डायरी | यीस्ट का जादू

  • 11:17 pm
  • 20 March 2022

हाल में मैंने डायलिसिस की ख़ातिर फेशुला की सर्जरी कराई और बाएं हाथ में कलाई के ऊपर फेशुला बनवाया. फेशुला न सिर्फ़ असफल रहा बल्कि संक्रमण हो जाने से वहां सेप्टिक का नया संकट खड़ा हो गया. तब मेरे नेचुरोपैथ और गुरु डॉ० जेता सिंह ने मेरे गुर्दों के इलाज के लिए ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ की पहले से दी जा रही 40 टेबलेट्स प्रति दिन की ख़ुराक़ को बढ़ाकर तुरंत 100 टेबलेट्स कर देने को कहा. मेरे गहरी जिज्ञासा जताने पर उन्होंने बताया कि ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ में मौजूद प्रचुर प्रोटीन मेरे डेढ़ इंच गहरे सेप्टिक के घाव के जल्द भरने में तो ज़बरदस्त मददगार साबित होंगे ही, झोंक-झोंक कर दी गई एंटीबायोटिक्स के साइड इफेक्ट्स से भी इसमें मौजूद विटामिन बी के समूचे परिवार की बहुतायत, मेरी और मेरे गुर्दों की प्राण रक्षा करेंगे.

पिता से जुड़ी बचपन की स्मृतियों में रह-रह कर ‘यीस्ट’ टेबलेट्स उभरती हैं. मेरे पिता पेशे से डॉक्टर थे. उन्होंने अपनी शिक्षा ‘आगरा मेडिकल स्कूल’ (वर्तमान एस.एन. मेडिकल कॉलेज, आगरा) से प्राप्त की थी. मुझे याद है कि अपने अधिकांश रोगियों को रोग से जुड़ी दवाइयों के साथ-साथ उन्हें ‘यीस्ट’ की गोलियां अवश्य देते थे. मेरे पूछने पर उन्होंने बताया था कि ‘यीस्ट’ बाक़ी दवाओं में प्रयुक्त एंटीबायोटिक्स और दूसरे रसायनजनित नुकसान की भरपाई तो करती ही है, मरीज़ का हाज़मा भी दुरुस्त रखती है जिससे लिवर, किडनी और हार्ट को मजबूती मिलती है. मैंने उनके परम मित्र स्व.डॉ० वीजी कुंटे (जो बॉम्बे मेडिकल कॉलेज से पढ़े थे) को भी कई तरह के रोगियों को अन्य दवाओं के साथ-साथ ‘यीस्ट’ टेबलेट्स देते देखा है. इसका मतलब यह हुआ कि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक देश भर की ऐलोपैथिक मेडिकल शिक्षा में और तदनुसार मेडिकल प्रेक्टिस में ‘यीस्ट एक अवश्यम्भावी ‘सप्लीमेंट’ के तौर पर इस्तेमाल की जाती थी. अब के ऐलोपैथ डॉक्टर लेकिन भूलकर भी इसे अपने मरीज़ों को नहीं देते. क्यों, इसकी चर्चा बाद में.

नेचुरोपैथी में लेकिन ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ का भरपूर चलन है. दुनिया भर के सभी योग्य प्राकृतिक चिकित्सक सामान्य बीमारियों में तो इसे अपने मरीज़ों को देते ही ही हैं, असाध्य रोगों में इलाज के टूल के रूप में बड़े पैमाने पर इसका इस्तेमाल करते हैं. डॉ. जेता सिंह तो यीस्ट के ख़ास मुरीद चिकित्सकों में शामिल हैं.

