तमाशा मेरे आगे | दो गज़ ज़मीन

    कितना है बद-नसीब ‘ज़फ़र’ दफ़्न के लिए, दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
    – बहादुर शाह ‘ज़फ़र’


अकेले बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने अपने नसीब को नहीं कोसा होगा, अंग्रेज़ी सल्तनत और ईस्ट इंडिया कंपनी के कई सौ अंग्रेज़ हुक्मरानों और फ़ौजी भी अपने आख़िरी वक़्त में अपनी ज़मीन को तरसें होंगे, उन्होंने ने भी अपने नसीब को कोसा होगा पर उनमें से न तो कोई शहंशाह था और न ही कोई भी ऐसी मक़बूल ग़ज़ल या ऐसा एक शेर भी कह पाया होगा.

कैसा मंज़र रहा होगा वो, एक तरफ़ जाँबाज़ हिंदुस्तानी सवार और बादशाह सलामत की फ़ौज, मेरठ से आये मुट्ठी भर घुड़सवार, देशभक्त सिपाही और दूसरी तरफ़ फ़िरंगियों की ताक़त, तोपें, बारूद और बर्बरता. क़िला-ए-मौला (लाल किला) की बाहरी दीवार के उत्तर में बने कश्मीर दरवाज़े और उस से लगी दिल्ली की पहाड़ी पर सन् 1828 में बने फ़्लैगस्टाफ़ टावर तक पहले 11 मई 1857 से ले कर 7 जून 1857 और फिर 30 सितम्बर तक घमासान जंग हुई. आज के मैगज़ीन मेमोरियल और कश्मीर गेट के बीच हुई दस्त-बदस्त लड़ाई में करीब सात हज़ार लोग मारे गए. पहले 28 दिन की घमासान लड़ाई के बाद मेरी और ग़ालिब की दिलकश दिल्ली को ‘मुर्दों का घाट’ क़रार दे दिया गया था. ऐसा बताया गया है कि दिल्ली की आधी आबादी हलाक़ कर दी गई और एक चौथाई बाशिंदे दिल्ली छोड़ कर भाग गए.

आज़ादी के लिए इस क्रांति के दौरान मेरठ से दिल्ली आये हिंदुस्तानी सिपाहियों ने बरतानी मैगज़ीन पर हमला किया. मैगज़ीन यानि असलाह, गोला-बारूद का ज़ख़ीरा (जहाँ से उसे सिपाहियों और फ़ौजियों तक पहुँचाया जाता है). अंग्रेजों ने इस मैगज़ीन की सुरक्षा के लिए इसके इर्द-गिर्द मोर्चाबंदी कर ली थी पर ईस्ट इंडिया कंपनी के बहुत से सैनिक हिंदुस्तानी क्रांतिकारियों के साथ हो लिए थे, गोरों की सेना में कुल नौ ब्रिटिश सैनिक बचे थे जो 5 बजे तक अपनी जगह पर क़ायम रहे और क्रांतिकारियों पर बंदूकों से फ़ायर करते रहे. ऐसा माना जाता है कि एक क्रान्तिकारी सीढ़ी के सहारे छत पर पहुंच गया था, जिसने मैगज़ीन और ख़ुद को उड़ा देने का सोचा ही था कि इस से पहले उस समय के सहायक कमिश्नर जॉन बकले ने मैगज़ीन को उड़ा देने का इशारा किया. कहा जाता है धमाका इतना ज़ोरदार था कि उसकी गूँज मेरठ तक सुनी गई थी. आसपास रहने वाले सैकड़ों लोग मारे गये, जिनमें कुछ अंग्रेज़ भी थे. बारूद से उड़ा दी गई इस मैगज़ीन के रहे-सहे ढांचे पे पत्थर का एक दरवाज़ा बनाया गया जो कश्मीरी गेट पोस्ट ऑफ़िस के ठीक सामने उसी जग़ह पर आज भी मैगज़ीन मेमोरियल गेट के नाम से जाना जाता है.

