पोटैटो ईटर्स | वान गॉग के सरोकार का दस्तावेज़

  • 10:52 am
  • 29 July 2020

विन्सेंट वान गॉग के कला-मर्मज्ञ दोस्त डॉ.गैशे ने थियो को एक चिट्ठी में लिखा था – ‘कला के प्रति प्रेम’ सूक्ति विन्सेंट के मामले में सटीक नहीं बैठती, उसे ‘आस्था’ जैसा कोई नाम देना चाहिए, ऐसी आस्था जो शहादत की प्रेरणा देती है.

कुल 37 साल की बेहद उथल-पुथल भरी ज़िंदगी में रोज़गार की जद्दोजहद, अवसाद और एकाकीपन से भरी ज़िंदगी में विन्सेंट ने दो हज़ार से ज्यादा चित्र बनाए – क़रीब नौ सौ पेंटिग्ज़ और बाक़ी के रेखाचित्र. 27 साल की उम्र में चित्रकार बनने का इरादा करने पर उस चित्रकार ने आगे की दस साल की ज़िंदगी में इतना सृजन किया. इससे ज़्यादा हैरत और दुर्भाग्य की बात और क्या होगी कि जीते-जी जिन चित्रों को सराहने वाले बहुत कम लोग मिले, उन चित्रों का आज पूरी दुनिया पहचानती है और सराहती भी.

विन्सेंट की ज़िंदगी की उलझनों और दुश्वारियों, कलाकार के तौर पर उनके इरादों और सरोकार, कला के सिद्धांतों के बारे में उनका नज़रिया, अपने समय और समाज और ख़ासतौर पर ग़रीबों, मेहनतकशों और प्रकृति के बारे में उनके विचार जानने-समझने के लिए उनके 903 ख़त हमारे पास हैं. इनमें से 820 ख़त तो विन्सेंट के लिखे हुए ही हैं, जिनमें सबसे ज़्यादा 650 ख़त उन्होंने अपने भाई थियो को लिखे हैं. बाक़ी के ख़त उनकी बहन विलेमिना, चित्रकार दोस्तों गॉगां, वैन रैपार्ड, एमिल बर्नार्ड और रिश्तेदारों के नाम हैं या फिर वे ख़त हैं जो औरों ने विन्सेंट को लिखे हैं.

विन्सेंट के तमाम मशहूर चित्रों में से एक है – आलू खाने वाले लोग यानी ‘पोटैटो ईटर्स’. ग्राम्य जीवन और मेहनतकश किसानों की ज़िन्दगी के यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए ही विन्सेंट ने इस चित्र में खुरदुरे चेहरे और हड़ीले हाथ बनाए, धूसर रंग बिखेरे. वह चाहते थे कि चित्र देखने वाले महसूस कर सकें कि तश्तरी से आलू निकालते इन्हीं हाथों से उन्होंने धरती का सीना चीरा है. मेहनत और ईमानदारी से अपना भोजन जुटाया है. 1885 के अप्रैल-मई में बनाए गए उनके इस चित्र की उन दिनों गहरे स्याह रंगों के इस्तेमाल और शरीर-रचना में तमाम नुक़्स बताते हुए ख़ासी आलोचना हुई थी. सवा सौ साल से ज्यादा पुराने इस चित्र का शुमार हालांकि अब विन्सेंट के महत्वपूर्ण चित्रों में होता है.

धुएं से काली दीवारों वाले कमरे में छत से टंगे लैंप की रोशनी में एक मेज के गिर्द बैठे पांच लोगों में से चार के चेहरे सामने दिखाई देते हैं. धूसर रंगों वाले इस चित्र में इतने सीमित रंगों का इस्तेमाल हुआ है कि एकबारगी यह मोनोक्रोमेटिक लग सकता है. चेहरों पर ग़ौर करते हुए थियो को लिखे विन्सेंट के उस ब्योरे की बरबस याद हो आती है, जिसमें उन्होंने लिखा था, ‘उन खेतिहरों के चेहरों पर पहले किए हुए रंग को बदल दिया है. मैं चाहता हूं कि उनके चेहरों पर वही रंगत दिखाई दे, जो ज़मीन से खोदकर निकाले हुए मिट्टी में सने आलू की होती है. ये रंग लगाते हुए मुझे याद आता रहा कि मिले (ज्यां फ्रांसुआ मिले) के खेतिहरों के बारे में कहते हैं कि वे उसी मिट्टी में रंगे गए हैं, जिसमें वे काम करते हैं. और खेतिहरों को काम करते हुए देखकर यह बात मुझे अक्सर याद आ जाती है.’

