नौकरी के लिए डिग्री के हैंगओवर से निजात अब ज़रूरी

  • 4:55 pm
  • 12 August 2020

एक मित्र ने पूछा – “नई शिक्षा नीति के बारे में आप क्या सोचते हैं..?”

मैं एक उद्यमी हूं. स्कूल-कॉलेजों की फ़ैक्ट्री में छात्र नाम के रॉ-मटेरियल को तमाम विधियों से जिस फिनिश्ड प्रॉडक्ट में बदला जाता है, वह हम लोग अपने दफ़्तर और कारख़ानों में खपाते हैं. इस तरह हम इस शिक्षा पद्धति के उपभोक्ता हैं. दुनिया भर के निर्माता, प्रॉडक्ट बनाने से पहले उपभोक्ता से पूछते हैं, उसे क्या चाहिए? मज़े की बात है कि स्कूल-कॉलेजों ने हम लोगों से कभी यह सवाल नहीं पूछा! इसलिए मित्र का सवाल मुझे अच्छा लगा कि मैं बतौर उपभोक्ता शिक्षा पद्धति से क्या चाहता हूं?

सिकंदर महान एक बार महान ऋषि डायोजिनिस से मिलने गया. सिकंदर ने ऋषि से पूछा – “मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं?” ऋषि ने कहा – “सामने से हट जाइए, थोड़ी धूप छोड़ दीजिए…!”

मैं भी शिक्षा पद्धति से यही कहना चाहता हूं – हट जाइये , छोड़ दीजिए! बख़्श दीजिए हमारे बच्चों को!

मुझ जैसे आन्ट्रप्रे’नर के पास जो बच्चे नौकरी मांगने आते हैं, उनके साथ पहली समस्या तो यह होती है कि उन्हें इन स्कूल-कॉलेजों ने ऐसा कुछ नहीं सिखाया होता जो हमारे काम का हो. मगर उससे भी बड़ी समस्या यह है कि वह हमें ये बच्चे बाइस से पच्चीस बरस की उम्र में सौंपते हैं. दुर्भाग्य से यह उम्र परिवार शुरू करने की भी उम्र है. उन्हें जल्द ही कुछ करना होता है, ताकि वे पैसा कमा सकें, अपने परिवार का ख़र्च उठा सकें, इसलिए हमें उनके साथ सीखने-सिखाने का भी समय नहीं मिलता. मुझे समाज से शिकायत है कि स्कूल जैसी स्वार्थी और मूर्खतापूर्ण संस्था को वह अपने बच्चे बीस-बाइस बरस के लिए सौंपते हैं और हम जैसे आन्ट्रप्रे’नर, जो ज़िंदगी के ज़रूरी सबक सिखाने के लिए फ़ीस लेते नहीं, उल्टे तनख़्वाह देते हैं, को प्रयोग के लिए दो-चार साल का समय भी नहीं मिलता.

मेरे पास कई लड़के ऐसे आते हैं, जिन्हें कुछ नहीं आता, लेकिन अगर साल-दो साल का समय मिल जाए तो मैं उन्हें काम के लायक़ बना सकता हूं. मगर वे उस उम्र में आते हैं, जब उन्हें कम से कम 25 हज़ार रुपये तनख़्वाह चाहिए होती है. इसलिए हम जैसे लोग उन्हें नौकरी पर नहीं रखते.

अगर ये लोग हमें क़रीब पन्द्रह साल की उम्र में मिल जाएं, जब हमारे ऊपर उन्हें तनख़्वाह देने और उन पर तुरन्त कुछ कर दिखाने का दबाव न हो, तो हम उन्हें सचमुच समाज और देश के लिए उपयोगी बना सकते हैं.

इसलिए, मैं शिक्षा पद्धति से यह चाहता हूं कि वह धूप छोड़ दे! हवा आने दे! इन बच्चों को अपने मूर्खतापूर्ण प्रयोगों से जल्दी आज़ाद कर दे! हो सके तो इन बच्चों को चौदह-पन्द्रह साल की उम्र में हमे सौंप दे, ताकि वे असल ज़िंदगी के असल सबक सीख सकें. हम और बच्चे यह तय कर सकें कि उन्हें आख़िर करना क्या है? मौजूदा शिक्षा एक ऐसा सफ़र है जिस पर चलते हुए किसी को नहीं पता होता कि आख़िर उसकी मंज़िल क्या है? अब ऐसे में आप कितने भी साधन बदल ले क्या फायदा?