अब यह ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ ऐलोपैथी के चलन में नहीं रही तो आप में से ज़्यादातर पाठक भला इसके नाम और महिमा से कैसे परिचित हो सकते हैं? हो सकता है, आप में कुछ लोगों ने ‘यीस्ट’ का ज़िक्र बेकरी में ख़मीर उठाने वाले प्रोडक्ट के रूप में सुन रखा हो. यहाँ लेकिन जिस ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ की चर्चा चल रही है, उसमें और बेकरी में इस्तेमाल होने वाले ‘बेकिंग यीस्ट’ में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है. ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ जहाँ स्वस्थ मनुष्य और रोगी- दोनों के लिए जीवनदायी होता है, ‘बेकिंग यीस्ट’ स्वस्थ मनुष्य को भी क्षति पहुँचाने वाला पदार्थ है. यही वजह है कि नेचुरोपैथ डबलरोटी, केक और बिस्कुट सरीखे बेकरी उद्पादों से दूर रहने की नसीहत देते हैं.

‘यीस्ट’ फंगस प्रजाति की एक वनस्पति है. प्राचीन मिस्र की सभ्यता के शुरूआती समाज में इसका इस्तेमाल बीयर और बेकरी का सामान बनाने में होता था. अब लेकिन इसे शोध के जरिये विकसित करके ‘फ़ूड सप्लीमेंट’ के तौर पर दिया जाता है. सर्वोत्तम प्रजाति की ‘यीस्ट’ का इस्तेमाल ही बड़े पैमाने पर इसकी पैदावार में किया जाता है, परिणामस्वरूप ‘यीस्ट’ के जो पौधे तैयार होते हैं वे विटामिन, प्रोटीन और खनिज- लवणों से भरपूर होते. ‘यीस्ट’ के निर्माता एडवांस में यहाँ तक बता सकते हैं कि तैयार होने वाली ‘यीस्ट’ में विटामिन और प्रोटीन की मात्रा कितनी-कितनी होगी.

विशेषज्ञों की देख-रेख में जैसे दूसरे फलों और सब्जियों की पेशेवर तरीके से खेती होती है, ‘यीस्ट’ के पौधे की खेती भी नियंत्रित तापमान पर ठीक उसी प्रकार की जाती है. इसके उत्पादक किसान इसे टंकियों में पैदा करते है. पौधों के पूर्ण आकार लेने के बाद इन पौधों को इनके ‘वेस्ट प्रोडक्ट’ से अलग किया जाता है. इन्हें बहुत ही कम तापमान पर सुखाया जाता है, जिससे कि इसके पोषक तत्व नष्ट न होने पाएं. इसके बाद इसे छोटी या बड़ी औद्योगिक प्रोडक्शन यूनिट में पल्वराइज़र (ग्राइंडिंग) मशीन में डाल कर पीसा जाता है और तदनुसार टेबलेट के रूप में जमाया जाता है.

‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ में विटामिन बी समूह के सभी तत्व पाए जाते हैं. विटामिन बी1, बी2, बी6, बी12, के अलावा इसमें 46 तरीके के प्रोटीन, 36 प्रकार के कार्बोहाइड्रेट और कई तरह के एन्ज़ाइम्स पाए जाते हैं. विटामिन बी परिवार के किसी एक विटामिन को अकेले खाया जाए तो उसका परिणाम नकारात्मक होता है लेकिन ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ में समूचा विटामिन बी परिवार मौजूद है. ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ न केवल इन सभी विटामिनों और पोषक तत्वों का विशाल भण्डार है, बल्कि ये सभी विटामिन तत्व इसमें संतुलित रूप में पाए जाते हैं. यह संतुलन प्राकृतिक अनुपात में विकसित होता है. प्राकृतिक अनुपात का यह जादुई आंकड़ा ही सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु है, क्योंकि इसी की वजह से शरीर इन तत्वों का पूरा-पूरा उपयोग कर पाता है. यदि यह अनुपात असंतुलित होगा तो शरीर इनका समुचित उपयोग नहीं कर पाएगा और ये अमृत तत्व मल-मूत्र के जरिये शरीर से बाहर निकल जाएंगे.