एम्सटर्डम के वान गॉग म्यूज़ियम में रखी इस पेंटिग के बारे में समझा जाता है कि विन्सेंट के इस चित्र की प्रेरणा बेल्जियन चित्रकार डी ग्रू का चित्र ‘द ब्लेसिंग बिफ़ोर सपर’ है, जिनके वह प्रशंसक भी थे. ‘पोटैटो ईटर्स’ को पेंट करने से पहले विन्सेंट ने इस संयोजन का एक लिथोग्राफ भी बनाया था. इस चित्र को लेकर उनकी कल्पना और तैयारी बारे में थियो को लिखा उनका ख़त पढ़ सकते हैं,

“मैं ‘पोटैटो ईटर्स’ पर काम कर रहा हूं और तुमको यही बताना चाहता हूं. मैंने इस बीच सिर के कुछ नए चित्र खींचे हैं और हाथ तो एकदम बदल गए हैं. कोशिश है कि किसी तरह उनमें जान डाल सकूं. मालूम नहीं कि पोर्टिये इसके बारे में क्या कहेगा. लैरमिट का काम तो ग़ज़ब का है. ‘पोटैटो ईटर्स’ तो मैं तब तक नहीं भेजूंगा जब तक मुझे पूरा इत्मीनान न हो जाए. उसमें तुम्हें ऐसा कुछ मिलेगा जो मेरे काम में अब तक नहीं मिला होगा, इतनी मुखरता से तो हरगिज़ नहीं. मेरा आशय जीवन से है. मैं इस पर स्मृति से काम करता हूं मगर तुम जानते हो कि इन सिरों पर मैं पहले कई बार काम कर चुका हूं. कुछ ब्योरे और सुधारने के इरादे से मैं हर रात वहां एक चक्कर लगा आता हूं.

तुम्हारी ओर से कोई जवाब मिलने पर ही यह चित्र मैं तुम्हें भेजूंगा. हालांकि यह अभी पूरा भी कहां हुआ है. हां, सबसे मुश्किल चीज़ें – सिर, हाथ और उस ग्रुप के चरित्रों की कम्पोज़िशन – का काम हो गया है. शायद इसमें तुम्हें वह दिखाई दे, जिसके बारे में तुमने कभी कहा था – कुछ नितांत निजी मगर ऐसा भी कि जिसमें दूसरे चित्रकारों की अनुगूंज हो, एक पारिवारिक पहचान जैसी.”

‘पोटैटो ईटर्स’ के धूसर रंगों से लेकर ‘द स्टारी नाइट’ या ‘बेडरूम इन आर्ल’ के सुनहरे पीले, नीले, लाल और हरे रंगों तक की विन्सेंट की यात्रा एक कलाकार के उत्तरोत्तर विकास के साथ ही ख़ुद को साबित करने और कलात्मकता के लिहाज़ से कुछ नया कर गुज़रने के संकल्प का दस्तावेज़ भी है. किसी दृश्य में वास्तविक रंगों की जगह दूसरे रंगों का इस्तेमाल उन दिनों प्रचलन में नहीं था मगर विन्सेंट ने ऐसे प्रयोग का जोख़िम उठाया और इस तरह से चित्रकला में नई लीक बना डाली.

उन्होंने लिखा है, ‘जो दिखाई दे रहा है, उसे ठीक वैसे ही चित्रित करने के बजाय आवेग और संवेदनाओं को मज़बूती से अभिव्यक्त करने के लिए मैं मनमाने ढंग से रंगों का इस्तेमाल करता हूं.’ सूरजमुखी श्रृंखला के चित्रों में ही पीले रंग के कितने ही शेड्स मिलते हैं, ‘द स्टारी नाइट’ के चांद को भी याद कर सकते हैं या फिर ‘द सोअर’, ‘द यलो हाउस’ या ‘कैफ़े टेरेस एट नाइट’.

विन्सेंट वान गॉग की तस्वीरों को पहले पहल सराहने वाले कला समीक्षक जी.एल्बेयर ऑरियर मानते थे, ‘उसकी तरह के इंसान पूरी तरह नहीं मरते, क़ायनात रहने तक उसकी कृतियां उसका नाम बचाए रखेंगी.’ और उनकी यह बात कितनी सही थी – विन्सेंट की मृत्यु की एक सदी बीत जाने के बाद भी उनके चित्रों में नए अर्थ खोज निकालने का उत्साह अब भी बरक़रार है.

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