हमें समझना होगा कि काम ही असली शिक्षक है. शिक्षा के मौजूदा मॉडल में हम जब पढ़ते हैं, तब काम नहीं करते, जब एक बार काम करना शुरू करते हैं तो फिर कभी स्कूल नहीं जाते. इसलिए जब पढ़ रहे होते हैं तो हमें नहीं पता होता कि क्यों पढ़ रहे हैं और जब काम करते हैं, तब ज़रूरी ज्ञान कहां से मिले उसकी कोई व्यवस्था नहीं है.

मेरी फ़ैक्ट्री में कई मजदूर ऐसे हैं, जिनमें मुझे सुपरवाइज़र और इंजीनियर बनने की क्षमता दिखती है, काश कि ऐसे ‘कैप्सूल कोर्स’ भी होते, कि वे काम करते हुए सीख सकते. कॉलेजों को चाहिए कि वे छोटे-छोटे ‘कैप्सूल कोर्स’ डिज़ाइन करें, जिन्हें लोग तब करें जब काम करते हुए उनको किसी ख़ास हुनर या ज्ञान की ज़रूरत महसूस हो. तब वे काम से ब्रेक लेकर कॉलेज जाएं, ख़ुद को अपडेट करें और फिर काम पर लौटें. यह सिलसिला लगातार जीवन भर चलता रहे.

शिक्षा पद्धति की बात आते ही हम लॉर्ड मेकाले को गाली देने लगते हैं. उस पर इल्जाम यह है कि उसने ऐसी शिक्षा पद्धति बनाई, जो क्लर्क पैदा करती है. मेरे विचार में यह सरासर गलत है. क्लर्क बनने के लिए तो सिर्फ़ जोड़-घटाना, गुणा-भाग और प्रतिशत ही चाहिए होता है, जो कुछ ही घंटों की पढ़ाई में किसी को सिखाया जा सकता है. दरअसल हमारी शिक्षा पद्धति एक बड़े पिरामिड की तरह है, जहां शीर्ष पर वैज्ञानिक और रिसर्चर हैं. सारी तैयारी शिखर पर पहुंचने के बाद लगने वाले साज़ोसामान की है. समस्या यह है कि इतने वैज्ञानिकों और रिसर्च स्कॉलर की न तो आवश्यकता है और न ही हर एक इंसान इतना प्रतिभाशाली होता है, इसलिए 99.99% लोग उच्च शिखर तक नहीं जाते. वे रास्ते में ही इस गाड़ी से उतर जाते हैं. और वह तमाम साज़ोसामान जो आख़िरी सफ़र के लिए जमा किया था वह न सिर्फ बेकार होता है, बल्कि एक ऐसा बैगेज बन जाता है जो कोई दूसरा काम करने में बाधा बनता है.

पिछले दिनों फ़िल्म ‘शकुंतला’ देखते हुए मुझे स्कूल में रटे गणित के समीकरण याद आए, संख्याओं के घनमूल निकालना याद आया. मैं सोच रहा था यह सब आख़िर जीवन में कहां काम आया? मैंने अपने आसपास के लोगों के बारे में सोचा, मुझे कोई व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जिसे स्कूल-कॉलेजों में पढ़े हुए डिफरेंशियल कैलकुलस, मेंडविल्स टेबल या प्रकाश के व्यतिकरण का सिद्धांत काम में आ रहा हो. पता नहीं, यह अगड़म-बगड़म किसके काम आ रहा है, और किसके लिए पढ़ाया गया?