विटामिन बी समूह से परिपूर्ण अन्य खाद्य पदार्थों से यदि ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ की तुलना करें तो हम पाते हैं कि ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ में इनकी मात्रा सैकड़ों गुना ज़्यादा है. ‘यीस्ट’ का पौधा स्वयं अपने उपयोग के लिए विटामिन्स का विशाल भंडार अपने अंदर जमा करके रखता है. ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ के पौधे को इसीलिए सुखा कर (सुषुप्तावस्था में) रखा जाता है. यदि ऐसा न किया जाए तो समूचे विटामिन और पोषक तत्वों का भक्षण पौधा स्वयं ही कर लेगा.

अब सवाल उठता है कि ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ और बेकरी में डबलरोटी, केक व बिस्कुट बनाने वाले ‘बेकिंग यीस्ट’ में क्या फ़र्क़ है और क्यों हमें ‘बेकिंग यीस्ट’ खाने की सलाह नहीं दी जाती है? वस्तुतः ‘बेकिंग यीस्ट’ में यीस्ट के पौधे जीवित और जागृत अवस्था में होते हैं. इनकी विटामिन बी की भूख बहुत ज़्यादा होती है. ‘यीस्ट’ के पौधे जब तक जागृत रहेंगे, अपने वातावरण में आने वाले विटामिन बी को खुद ही चट कर जाते रहेंगे. इतना ही नहीं, मनुष्य के शरीर में दाखिल होने के बाद ये उसके शरीर का सारा विटामिन बी भी स्वयं ही खा जाएंगे, जो इंसान ने अन्य भोज्य पदार्थों से प्राप्त किया होगा. इसके नुकसान के तौर पर सबसे पहला लक्षण मनुष्य में क़ब्ज़ के रूप में दिखता है. डबलरोटी, केक और अन्य बेकरी प्रोडक्ट्स खाने से कब्ज़ की शिकायत की एक वजह ये भी है, दूसरे नुकसान अपनी जगह हैं. इसी वजह से सारे नेचुरोपैथ और कुछ-कुछ ऐलोपैथ बेकरी के इन पदार्थों को खाने पर पाबन्दी लगाते हैं.

कुल उपलब्ध 20 में से 16 प्रकार के अमीनो एसिड्स ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ में होते हैं. अमीनो एसिड प्रोटीन के सूक्ष्म तत्व हैं. ये मनुष्य के शरीर में कार्य करने की क्षमता, लम्बा जीवन, रोग प्रतिरोधक क्षमता और शरीर के ऊतकों (टिशूज़) के पुनर्निर्माण में काम आते हैं. ‘ब्रूअर्स यीस्ट’ सम्पूर्ण प्रोटीन प्राप्त करने का बहुत अच्छा और बड़ा स्रोत है. मांस, मछली, दूध, दुग्ध उत्पाद, सूखे मेवे और अण्डे जैसे प्रोटीन वाले खाद्य पदार्थों की बड़ी खुराक की तुलना में ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ की बहुत कम मात्रा की ख़ुराक़ ही उनके बराबर या उनसे ज़्यादा प्रोटीन की संवाहक होती है. (इस तुलना का विस्तृत अध्ययन गूगल क मार्फ़त भी किया जा सकता है. )

बीते 50-60 सालों भारत सहित दुनिया भर में व्याप्त ऊटपटांग ‘फ़ूड हैबिट्स’ ने मनुष्य के शरीर में मौजूद विटामिन पदार्थों के संतुलन को बुरी तरह नष्ट-भ्रष्ट कर डाला है. अकेले सफ़ेद चीनी (शक्कर) का उदाहरण लें. सवेरे-सवेरे ‘बेड टी’ के नाम पर पी जाने वाली चाय से लेकर रात तक हम जिसका इस्तेमाल खीर-पकवान, हलवा-पुडिंग, आइसक्रीम और न मालूम किन-किन पदार्थों में आँख मूंदकर बहुतायत में करते जाते हैं. हमें इस बात का क़तई आभास नहीं होता कि चीनी पोषक तत्वों से शून्य ऐसा पदार्थ है, जिसमें 100 प्रतिशत कैलोरी है और जिसे पचाने के लिए विटामिन बी तथा कैल्शियम ज़रूरी होता है. इसे पचाने के चक्कर में हमारे शरीर में व्याप्त विटामिन बी तथा कैल्शियम का पूरा संतुलन ही बिगड़ जाता है जो हमारे शरीर के लिए घनघोर रूप से नुकसानदेह है. दूसरी तरफ गुड़ 98 प्रतिशत पोषक तत्वों से भरपूर है लेकिन इसे ‘देहाती पदार्थ’ मानकर हमारी जीवन शैली में उसका उपयोग या तो नहीं होता है या न के बराबर होता है.

