बायलाइन | मैंने रखा है मोहब्बत अपने अफ़साने का नाम

  • 12:09 pm
  • 2 June 2022

कल शाम एक महफिल में शरीक होने का मौक़ा मिला. वहीं एक गाना पहली बार सुनने को मिला, ‘…और जिसको डांस नहीं करना/ वो जाके अपनी भैंस चराए.’ झमाझम संगीत के बीच ये बोल समझने में भी काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी. समझ न पाया कि यह गाना है कि धमकी! अरे, ऐसा भी कोई गाना होता है. इंटरनेट की मार्फ़त मालूम हुआ कि यह ‘ख़ूबसूरत’ फ़िल्म का गाना है, जिसे किसी बादशाह नाम के शख़्स ने लिखा है, संगीतबद्ध किया है और गाया भी है. हमारे बचपन में घर के बड़े-बूढ़े नसीहत देते थे कि पढ़ लो वरना भैंस ही चराओगे. ज़माना बदलते-बदलते कहां आ पहुंचा कि नचनिया बनो वरना भैंस ही तुम्हारा मुक़द्दर है.

दफ़्तर आते वक़्त गाड़ी में विविध भारती बज रहा था. उषा खन्ना के संगीतबद्ध किए हुए रफ़ी के नग्मे सुना रहे थे. ‘मैंने रखा है मोहब्बत अपने अफ़साने का नाम…’ और फिर ‘हम तुमसे जुदा होके, मर जाएंगे रो-रोके…’ गीत के बोल, संगीत, गायकी, सब अपनी जगह, एकदम मुकम्मल. बिना एक दूसरे की सीमा का अतिक्रमण किए. ‘एक सपेरा, एक लुटेरा’ नाम की वह फ़िल्म मैंने नहीं देखी, जिसका गीत है यह. मगर गीत वर्षों से सुनता आया हूं.

पता नहीं कि यह सुर की कशिश है, लफ़्ज़ों का जादू है, मौसिक़ी का नशा है या ये सारे मिलकर सुकून और तसल्ली की दुनिया रचते हैं. या फिर यह अतीत का मोह भर है. बचपन के दिनों का शाहगंज. बाज़ार से गुज़रते फ़िल्म की पब्लिसिटी वाले रिक्शों से आती रफ़ी, किशोर, लता की आवाज़ें. वे गाने आज भी कहीं बजते हुए सुनाई पड़ते हैं तो मन उड़कर शाहगंज के घर, गर्मी की धूप के बाद सांझ की ठंडक के बीच मुंडेरों पर जाकर अटक जाता है. पानी के छींटे भर से उन मुंडेरों से उठती महक तक ताज़ा हो जाती है. उन दिनों घर में जब बाबू जी की पसंद सुबह साढ़े सात बजे से आठ बजे तक रेडियो सीलोन का प्रसारण होता था. के.एल.सहगल का गाना हमारे लिए सिग्नेचर ट्यून की तरह आता. सहगल तब हमारी पसंद नहीं होते थे, मगर उससे हमें यह पता चल जाता था कि पुरानी फ़िल्मों के गाने अब ख़त्म हुए. इसके बाद एक घंटा उन फरमाइशी गानों के होता, जिन्हें हम अपने दौर का मानते. यह बात दीगर है कि वह सब हमें छुपकर सुनना पड़ता क्योंकि सहगल के गाना ख़त्म करते ही बाबू जी भी रेडियो बंद करके नहाने चले जाते.

भावों की लफ़्ज़ोंं में अभिव्यक्ति, कहन की नाज़ुक़ी, गले की मिठास के साथ ही स्वर का उतार-चढ़ाव, और इसके साथ संगीत का जादू मुग्ध कर देता, आज भी करता है. तब मीडिया का जाल आज की तरह नहीं था सो अपनी पसंद के गायकों को कभी तस्वीरों में भी देखा नहीं था, बस कल्पना करते. हेमंत दा को सुनते हुए हमेशा लगता कि वह बिना मुंह खोले गाते हैं शायद. मन्ना डे या महेंद्र कपूर के गानों ने ऐसी छवि बनाई थी मानो उनकी गर्दन की नसें हमेशा तनी हुई रहती हों. मेंहदी हसन हमारे तसव्वुर में हमेशा कुएं के अंदर से ही गाते लगते थे. आशा ताई की आवाज़ का मख़मलीपन मदहोश कर देने-सा असर रखता. उम्र, मनःस्थिति और माहौल जैसे कई तकाज़े इसकी वजह हो सकते हैं. मगर हमारी पीढ़ी इन्हीं आवाज़ों की सोहबत में बड़ी हुई. अपनी ख़ुशियों और तकलीफ़ों की परछाइयां इन्हीं गीतों में तलाश लेती. यों, ऐसा नहीं कि हमारे दौर का सारा फ़िल्म संगीत बहुत श्रेष्ठ था. पर अधिकांश श्रेष्ठ था. और ग़ैर फ़िल्मी संगीत का मेयार किसी भी लिहाज़ से और ऊंचा था. यह बात अलग है कि ग़ैर फ़िल्मी संगीत उतना लोकप्रिय नहीं होता था.

ये सब कुछ लिखने का मक़सद कुछ साबित करना या फिर नए दौर के गानों को ख़ारिज करना हरग़िज़ नहीं है. इस बहाने नई पीढ़ी के तकाज़ों को समझने की कोशिश कर रहा हूं. इरशाद कामिल सरीखे लोग जो कुछ लिख रहे हैं, वह पढ़ने-सुनने पर मन छूता है. यह बहस भी अब पुरानी हो चली है कि नए दौर के गानों की उम्र कई बार फ़िल्म चलने की अवधि से भी कम होती है. हो सकता है ऐसा हो और इसकी वजहें भी तमाम होंगी. मेरी तस्दीक तो इतने भर से हो जाती है कि टेलीविज़न के चैनलों पर आने वाले टैलेंट शो में बहुत कम उम्र के प्रतिभागियों से लेकर युवाओं तक के पास अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने के लिए वही फ़िल्मी गाने होते हैं, जो उनके नहीं, मेरे दौर के हैं.

कुछ वर्ष पहले गोवा फ़िल्म उत्सव में शरीक रहे गुलज़ार से किसी ने सवाल किया कि ‘गोली मार भेजे में…’जैसे गाने भला वह कैसे लिख सकते हैं? गुलज़ार का जवाब था, ‘गाने फ़िल्म के किरदार की जरूरत के मुताबिक लिखता हूं. अब किसी मवाली के लिए गाना है तो वह गोली-तमंचे के बारे में ही बात करेगा. मवाली से तुलसीदास की चौपाई गाने की उम्मीद तो आप भी नहीं करेंगे न!’ वह गुलज़ार हैं, और यह तर्क उनका है. भैंस चराने वाले गाने मुमकिन है कि इसी तरह की ज़रूरतों से पैदा होते हों मगर अपन तो अफ़साने-दीवाने की दुनिया में ही भले.

(16 नवंबर, 2014)
कवर | सन् 1964 की फ़िल्म शबनम का पोस्टर

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