प्राइवेट स्कूलों के आने से यह मामला और उलझ गया है. शहर के छोटे से छोटे स्कूल में बच्चे को पढ़ाने का मतलब है तीन हज़ार रुपए प्रति बच्चे का खर्च, यानी दो बच्चों पर छः हज़ार! एक आम शहरी की आधी तनख़्वाह स्कूल छीन लेता है. किसी बड़े स्कूल के फ़ीस काउंटर पर थोड़ी देर खड़े रहिए. फ़ीस न भरने पर मां-बाप लगातार बेइज़्ज़त होते हैं. मोटी फ़ीस के अलावा ये मां-बाप अपने बच्चों की ज़िंदगी के बेशकीमती पन्द्रह-बीस साल इन स्कूल-कॉलेजों को देते हैं, ताकि इनके बच्चों को एक बेहतर ज़िंदगी मिले. यह एक अलिखित सौदा है. मैं हैरान हूं कि कोई विद्यार्थी या उसके मां-बाप इन स्कूलों पर वादा-ख़िलाफी का मुकदमा क्यों नहीं करते? यह कम तौलने या ख़राब सामान देने जैसा है, जिसके लिए उपभोक्ता अदालत में केस दर्ज होना चाहिए.

समाज इस अंधविश्वास का शिकार है कि जीवन बेहतर बनाने का एकमात्र तरीका स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई है. दरअसल आज़ादी के बाद देश को चलाने के लिए बहुत से सरकारी नौकर चाहिए थे. इसलिए पढ़ाई का मतलब होता था, पक्की नौकरी पा जाना. अब आवश्यकता से कई हज़ार गुना पढ़े-लिखे लोग हो गए हैं और पढ़ाई-लिखाई की वजह से नौकरी मिलने की संभावना बहुत कम हो गई है मगर समाज अभी तक इस ‘हैंगओवर’ से मुक्त नहीं हो पा रहा है. कोई सवाल नहीं पूछ रहा कि जब डिग्री का नौकरी से संबंध नहीं है तो हम स्कूल क्यों जाते हैं? ज्ञान तो यूट्यूब के चैनल पर सारा मुफ़्त मिल रहा है.

नई शिक्षा नीति में मुझे एक समस्या और लगी. टेक्नोलॉजी की आंधी जिस तरह शिक्षा समेत हर चीज़ को बदल रही है, उससे हमारे नीति नियंता बेख़बर हैं. स्कूलों का मौजूदा मॉडल औद्योगिक क्रांति के बाद चलन में आया था. तकनीक ने इस तरह के स्कूलों की ज़रूरत पैदा की थी और अब तकनीक ही उन्हें ख़त्म कर रही है. अब इंटरनेट तकनीक घर बैठे बेहतरीन ज्ञान की व्यवस्था कर रही है. जब यूट्यूब पर दुनिया का बेहतरीन टीचर मुफ़्त में ज्ञान दे रहा हो तब अपने मोहल्ले के स्कूल के अधपढ़े टीचर से पढ़ने स्कूल जाने में क्या तुक है?

शिक्षा के साथ एक और समस्या टेक्नोलॉजी की वजह से आने वाली है. टेक्नोलॉजी पुराने जॉब्स को ख़त्म कर रही है. युवाल नोआह हरारी कहते हैं, आज जो हुनर और ज्ञान समाज के लिए आवश्यक है, वह जल्दी ही पुराना और अनुपयोगी हो जाएगा. लोगों को जल्दी-जल्दी नए हुनर सीखने होंगे. ड्राइवरलेस कार आने के बाद जिस ड्राइवर को ज़िंदा बचे रहने के लिए कोई नया हुनर सीखना होगा उसके लिए हमारी शिक्षा पद्धति में क्या तैयारी है? किसी फ़ैक्ट्री की शॉप फ़्लोर पर जब मजदूरों की जगह में रोबोट काम करेंगे तो सुपरवाइज़र को कोई नया काम खोजना होगा. उस सुपरवाइज़र को नया हुनर सिखाने के बारे में अब स्कूल-कॉलेजों को विचार करना चाहिए.

मौजूदा शिक्षा के मॉडल के दो आधार हैं – याददाश्त और लिपि!

बेहतर ग्रेड देने का हमारा पैमाना यह है कि छात्र चीज़ों को कितना याद कर सकता है और अगले दिन परीक्षा हाल में उत्तर पुस्तिका पर उसकी उल्टी कर सकता है. यह काबिलियत अब बेमानी हो चुकी है. इंटरनेट के ज़माने में आपको कोई भी जानकारी याद करने की ज़रूरत नहीं है. हर जानकारी गूगल पर तुरंत और कहीं अधिक विस्तार से उपलब्ध है. यह वैसा ही है, जैसे एक समय उंगलियों पर जोड़-घटाव कर लेना बहुत बड़ी काबिलियत माना जाता था. केलकुलेटर ने उस ज़रूरत को ख़त्म कर दिया. अब बड़ी संख्याओं का जोड़-घटाव उंगलियों पर करने वाले लोग किसी बाज़ीगर की तरह हमें थोड़ी देर के लिए चमत्कृत तो कर सकते हैं पर किसी ख़ास व्यवसाय में हम उनकी कोई उपयोगिता नहीं मानते.