8 जून 1857 तक अंग्रेज़ जवाबी हमला नहीं कर पाए क्योंकि उनकी फ़ौज मुल्क भर में दूर-दूर तक बिखरी हुई थी. मेरठ छावनी में बग़ावत हो चुकी थी, पास में कोई और बड़ी छावनी थी नहीं. अंग्रेज़ों को दिल्ली शहर पर फिर से कब्ज़ा करने के लिए फ़ौज इकट्ठा करनी थी जिसमें काफी वक़्त लगा, लेकिन जून के आख़िर तक गोरखाओं की दो बड़ी टुकड़ियां और ब्रिगेडियर जनरल जॉन निकोलसन की कमान में 32 तोपों और 2,000 से अधिक नए फ़ौजियों की घेराबंदी वाली रेलगाड़ी पंजाब से दिल्ली आ पहुंची.

नए आये फ़ौजियों ने कश्मीर दरवाज़े के सामने दिल्ली की ओर देखने वाली एक पहाड़ी (जिसे आजकल दिल्ली रिज़ कहा जाता है) पर कब्ज़ा कर लिया लेकिन फिर भी वो शहर पर बड़ा हमला नहीं कर पाए. इस पहाड़ी पर तब घना जंगल होता था जहाँ आज सेंट स्टीफ़ेन हॉस्पिटल है. दोनों तरफ से शहर की घेराबंदी चालू थी, शहर के अंदर मुगल सम्राट बहादुर शाह का दरबार काबिज़ था पर वो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जंग नहीं चाहते थे और उनके वफ़ादार सैनिकों ने भी उन्हें मजबूर नहीं किया. 40,000 से ज़्यादा हिंदुस्तानी लड़ाकों का सामना करते हुए अंग्रेज़ी फ़ौजों को ऐसा लगा मानो वे भी घेराबंदी में हैं.

    ब्रिगेडियर डॉन निकोलसन की क़ब्र | फ़ोटोः राजिंदर अरोड़ा

दिल्ली शहर में वापस घुसने के लिए अंग्रेजों ने 14 सितम्बर 1857 को कश्मीरी दरवाज़े के एक हिस्से और उसके ऊपर बने रास्ते को बारूद से उड़ा दिया. इस वाक़िये की इबारत-लिखा पत्थर आज भी कश्मीरी गेट पर लगा है. निकोलसन ने कश्मीरी गेट पर हमले की अगुवाई की. जिस वक़्त वह अपने आदमियों को जोश दिलाने के लिए पीछे मुड़कर देख रहा था तो एक हिंदुस्तानी सिपाही ने पास के मकान से उसे गोली मार कर घायल का दिया. तीन दिन तक अपने ज़ख़्मों से जूझने के बाद निकोलसन दुनिया छोड़ गए. अंग्रेज़ी रेकॉर्ड्स में लिखा है की, “निकोलसन ने तलवार खींचते हुए अपने आदमियों को अपने पीछे चलने के लिए बुलाया क्योंकि वह एक संकरी गली में हमला करने जा रहे थे.”

ऐसा कहा जाता है कि ब्रिगेडियर निकोलसन को डाक्टरी मदद न मिलने की वजह से उसने पहाड़ी के नीचे वाली चट्टानों पे ही दम तोड़ दिया. उसकी लाश को उसी जगह पर दफ़ना दिया गया और बाद में उसके आस-पास की जगह घेर कर उसे क़ब्रिस्तान क़रार दे दिया गया.
ब्रिगेडियर निकोलसन के मारे जाने के बाद दिल्ली में कोई भी महफ़ूज़ नहीं था. अँग्रेज़ सिपाही घर-घर जा कर अपने बाग़ी सिपाहियों, मुग़ल बादशाह के सिपाहियों और मुग़लों की मदद करने वाली बची-खुची जनता को ढूंढ रहे थे. जिस पर ज़रा-सा भी शक होता उसे वहीँ हलाक़ कर दिया जाता. लाशों को दफ़नाने और जलाने के लिए भी लोग नहीं थे इसलिए उन्हें हत्थू रेहड़ों पे धकेल कर जमुना नदी में बहाया गया. अंग्रेज़ों ने दिल्ली की चारों तरफ़ से घेरा बंदी कर रखी थी. कुछ रोज़ बाद न सिर्फ दिल्ली वालों को बल्कि अंग्रेजी हुक्मरानों और फ़ौज में भी हैज़ा, पेचिश और चेचक जैसी घातक बीमारियां फ़ैल गईं जिसने अंग्रेज़ी रेजीडेंसी को भी चपेट में ले लिया.

