बायलाइन | सैंया उनको ढूंढे गले में बाजा डाल के…

  • 1:42 pm
  • 5 July 2022

मियाँ ख़लील ख़ाँ ने अपना नाम ज़रूर बदल लिया है मगर अब भी फ़ाख़्ता ही उड़ाते हैं – कभी-कभी पर वाली मगर ज़्यादातर बेपर की. और नाम भी क्या धरा – मीडिया. चूंकि उड़ाने का किरदार मेल खाता है, इसीलिए बहुत लोगों ने ग़ौर भी नहीं किया, बस उड़ती हुई फ़ाख्ताएं देखते हैं.

तमाम बरेलवी राजा मेहदी अली ख़ाँ से वाक़िफ़ नहीं, मुमकिन है कि आशा ताई की आवाज़ भी न पहचाते हों मगर साधना पर फ़िल्माए गए ‘मेरा साया’ के गाने पर बरसों-बरस से लहालोट हैं. इतने अभिभूत कि दिल्ली से शहर आने वाले तिराहे पर एकाध मन का झुमका लटकाकर ही माने. ताकि बिना सोचे-समझे मोटर में बैठ गए लोग उसे देखते ही ताड़ जाएं कि वे आख़िर कहाँ आ पहुंचे है. कभी रबर फ़ैक्ट्री की जगमग या कपूर की गंध में बसी हवा का झोंका इस शहर तक आ पहुंचने की पहचान थी. मगर यह गुज़रे ज़माने की बात हुई.

ख़ैर, बरसों तक हरिवंशराय बच्चन और तेजी बच्चन की बरेली में हुई भेंट में झुमका गिरने की कहानी गढ़कर ‘आइडेंडिटी क्राइसिस’ से पार पाने-इतराने वाले ख़लील मियाँ ने इधर नई उड़ाई कि झुमका माने साधना के कान में झूमता सचमुच का गहना थोड़े ही है, हुकूमते-बरतानिया में झुमका नाम का एक ज़ुल्मी सिपाही था, जो बाज़ार में गिरकर फ़ना हो गया था. तो गाने में इसका मतलब ये है. मियाँ को राज़ की यह बात चुंगी वालों ने बताई, जो कोई पीडिया बगल में रखकर रिसर्च कर रहे हैं. ‘शहर मोरा डूबे, शहरी मोरे डूबें, सैंया उनको ढूंढे गले में बाजा डाल के…’ तननुम तननुम. नया इतिहास ऐसे ही तो बनेगा!

मियाँ ठहरे रवायती इन्सान. अब किरदार क्यों बदलें. मगर आसमान में निगाहें गड़ाए रहने वाले तमाम ऐसे हैं, जो एक सबेरे अपने फ़ोन में दाख़िल होते हैं तो खाने-सोने के लिए ही बाहर आते हैं. मगर उनको यह तो मालूम ही होगा कि सनीमा में गाने लिखने वालों का कच्चा माल लोक से ही आता रहा है. ग़ालिब की ग़ज़ल ‘मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए..’ का शेर ‘जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए’ फ़िल्म ‘मौसम’ के लिए लिखे गुलज़ार के गीत का मुखड़ा है. रेख़्ता में लिखी हुई पहली ग़ज़ल यानी अमीर ख़ुसरो की ‘ज़े-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल’ का मिसरा ‘गुलामी’ में गुलज़ार के गीत की प्रेरणा बना. यों भी उर्दू में किसी और के अशआर की ज़मीन यानी भाव पर शेर कहे जाने की रवायत भी है.

फ़िल्मी गीतों में लोकगीत हमेशा से ही छाए रहे हैं. ‘लाली-लाली डोली में लाली रे दुल्हनिया..’ से लेकर ‘निम्बूड़ा’ या ‘गेंदा फूल तक’. किसी ढंग के मांगडियार को गाते हुए सुन लें तो मालूम होगा कि फ़िल्म में लोकधुन तक वैसी की वैसी ही इस्तेमाल हुई है. ‘झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में…’ का हाल भी ऐसा ही है. और यह सच जानने के लिए लाइब्रेरी जाने की ज़रूरत भी नहीं (यह ज़हमत अब कौन उठाता है भला), इंटरनेट पर थोड़ा खंगालने से कम से इसके दो पुराने वर्शन आसानी से मिल जाते हैं.

सन् 1932 में एचएमवी ने एक रिकॉर्ड तैयार किया, जिसमें यह लोक गीत मिस दुलारी की आवाज़ में है और यह रिकॉर्ड फ़ोक यानी लोक गीत की श्रेणी में रखा गया था. दूसरा वर्शन शमशाद बेग़म की आवाज़ में कोरस के साथ है, जो सन् 1947 में आई फ़िल्म ‘देखो जी’ में इस्तेमाल हुआ है. रिकॉर्ड में यह तीन मिनट का है क्योंकि 78 आरपीएम के रिकॉर्ड में एक तरफ़ इतनी ही जगह मिलती थी. यूट्यूब पर फ़िल्म वाला गाना 2.52 मिनट का ही है. मुमकिन मूल इससे ज्यादा लंबा हो क्योंकि उस दौर की फ़िल्मों में गाने सात-आठ मिनट के तो होते ही थे. और दोनों गीतों में एक बंद एक जैसा ही है और एक अलग. फ़िल्म वाले गाने का क्रेडिट वली साहेब को दिया गया है. गाना डॉट कॉम पर यह गुलाबी और अंजुम की आवाज़ में बताया गया है.

और बोल यह रहे –
झुमका गिरा रे, मोरा झुमका गिरा रे.
झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में.
सास मोरी रोये ननद मोरी रोये
सैंया बोले गले में बइंया डाल के. झुमका गिरा रे..
जेठ मेरा ढूंढे जिठानी मेरी ढूंढे
सैंया ढूंढे नैनों में नैना डार के. झुमका गिरा रे..
सैंया मोरा गावै बहन मोरी गावै
सैंया गाये रे गले में बाजा डाल के. झुमका गिरा रे..

पेशावर वाली मिस दुलारी के गाने में अलग बंद ‘सास मोरी रुठै ननद मोरी रूठै..’ मिलता है.

यहाँ लिख दिया ताकि सनद रहे, बखत-ज़रूरत काम आए. मियाँ पढ़ लें तो ठीक हैगा वरना कोई भरोसा नहीं कि बदले हालात में किसी दूसरी शक्ल में झुमके की रूनुमाई का न्योता ज़ल्दी ही आता भी हो.

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