा दिलाने की ज़रूरत क्यों पड़ती है?

माना कि शुभ की चिंता करने वाले लोगों की गुमनामी का दौर बीत गया. वे चिल्ला-चिल्ला कर बताने लगे हैं – मुझे देखो..पहचान लो बे..मैं हूं तुम्हारा असली शुभचिंतक, तुम्हारा हितैषी कोई और हो ही नहीं सकता. मगर कोई उन्हें यह क्यों नहीं समझा पा रहा है कि परनिंदा की उनकी होड़ से पब्लिक का तो इहलोक ही ख़राब हो रहा है, पुराण के हवाले से सोचकर देखें तो शुभचिंतकों का तो परलोक भी हाथ से निकला रहा है.

और अवाम की दुविधा यह कि माउथपीस वाला रुमाल अब चेहरे ढांकने के काम आने लगा है. कितनी सदियाँ बीतीं, कितनी पीढ़ियाँ गुज़र गईं. ये बाबा भारती को आदर्श मानकर जीने वाले लोग ‘सुल्तान’ किसी के भी हवाले कर देते हैं. और सुबह उठकर संस्कृत के ग्रंथ पलटने में जुट जाते हैं कि शुभचिंतकों की ‘गुड मॉर्निंग’ के लिए के लिए आज कौन-सा श्लोक मुनासिब रहेगा.

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