जैसे-जैसे दिन बीते अंग्रेज़ों ने दिल्ली के रहने वालों पे हर तरह के ज़ुल्म बरपा किये. सबसे पहले गल्ले और खाने की दूकानें बंद कर दी गईं, फिर बाज़ार, फिर घर से बाहर निकलने की सख़्त मनाही और फिर क़त्लो-ग़ारत. यहाँ तक की लाल क़िले के अंदर भी बहुत ख़ून ख़राबा हुआ और क़िले पर कब्ज़ा कर लिया गया. औरतों और बच्चों को भी नहीं बख़्शा गया. हिंदुस्तान के बादशाह बहादुर शाह जो तब तक हुमायूँ के मक़बरे में पनाह लिए थे, उन्हें 20 सितम्बर 1857 को गिरफ़्तार कर लिया गया और 21 सितम्बर को उनके दो बेटों और एक पोते की गोली मार कर हत्या कर दी गई.

उस वक़्त किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि दिल्ली कभी हिन्दोस्तान की राजधानी भी बनेगी. मुग़लों का शहर दिल्ली जिसके आसपास कोई समंदर नहीं था, कोई बंदरगाह नहीं वो अंग्रेज़ों को सिर्फ़ इसलिए पसंद आया क्यूंकि वो मुग़लों की राजधानी था और शायद वहां कोई बड़ा ख़ज़ाना छिपा था .

170 साल पहले भी इस इलाक़े में ख़ासी हलचल रहती होगी. अंग्रेज़ों की रेज़ीडेंसी, मैगज़ीन स्टोर, फ़ौजियों की आवाजाही, अच्छा ख़ासा चलता बाज़ार, लाहौर, क़ाबुल, पंजाब और कश्मीर को जाने वाले लोगों के क़ाफ़िले, और बाहर से आने वाले व्यापारियों के जत्थे दिल्ली के क़िले की दीवार के बाहर बनी छोटी सराय और टेंटों में रुका करते थे. आज भी ये इलाक़ा उतनी ही गहमागहमी वाला है.

कश्मीरी गेट के भीड़भाड़ वाले इलाक़े में जहाँ सब कुछ धूल-मिट्टी से सना होता है वहां ऊपर मेट्रो और नीचे बसें, कारें, स्कूटर, टेम्पो दौड़ते हैं. बस और ऑटो स्टैंड की भीड़ के बीच में ही फेरीवाले अपना सामान बेचते हैं जिसमें अचानक उभर आने वाली लाल रंग की ऊँची दीवार देखने वाले को चौंका देती है. इस दीवार पे लगे लोहे के लाल गेट के पीछे छुपा दिल्ली का पहला ईसाई क़ब्रिस्तान है. इसमें सैकड़ों ब्रिटिश फ़ौजियों और ईसाई धर्म के मानने वाले अन्य देशी-विदेशियों की क़ब्रें हैं, जिन्होंने हिन्दुस्तान के गुज़रे कल में बहुत-सी अच्छी या बुरी भूमिका निभाई. ये क़ब्रिस्तान उस ज़ुल्म, उस जंग, और उस वक़्त का भी गवाह है जो 1857 में दिल्ली शहर ने झेला. कुछ भी कहें ये क़ब्रिस्तान भी अपनी विरासत का हिस्सा है पर अफ़सोस इसे भी संजो कर नहीं रखा गया.