पढ़े-लिखे होने का दूसरा सबसे बड़ा पैमाना हमने लिपि को बना कर रखा था. गांव में लड़की का रिश्ता करते वक़्त पूछा और बताया जाता था कि लड़की पढ़ी-लिखी है, चिट्ठी-पत्री कर लेगी? मोबाइल के ज़माने में चिट्ठियां लिखने की आवश्यकता ख़त्म हो चुकी है. अब चिट्ठी लिखने के लिए स्कूल जाने की आवश्यकता नहीं रही.

लिपि का आविष्कार मानव ने उन दो व्यक्तियों के बीच संवाद के लिए किया था, जो एक दूसरे से भौतिक रूप या समय-काल में दूर हैं. मगर अब ऑडियो-विज़ुअल के ज़माने में लिपि की उपयोगिता ख़त्म होती जा रही है. मशीनें तक अब वॉयस कमांड से चल रही हैं. इसलिए समाज के एक बहुत बड़े तबके को अब लिपि की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी. इसलिए साक्षर शब्द की परिभाषा अब बदलनी चाहिए.

इंसान इस धरती पर लाखों बरसों से है. स्कूल बमुश्किल डेढ़ सौ सालों से! इस दौरान स्कूलों ने इंसान की कुछ सेवा की है परंतु बदले में बहुत सी बुराइयां पैदा कर दी है. स्कूल नाम की यह संस्था बुनियादी तौर पर अमानवीय है. किसी भी स्कूल के बमुश्किल दस फ़ीसदी बच्चे उस स्कूल में दी जा रही सुविधाओं का लाभ ले पाते हैं. बाकी 90 प्रतिशत बच्चे लगातार डरे-सहमे रहते हैं. परीक्षा और ग्रेडिंग सिस्टम जैसे औजारों से उन्हें लगातार अपमानित किया जाता है. ताकि वे कोई सवाल न करें.

इंसान की तरह ही संस्थाएं भी पैदा होती हैं और मरती हैं. किसी संस्था से बेवजह चिपके रहना बंदरिया के मरे बच्चे की तरह है. स्कूल नाम के इस मूर्खतापूर्ण प्रयोग से हम जितनी जल्दी पिंड छुड़ा लें उतना अच्छा.

अब शिक्षकों की बात. बहुत जल्द, तकनीक इन तमाम स्कूल-कॉलेजों को बंद कर इन शिक्षकों को बेरोज़गार कर देगी, पर एक काम है जो शिक्षक कर सकते हैं. आने वाले समय के बच्चों के पास ज्ञान की उपलब्धता तो बहुत आसान होगी पर भावनात्मक सुरक्षा और सहारा, तकनीक नहीं दे सकती. वह तो इंसान ही इंसानों को दे सकते हैं. टूटते परिवारों और घटती सामाजिकता में एक शिक्षक अपने छात्र को भावनात्मक रूप से संभाल सके तो यह एक बड़ी सेवा होगी. लेकिन आज के शिक्षकों ने कभी यह सीखा ही नहीं. यह काम उसका ठीक उल्टा है जो वे अभी तक करते आए हैं. आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के युग में अब उनके पास इमोशनल इंटेलिजेंस की ट्रेनिंग का विकल्प है. वे चाहें तो अब भी ख़ुद को बेकार होने से बचा सकते हैं.

(सिविल इंजीनियर के तौर पर प्रशिक्षित संजय वर्मा उद्यमी और घुमक्कड़ हैं. सामाजिक विषयों पर ख़ूब लिखते हैं और उतने ही अधिकार से लिखते हैं जितना कि विज्ञान के विषयों पर. उनकी यह टिप्पणी फ़ेसबुक पेज से साभार.)

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