यही बात मैदा पर भी लागू होती है. सफ़ेद और सभ्य (!) बनाने के चक्कर में इसे चोकर से अलग करके पीसा जाता है. इसके चलते यह आटा के उन सभी शानदार गुणों को खो देता है जो हमारे जीवन में अत्यंत महत्व रखते हैं. हम जब प्रतिदिन इस मैदा का दो या तीन बार सेवन करते हैं, तब यह हमारे समूचे पाचन तंत्र को नष्ट करके हमारे शरीर को क़ब्ज़ का शिकार तो बनाता ही है, हमारे शरीर को दूसरी अनेक गंभीर बीमारियों की आग में झोंकने का काम भी करता है. चिड़चिड़ापन, उदासीनता, कई तरह की स्नायु (न्यूरो) पीड़ा, त्वचा की अनेक बीमारियाँ, मांसपेशियों की कमज़ोरी आदि ऐसे ही रोग हैं, जो शरीर में विटामिन ‘बी1‘ की कमी के संकेत हैं. वहीं ‘बी2‘ के अभाव में प्रकाश के प्रति अति संवेदनशीलता, मुंह-नाक-कान के आसपास ज़ख़्म बन जाना आम फ़हम रोग हैं. ‘बी3‘ की भारी कमी से पेलाग्रा (मुंह और जीभ में निकलने वाले छाले जिनके बढ़ जाने से मानसिक स्वास्थ्य भी दुष्प्रभावित होता है) हो सकता है.

‘फ़ूड हैबिट्स’ से जनित इस सारे नर्क में ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ हमारे लिए स्वर्ग के टापू की तरह है. इसमें मौजूद ‘कोलाइन’ और ‘आइनॉसिटॉल’ भी विटामिन बी परिवार के सदस्य हैं. ये दोनों तत्व ‘आर्टीरियो स्केलेरोसिसनसोंजैसे गंभीर रोगों (जिसमें नसों का लचीलापन समाप्त हो जाता है और अन्य रोगों के अलावा हाई ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियां भी विकसित हो जाती हैं) से मुक़ाबला करते हैं. ‘‘कोलाइन’ अक्सर ‘आइनॉसिटॉल’ के साथ मिलकर ही कार्य करता है. शरीर में फैट के संचालन और नियंत्रण, लिवर में चर्बी जमा होने (फैटी एसिड्स) तथा लीवर सिरोसिस (लीवर का कैंसर) रोकने में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. किडनी की गंभीर बीमारी ‘नेफ्राइटिस के उपचार में ‘कोलाइन’ से ख़ासा फ़ायदा होता है.

अमेरिका में 1941 में ही यह स्थापित किया जा चुका था कि भोजन में ‘यीस्ट’ शामिल करने से विपरीत परिस्थितियों में भी लिवर के कैंसर से बचाव होता है. स्थायी कृषि और ऑर्गैनिक खेती से जुड़े प्रख्यात लेखक जे.आई. रोडले, आयरिश राज परिवार से जुडी शिकागो निवासी रूथ एडम्स, प्राकृतिक भोज पदार्थों की समर्थक और खान-पान में चीनी-नमक की ज़बरदस्त विरोधी चार्ल्स ग़ैरास आदि के लिखे पर विश्वास किया जाय तो इस तथ्य की पुष्टि होती है. यहाँ यह ग़लतफहमी भी दूर कर लेनी चाहिए कि चंद दिनों तक यीस्ट खा लेने भर से हमेशा के लिए स्वस्थ रहा जा सकता है. स्थायी और बेहतर स्वास्थ्य की गारंटी के लिए ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ को हर रोज़ पर्याप्त मात्रा में भोजन का हिस्सा बनाना ज़रूरी है- वह भी ताउम्र.

