‘देह’ के जरिए इंसानी सभ्यता को आगाह करता नाटक

प्रयागराज | शरद कोकास की एक कविता है – देह. देह के विकास की गाथा और इसके इतिहास का आख्यान भी. तमाम सभ्यताओं की विकास यात्रा कराती यह कविता देह के मशीनों में तब्दील होते जाने के साथ ही इंसानी सभ्यता पर भावी ख़तरों से हमें आगाह भी करती है. 29 सितंबर को ‘बैकस्टेज’ ने ‘देह’ की नाट्य प्रस्तुति दी.

लॉकडाउन के दिनों से ही ठहरी हुई शहर की सांस्कृतिक गतिविधियों का सन्नाटा तोड़ती 68 मिनट की यह प्रस्तुति कविता के केंद्रीय भाव की तरह गंभीर और सार्थक साबित हुई. ‘देह’ चार भागों में बंटी लम्बी कविता है. सात अभिनेताओं ने अलग-अलग पंक्तियों को उसके भाव के आधार पर बाँट कर प्रस्तुत किया. शब्द-चित्रों में मधुरता, उत्तेजना, शीतलता, रौद्र, और करुणा आदि को सहजता से आत्मसात करके प्रस्तुत किया गया. कविता में निहित अलग-अलग रस उद्घाटित करने के लिए अलग अभिनेताओं का चुनाव बहुत सटीक था.

यह कविता ग्लोबल विलेज हुई जा रही आधुनिक दुनिया का सच सामने लाती है, और इस क्रम में आपस में ख़ूबसूरती से गुंथे इतिहास, विज्ञान, दर्शन और तकनीकि का सहारा लिया गया. देह की उत्पति से लेकर इंसानी सभ्यता के विकास और दुनिया के तमाम युद्धों, योद्धाओं, विनाशों और खंडहरों में तब्दील संस्कृति को आज की भौतिकतावादी ज़िन्दगी से जोड़ते हुए मानव जाति के दैहिक सुख-दुःख के अंतर्संबंधों में पूँजीवादी व्यवस्था पर यह कविता प्रश्न खड़ा करती है. सर्वहारा के संघर्ष और उसकी तकलीफ़ें नज़र आती हैं.

यह भी कि विकास करने वाली दुनिया की तमाम सभ्यताएं समय के साथ विलुप्त हो गईं. विज्ञान के व्यापक शोध मनुष्य की देह को आराम और सुख देने की जुगत में लगे हुए हैं. और इस आपाधापी में देह रूपी मनुष्यता को ख़त्म करती जा रही है. विश्व इतिहास में अपनी गाथा को गाते-रोते तमाम नामों के बिम्ब मंचन में बहुत ही सहज उभरे हैं. इसमें शामिल है- ट्राय का युद्ध, अप्लास पर्वत, गैस चेंबर, तुर्कमान गेट, तंदूर कांड, ख़ूनी दरवाज़ा, बेबीलोन, स्पार्टकस और आधुनिक काल में सबसे घनी आबादी वाली मुंबई की झोपड़पट्टी धारावी…और इन सभी के केंद्र में देह धारण किए हुए आदमी ही हैं, जिसके इतिहास का रुदन आज भी जारी है. कई सारे सिद्धांत और वैज्ञानिकों के नाम भी आए जिन्होंने मानव देह की सुखानुभूति के लिए आविष्कार किए लेकिन इंसान की प्रवृति बड़ी ख़तरनाक है जो प्रकृति पर विजय पाना चाहती है.

नाटक में स्त्री पात्रों की भागीदारी नदारद थी हालांकि अभिव्यक्ति में इसकी कमी नहीं खली. बकौल डायरेक्टर, शहर में परिवहन की असुविधा और महामारी का ख़्याल करके यह निर्णय जानबूझकर लिया था. “देह का बाहरी सौंदर्य दरअसल इसके भीतर की वजह से है.” नाटक में कई बिम्ब ऐसे हैं, जिन्हें आधुनिक यथार्थवादी नज़रिए से देखा जा सकता है- शुरुआती दृश्य में डिजिटल माध्यम का सहारा लेते हुए अभिनय दिखाई पड़ता है, जिसमें सभ्यता की शुरुआत और देह के निर्माण में एक कोशिकीय जीव अमीबा से शुरू होकर गुणसूत्रों के विभाजन तथा पूरी मानव सभ्यता के विकास की एक यात्रा है.