    जॉन निकोलसन क़ब्रिस्तान | फ़ोटोः राजिंदर अरोड़ा

फौत हुए फ़ौजी, मिशनरी, व्यापारी और अधिकारी लोग आज यहाँ आराम करते हैं. टूटे हुए मक़बरे और क़ब्रों के बिखरे हुए पत्थर अब सिर्फ़ बीती ज़िंदगियों के निशान हैं. वो नामी बड़े ओहदेदार अब मिट्टी में सने हैं जो कभी जाने-माने रहे होंगे. इनके बीच उन बच्चों और औरतें की क़ब्रें भी हैं जिनका इस लड़ाई से कोई सरोकर नहीं था जो सिर्फ़ आपसी बैर या बीमारी के शिकार हुए. इस ईसाई क़ब्रिस्तान को निकोलसन क्रिश्चियन क़ब्रिस्तान के नाम से जाना जाता है जो सन् 1857 में पहाड़ी के उबड़-खाबड़ टीले का एक बड़ा हिस्सा घेर कर बनाया गया था. इसके पूरब में जमुना नदी है, पश्चिम में तीस हज़ारी कोर्ट, उत्तर में दिल्ली विश्वविद्यालय और दक्षिण में नई दिल्ली के इलाक़े हैं. आज क़ब्रिस्तान की दीवार के साथ सटा हैं आलीशान ओबेरॉय अपार्टमेंट्स जिसके पिछले हिस्से में रहने वाले कुछ लोग सीधे क़ब्रिस्तान के मैदान को देख सकते हैं.

जॉन निकोलसन की क़ब्र लोहे की रेलिंग से घिरी है, जिस पर सफ़ेद संगमरमर का पत्थर है जो बहुत मैला हो चुका है. उस पे लिखी इबारत आसानी से पढ़ी नहीं जा सकती. माना जाता है कि निकोलसन का भूत क़ब्रिस्तान में घूमता है (मैंने आवाज़ लगा कर उसे बुलाने की बहुत कोशिश की). जाँबाज़ और मनमौजी निकोलसन ने दिल्ली आने से पहले अफ़गानिस्तान और पंजाब में भी कई लड़ाइयाँ लड़ी थी जहाँ उनके साथी अफ़सरों ने उसे पसंद नहीं किया, पर ऐसा लिखा भी मिलता है कि कुछ हिंदुस्तानी उसकी इज़्ज़त करते थे. लेखक विलियम डेलरिम्पल ने अपनी क़िताब “द लास्ट मुग़ल” में निकोलसन को “निर्दयी क्षमता” वाला “शाही मनोरोगी” कहा है.

निकोलसन की क़ब्र को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा दिया गया है. इसी क़ब्रिस्तान में इमली व कीकर के पेड़ों और बोगनविलिया की धधकती लाल झाड़ियों के बीच दफनाए गए अन्य सैनिकों में 42वीं बंगाल रेज़िमेंट के अलेक्ज़ेंडर विलियम मरे शामिल हैं. जिनकी क़ब्र के पत्थर पर लिखा है, “मरे 18 सितंबर 1857 को दिल्ली की घेराबंदी के दौरान लड़ते हुए मारे गए थे.” मेरा मानना है कि क़ब्रिस्तान में फूलों की क्यारियाँ होनी चाहिये.

अकेले 1857 में इस क़ब्रिस्तान में 500 से ज़्यादा लोगों को दफ़नाया गया. इंटरनेट पर मौजूद एक लेख में लिखा है, “जेम्स कमिंग 28 जुलाई, 1874 को बिजली गिरने से मारे गए एक टेलीग्राफ़ मास्टर थे, जो अपनी विधवा और नवजात बेटी को अपने नुक़सान पर विलाप करने के लिए छोड़ गए.” अगस्त 1907 में 29 वर्ष की आयु में जेम्स डाओफ़ की “हीटस्ट्रोक से मृत्यु” हो गई. एलिजाबेथ बैडली रीड, रेवरेंड बी.एच. की बेटी. अमेरिकन मेथोडिस्ट मिशन सोसाइटी की बैडली का जन्म 1885 में लॉस एंजिल्स में हुआ था और उनकी मृत्यु 1935 में दिल्ली में हुई थी. उनकी क़ब्र पर लिखा है, “वह भारत से प्यार करती थीं.” ये सब क़ब्रें अब नहीं दिखतीं.