‘क्रैम्प्स’ (मांसपेशियों की ऐंठन), ‘मसल कैच’ (बाघी लग्न) और ‘पैराथेसिया’ (पैरों में सुइयाँ चुभने जैसा अनुभव होना) आदि बीमारियों में ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ कारगर इलाज करने वाला टूल साबित हुई है. दरअसल ‘थियामिन’ अपने मूल स्वरूप में शरीर द्वारा उपयोग में नहीं लाया जाता है. इसके उपयोग के पूर्व शरीर इसे ‘को कार्बोक्सिलेज’ नामक पाचक रस में बदल देता है. ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ में ‘थियामिन’ के साथ-साथ ‘को कार्बोक्सिलेज’ भी भरपूर तादाद में होता है. जिन लोगों को लिवर में गंभीर समस्या होती है, उनका शरीर भी यीस्ट को सरलता से पचा लेता है. ऐसे मरीज़ों को ‘को कार्बोक्सिलेज’ की प्रत्यक्ष खुराक उनकी पाचन की समस्या को हल कर देती है, इसलिए लिवर से जुड़ी अनेक बीमारियों के इलाज में भी ‘यीस्ट’ की महत्वपूर्ण भूमिका होती है.

जिन लोगों की रूचि कुदरती ‘कॉस्मेटिक मेंटेनेंस’ में है उनके लिए ज़रूरी सूचना यह है कि ‘आइनॉसिटॉल’ स्वस्थ बालों के पुनर्जन्म एवं सफेद बालों के रंग को प्राकृतिक रूप से पुनः काला करने, गंजेपन और एक्ज़िमा की रोकथाम में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

सन् 1948 में ‘ब्रूअर्स यीस्ट काउन्सिल’ ने ‘जिरोंटोलॉजी (वृद्धावस्था का अध्ययन) के विषय में किए गए अपने शोधों के उपरान्त यह स्थापित किया था कि ‘यीस्ट’ वृद्धावस्था में उम्र घटाने को तत्पर एक शानदार और क़ामयाब ‘एंटी एजिंग’ फ़ूड सप्लीमेंट भी है. ‘काउन्सिल’ ने अपने शोध के दौरान चूहों के एक समूह को उनके भोजन में 5 प्रतिशत ‘यीस्ट’ शामिल करके जीवन भर रखा. इस समूह में सबसे वृद्ध चूहा 1400 दिनों तक ज़िन्दा रहा, जबकि चूहों की औसत आयु 700 दिनों की होती है. यह डाटा हमें बताता है कि ‘यीस्ट’ को सारी उम्र खाना चाहिए. इससे वृद्धावस्था (यानी अंगों की कार्यक्षमता कम हो जाने और शरीर के शिथिल पड़ जाने) को काफ़ी दूर धकेला जा सकता है और अधिक उम्र में भी पूर्ण कार्य सक्षम रहा जा सकता है. डॉ.जेता सिंह बताते हैं, “जैसे-जैसे इंसान की उम्र बढ़ती जाती है, उसके शरीर के सेल के पुनर्निर्माण का काम धीमा पड़ता जाता है. ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ खाने से वृद्ध शरीर के स्टेम सेल ‘बूस्ट’ होते हैं. यह दरअसल वे रॉ ब्रिक्स (कच्ची ईंट) सरीखी है जो पुनर्निर्माण में लगे स्टेम सेल को एक्टिवेट करते हैं और टूटफूट से होने वाले नुकसान के पुनर्निर्माण की भरपाई को तेज़ कर डालते हैं.”