इसी माध्यम में ह्वांगहो नदी के साथ युद्ध की विभीषिकाओं के बाद की स्थिति और खंडहर हो चुके भू-भाग के बिम्ब प्रस्तुत किए गए. मटके का टूटना देह की समाप्ति और मिट्टी में मिल जाना, ऊपर की ओर लटकते हुए तीन चक्र जो काल चक्र के तीनों काल दर्शाते हैं. ऊँचाई पर बैठा हुआ आदमी, जिसका अंत आख़िरकार इसी मिट्टी में मिलने तक ही सीमित है, उसकी देह का अस्तित्व यहीं तक है, पिंजरे के अंदर और खिड़की के अंदर से आ रही दारुण पुकार और उसके अंदर मनुष्य की छटपटाहट तमाम व्यवस्थाओं के बावजूद उसके अकेलेपन की पुकार हो सकती हैं. रोज़गार और नशे जैसी हमारे दौर की समस्याओं पर भी नाटक ध्यान खींचता है.

हालांकि यह मुक्ताकाशी मंचन था मगर स्टेज के डिज़ाइन की ख़ूबियों ने देखने वालों को यह अहसास नहीं होने दिया. मंच पर पात्र पहले से मौजूद थे. पात्रों के लिए कोई प्रवेश नहीं था. सभी पात्र अपने आस-पास ही गति करते हुए अभिनय कर रहे थे. आख़िर में सभी पात्र ज़ीने से चढ़ कर ऊपर छत पर एक क़तार में खड़े हो जाते हैं, जहाँ कुछ संवादों के साथ नाटक पूरा होता है. नाटक के संवाद कविता की पंक्तियाँ ही रहीं, उनमें कोई बदलाव नहीं किया गया था. मेरी समझ में प्रेक्षागृह के मुक़ाबले इस कविता के मुक्ताकाशी मंचन में ही भाव ज्यादा बेहतर तरीके से उभर कर आ सकते थे. डिज़ाइन का तरीक़ा हर किसी की अपनी सृजनात्मक क्षमता के मुताबिक हो सकता है.

दर्शकों की उपस्थिति विशेष आमंत्रण पर थी. कोरोना काल में दर्शकों के बीच दूरी का ख़्याल रखते हुए यह मंचन सीमित दर्शकों के साथ हुआ. न सिर्फ़ दर्शकों के लिए बल्कि नाटक के पात्रों पर भी यही बात लागू थी. मंच सज्जा, प्रॉपर्टी और कॉस्ट्यूम का संयोजन कविता में बुने बिम्बों के आधार पर था, जो उसके अर्थ को बख़ूबी उद्घाटित कर सका. मंच पर सतीश तिवारी, अमर, भास्कर, अनुज, दिलीप, प्रत्युष, और दिवेश रहे. नाटक का निर्देशन प्रवीण शेखर ने किया. प्रवीण अपने प्रयोगधर्मी रंगकर्म के लिए जाने जाते हैं. हवालात, चार्वाक, स्वांग मल्टीनेशनल, खारू का खरा क़िस्सा और हर्माफ़्रोडाइट उनके ख़ास नाटक हैं, जो समायिक और गंभीर समस्याओं को केंद्र में रखते हैं.

इस शहर में खुले आकाश के नीचे नाट्य प्रस्तुति देखने का यह मेरा पहला मौक़ा था. लॉकडाउन के दिनों में भी रंगमंच की कमी पूरी करने के तरीक़े निकाले गए. सोशल मीडिया पर, यूट्यूब के ज़रिए या लाइव कार्यक्रमों के तहत रंगमंच सृजित करने की ज़रूर कोशिशें हुईं लेकिन ये माध्यम दर्शकों को बहुत प्रभावित नहीं कर सके. रंगमंच कला का जीवंत माध्यम है, और इसे रिकॉर्डिंग की तरह या फ़िल्मों की तरह स्क्रीन पर दिखाने से दर्शकों और अभिनेताओं का संबंध नहीं बन पाता, क्योंकि उनके बीच एक तीसरे माध्यम का दख़ल लगातार बना रहता है.

दर्शकों को मंचन के दौरान एक प्रेक्षागृह और पूरा स्टेज दिखना चाहिए ताकि मंच पर सजी कथानक संबंधी वस्तुओं के आधार पर उनके मन में बिम्ब बन सकें और वे उस कथानक को जीवंत महसूस कर सकें. अभिनेता दर्शकों से प्रत्यक्ष रूबरू होता है और उनकी आँखों में आँखें डाल कर पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी बात कहता है और यही प्रत्यक्ष माध्यम उसे कलाओं में जीवंत बनाती है. अभिव्यक्ति की तलाश में कलाकार की बेचैनी ही तो उसके अस्तित्व का सबूत है. इस लिहाज से ‘देह’ की प्रस्तुति दर्शकों और कलाकारों दोनों के लिए राहत भरी साबित हुई.

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में है.’आधुनिक हिन्दी रंगमंच एवं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ विषय पर शोध कर रहे हैं.)

सम्बंधित

विजय तेंदुलकर | भारतीय रंगमंच में यथार्थ का चितेरा

मुखौटों का इंसान से नाता 32 हज़ार साल पुराना


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.