यहां कई बच्चों की क़ब्रें भी हैं, जिनके लिए शायद उन दिनों का हिन्दोस्तान बहुत मुश्किलों वाला रहा होगा . क़ब्रिस्तान की देखरेख करने वाले कर्मचारी जेम्स ने मुझे बताया कि “वैसे तो क़ब्रिस्तान अब बंद हो गया है. नए मुर्दे दफ़नाने के लिए अब यहाँ कोई जगह नहीं है.” फिर भी मैंने देखा की यहाँ बहुत से नई क़ब्रें हैं जिनपे चमकते काले ग्रेनाइट पत्थर लगे हैं, ये सब 2020 और उसके बाद की ही हैं. एक परिवार को मैंने क़ब्रिस्तान से निकलते देखा जिनके हाथों में फूलों की टोकरियां थीं और बाँटने के लिए कुछ खाने का सामान था.
जिन ख़ास लोगों की क़ब्रों को पहचानने में जेम्स ने मेरी मदद की और जिनके नाम मैं पढ़ सका उनमें थे – सारा हैरियट (1858), अल्बर्ट अल्फ़्रेड लेसन (1862), चार्ल्स विलियम (1864), ऐनी फ़्रांसिस (1861), एथेल (1907), मेरी मोल (1864), थॉमस पीकॉक (1859) और एलिज़ाबेथ वोल्विंग (1864).

    जॉन निकोलसन क़ब्रिस्तान | फ़ोटोः राजिंदर अरोड़ा

क़ब्रिस्तान में दाख़िल होते ही उसके सामने वाले, यानी क़ब्रिस्तान के दक्षिणी सिरे पर, सबसे पुरानी क़ब्रें हैं, जो 1857 से लेकर 1890 तक की हैं, गेट के दाहिनी ओर 1900 से लेकर 1940 तक की और उत्तर-पश्चिम व पीछे के हिस्से में ज़्यादा नई क़ब्रें हैं, जिनके चमकते काले और सफ़ेद पत्थरों से और उन पर लिखे संदेशों से पता चलता है कि वो सब 1970 के बाद की हैं. निकोलसन क़ब्रिस्तान में 1857 से 2022 तक की क़ब्रें हैं जो छोटे आकार में बनी मूर्ति कला का बेहद ख़ूबसूरत नमूना हैं. संगमरमर, ग्रेनाइट और लाल बलुआ पत्थर पर बेहतरीन बारीक़ नक़्क़ाशी में उकेरी गई है. बहुत-सी क़ब्रों पर ईसाई धर्म का चिन्ह सलीब (क्रॉस) बना है, तो कुछ लाजवाब कंद-कारी का काम है.

जेम्स ने मुझे बताया की क़ब्रिस्तान की देख-रेख के लिया बहुत कम पैसा आता है जो कि एक समस्या है. इसके चलते बहुत-सी पुरानी लाल पत्थर से बनी ख़ूबसूरत डिज़ाइन की क़ब्रों के ढांचे गिरते जा रहे हैं. क़ब्रिस्तान के पूरे मैदान में साफ़ सफाई भी पूरी तरह नहीं हो पा रही. जेम्स का कहना है कि बरसों की धूल और गर्द पड़ने से क़ब्रिस्तान की मैदानी मिट्टी की ऊंचाई भी बढ़ गई है, जिससे पुरानी क़ब्रें धँसती जा रहीं हैं और बहुत सारी तो अब दिखाई भी नहीं देती. मैंने देखा कुछ नशेड़ी लड़के एक कोने में आग जला कर चिलम भर रहे थे. मुझे देखते ही दो लोग दीवार फाँदकर बाहर कूद गए.

निकोलसन की क़ब्र में उनका चेहरा और आँखें कश्मीर गेट की तरफ़ ही हैं. बीते 170 सालों में जाने वो किस-किस बदलाव और ख़ून-ख़राबे के गवाह रहे.

कुछ देर जॉन निकोलसन की क़ब्र पर खड़ा मैं उनसे बातें करता रहा. मेरे सवाल बहुत थे पर उनके जवाब झिझक-झिझक कर और धीरे-धीरे आ रहे थे. ठंड में शायद जॉन भी बात करने के मूड में नहीं थे या फिर तफ़्सील से बताना नहीं चाहते थे. सर्दी के मौसम के चलते दिल्ली में अभी सूरज के दर्शन भी नहीं हुए थे, दिन के 11.30 बजे भी कब्रिस्तान पर कोहरा तैर रहा था. क़ब्रिस्तान के कर्मचारी जेम्स से बात करते मैंने काँपती उँगलियों से फ़ोन पर कुछ नोट्स लिए और चाय की दूकान ढूंढते हुए बाहर चला आया.
“आपके हिस्से की दो गज़ ज़मीन तो हिंदुस्तान में ही थी निकोलसन साहब, फिर मिलेंगे.

    So Long, John. Sleep tight.”

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