अमरीक की डायरी | सच्चाई से आंख चुराती सरकारें

  • 9:38 pm
  • 4 May 2020

मौजूदा संकट के दौर में बहुत कुछ सिरे से बदल गया है. साहित्य और इतिहास से मिले सबक बताते हैं कि विकट त्रासदियां इसी तरह नागवार क़िस्म का असर समय और समाज पर छोड़ती हैं. बेबसी का मतलब अब बेज़ारी है. हैरत है कि मीडिया से लेकर गलियों की चौपाल तक और यहां तक कि सरकारों की ओर से भी ज़ोर देकर कहा जा रहा है कि कोरोना वायरस के ख़िलाफ बाकायदा जंग लड़ी जा रही है. कोई बता सकता है कि हम ‘युद्ध’ लड़ रहे हैं या एक जानलेवा वायरस से बचाव कर रहे हैं? जंग में दुश्मन सामने होता है लेकिन लोग अभी जिसे जंग साबित करने पर आमादा हैं, उसमें तो दुश्मन अदृश्य है. अवाम इससे ख़ूब वाकिफ़ है लेकिन शायद दुनिया भर में सत्ता और उनकी व्यवस्थाएं कत्तई नहीं! नहीं, तो दुदंभी बजाने की बजाए बचाव के उपायों पर ज़्यादा ज़ोर होता.

कई राज्यों में सरकार ने आज से लॉकडाउन में  राहत जैसा कुछ देने की घोषणाएं की हैं. आलम क्या है? सोमवार को पूरे दिन शराब के ठेके के बाहर लंबी क़तारें लगी रहीं. गोया नशे से ज्यादा और कुछ महत्वपूर्ण न हो. रोज़ी-रोटी और दवाइयों से ज्यादा चिंता शराब के लिए है. सरकारें कह रही हैं कि दारू से हासिल राजस्व अपरिहार्य है. ठेकों के बाहर लगी क़तारों में शुमार लोगों को यकीनन मेडल मिलने चाहिएं कि वे हमें बचाने में बड़ा योगदान कर रहे हैं! हर राज्य ने आज से अपने सरकारी दफ़्तर आंशिक तौर पर खोलने के आदेश दिए हैं और दिल्ली सरकार ने तो पूरी तरह. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का कहना है कि अब वक्त आ गया है, कोरोना वायरस के साथ जीने का. इसलिए लोगों को मजबूरी की छुट्टियां छोड़कर काम पर लौट आना चाहिए. यक्ष प्रश्न है कि लोग काम पर आएं कैसे? परिवहन के लिए क्या इंतज़ाम हैं? केंद्र की ओर से कुछ रेलगाड़ियां आज शुरू हुई हैं, लेकिन लोगों की घर वापसी के लिए. काम के ठिकानों पर जाने के लिए के लिए कहीं कोई बंदोबस्त नहीं है. हर इलाके में लोग काम पर जाने के लिए बड़े पैमाने पर सरकारी परिवहन के आसरे होते हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री से पूछा जाना चाहिए कि क्या वह जानते हैं कि ऐसे कितने सरकारी कर्मचारी हैं, जिनके पास अपने वाहन नहीं हैं और आवाजाही के लिए वे पूरी तरह से सरकारी तंत्र पर निर्भर हैं. मुर्दा शांति के इस दौर में यह सवाल हर सरकार से पूछा जाना चाहिए. लगता ऐसा है कि कोरोना-काल में हुक्मरानों को हक़ीक़त बिसर गई या फिर दिखाई नहीं दे रही है.

रविवार को संगरूर के एक गांव में एक शख़्स सड़क पर मृत पाया गया. पोस्टमार्टम हुआ तो पता चला कि कई दिनों से अन्न का एक दाना उसके पेट में नहीं गया था. डॉक्टरों ने प्राकृतिक मौत लिखा, भूख से नहीं. ऐसे में आप मेरी बात को सुनी-सुनाई या हवाई मानकर बेशक खारिज़ कर सकते हैं.

मगर रविवार को ही जब इस शख़्स का पोस्टमार्टम हो रहा होगा, उसी समय लुधियाना में भूख से आजिज मजदूरों ने रोष-प्रदर्शन किया और पुलिस के साथ उनकी हिंसक मुठभेड़ हुई. दो राउंड की हवाई फायरिंग के बाद लुधियाना की कई थानों की पुलिस ने लाठीचार्ज किया. कहते हैं कि मुंबई के बाद लुधियाना हिंदुस्तान का ऐसा दूसरा शहर है जहां कोई भूखा नहीं सोता. अब हर तीसरा बेरोजगार श्रमिक भिखारियों से भी बदतर हाल में है. भूख की बदहाली सहने को मजबूर. दोपहर एक मजदूर का फ़ोन आया कि राशन या खाने के लिए उसने थाने में अर्जी लिखकर दी तो जवाब मिला कि यूपी और बिहार के लोगों के लिए उनके पास कोई बंदोबस्त नहीं. मैंने जब एक पुलिस कर्मचारी से बात की तो उनका कहना था कि यहां मजदूर दिन-ब-दिन हिंसक हो रहे हैं इसलिए ऐसा जवाब दिया गया. उस इलाक़े के विधायक से बात की तो वहां से भी ऐसा कुछ सुनने को मिला.

अब इसका जवाब किसके पास है कि लगातार भूख किसी इंसान को हिंसक, विद्रोही, विरोधी या पागल नहीं बनाएगी तो और क्या करेगी? कोई बता सकता है कि भूख से ज़्यादा जानलेवा व्याधि कौन सी है? भूख से आजिज लोग सड़कों पर निकलकर अपनी तकलीफ़ ज़ाहिर करने का हक़ भी खो चुके हैं और सरकारों को उनकी कोई परवाह नहीं. हो सकता है कि कल उन्हें हम साहित्य और सिनेमा के क़िरदार के तौर पर देखें-पढ़ें और करुणा से भर जाएं मगर आज तो इंसानियत भी दांव पर है. और समाज के तौर पर हम कब तक इसकी अनदेखी करते रहेंगे?

प्रसंगवश, यह और कि पंजाब से घर लौटने के लिए 6,10,775 लोगों ने आवेदन किया है और इनमें से 90 फ़ीसदी प्रवासी मजदूर हैं. सरकार के हाथ-पैर फूले हुए हैं कि इतनी बड़ी तादाद में लोगों को घर भेजने के लिए क्या इंतज़ाम हो? तमाम बड़े-अफ़सर गुणा-भाग में व्यस्त हैं और जाने वालों को जाने की चिंता है. इंडस्ट्री और खेती वालों के बीच अलग किस्म का मातम है कि प्रवासी मजदूरों के बगैर क्या होगा?  चलिए, आगे की तब देखेंगे, जब सिर पर पड़ेगी…

 

आवरण | अनंत की पेंटिंग

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