अब सवाल यह उठता है कि ‘ब्र्युअर्स यीस्ट ‘ का सेवन प्रतिदिन कितना रखा जाय? डॉ. जेता सिंह बताते है कि सामान्यतः 10 ग्राम ‘यीस्ट’ दिन में चार बार (यानी 40 ग्राम प्रतिदिन) खाना चाहिए. प्रत्येक 10 ग्राम यीस्ट से हमें लगभग 35 कैलोरी ऊर्जा, 4.6 ग्राम वनस्पति प्रोटीन, 0.2 ग्राम वसा, 3.7 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 11 मिली ग्राम कैल्शियम, 189 मिली ग्राम फॉस्फोरस, 1.8 मिली ग्राम आयरन, तथा समस्त विटामिन बी कॉम्प्लेक्स प्राप्त होते हैं.

“एक सामान्य व्यक्ति को दिन भर में 80 से 100 गोलियों के बीच की मात्रा का सेवन करना चाहिए. ‘यीस्ट’ कोई कंसन्ट्रेटेड फार्मूला नहीं है और न ही यह कोई दवाई है. यह तो सिर्फ हल्की मिठास और थोड़ी गंध लिए हुए फ़ंगस पौधों का ऐसा चूर्ण है जो सुविधा के लिए गोलियों की शक़्ल में भी उपलब्ध है, इसकी डोज़ की सलाह पर शंकित नहीं होना चाहिए. टेबलेट खाना इसलिए बेहतर है क्योंकि इससे मात्रा का निर्धारण आसान होता है.” वह कहते हैं.

पुराने समय से ऐलोपैथी में ‘व्याप्त यीस्ट’ के चलन को अब आकर चक्र से ख़ारिज क्यों कर दिया गया? इसका सीधा-सादा जवाब है – विश्वव्यापी फार्मास्युटिकल उद्योग का भारी दबाव. ‘यीस्ट’ दरअसल बेहद सस्ता ‘फ़ूड सप्लीमेंट’ है. एंटीबायोटिक्स और ऐलोपैथी की दूसरी दवाओं की तुलना में इसके दाम न के बराबर हैं. ऐसे में इसकी लोकप्रियता के ग्राफ़ का निरंतर बने रहना ज़ाहिर है कि दवाई बनाने वाले उद्योगों के लिए किसी ख़तरे की घंटी से कम नहीं. यही वजह है कि एक ओर जहाँ इसकी ऐलोपैथी की दुनिया से विदाई कर दी गई, वहीँ इसके उत्पादों पर भी रोकथाम लगा दी गयी. तब भी भारत के अनेक किसान अभी भी इसकी पैदावार करते हैं और देश में कुछेक कंपनियां अभी भी इसका निर्माण करती हैं. बाज़ारों में अच्छे से खोजबीन करके इसे प्राप्त किया जा सकता है.

और मेरी कहानी जहाँ से शुरू हुई थी, उसका उपसंहार जानने में तो आपकी दिलचस्पी होगी ही. वस्तुतः इन पंक्तियों के लिखे जाने तक मुझे रोज़ ‘ब्र्युअर्स यीस्ट’ की 100 टेबलेट्स खाते हुए 20 दिन हो चुके हैं. एक तो वृद्धावावस्था, दूसरे किडनी का रोग, दोनों ही मामलों में शारीरिक ऊतकों के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया बहुत सुस्त हो जाती है. ‘ब्र्यूवर्स यीस्ट’ टेबलेट्स ने आश्चर्यजनक रूप से स्टेम सेल निर्माण की प्रक्रिया तेज़ कर दी. सर्जरी का मेरा गहरा घाव काफ़ी हद तक भर चुका है और उम्मीद है कि अगले कुछ दिनों तक ही मुझे ड्रेसिंग करवानी पड़ेगी. 100 टेबलेट्स से ज़ाहिर है एक नए प्रकार की ऊर्जा तो महसूस होती है. और एंटीबायोटिक्स ने जो-जो नुकसान पहुंचाए हैं, उनके बारे में क्या बताऊँ! उसके ज़हर से शरीर के ‘डिटॉक्सीफ़ाई’ करने की प्रक्रिया तो पूरी तरह चालू है ही.

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