सफ़रनामा | यूरोप की अमरावतीः रोमा

अप्रैल के उत्तरार्द्ध की एक रात का पिछला पहर. खुला आकाश. वास्तव में खुला आकाश, क्योंकि आकाश के जिस अंश में धूल या धुन्ध होती है वह तो हमारे नीचे है. और धूल उसमें है भी नहीं, हलकी-सी वसन्ती धुन्ध ही है, बहुत बारीक धुनी हुई रुई की-सी:
यह ऊपर आकाश नहीं, है
रूपहीन आलोक-मात्र. हम अचल-पंख
तिरते जाते हैं
भार-मुक्त.
नीचे यह ताजी धुनी रुई की उजली
बादल-सेज बिछी है
स्वप्न-मसृण:
या यहाँ हमीं अपना सपना हैं ?

हम नीचे उतर रहे हैं. धीरे-धीरे आकाश कुछ कम खुला हो आता है और फिर नीचे बहुत धुँधली रोशनी दीखने लगती है. विमान के भीतर, चालक के कैबिन को यात्रियों के कमरे से अलग करनेवाले द्वार के ऊपर बत्ती जल उठती है. ‘पेटियाँ लगा लीजिए’-‘सिगरेट बुझा दीजिए.’ एक गूँज-सी होती है, फिर स्वर आता है; ‘‘थोड़ी देर में हम लोग रोम के चाम्पीनो हवाई अड्डे पर उतरेंगे.’’

भारत से रोम (इटालीय रोमा का अँगरेजी रूप) तक 22 घण्टे लगे. देश से ब्राह्मवेला में चलना हुआ था और रोम में तो अभी रात ही थी. असबाब की पड़ताल में अधिक समय नहीं लगा, और रोम उतरने वाले यात्री सवारी गाड़ी में बैठ गये. हवाई यात्रा का सबसे अधिक समय लेने वाला अंश वह होता है जब भूमि पर होते हैं, शहर से हवाई अड्डे तक या अड्डे से शहर तक आते-जाते और विमान की प्रतीक्षा में. पर रात के सन्नाटे में हमारी बस बहुत तेजी से सड़क की लम्बाई नापती चलती है और शीघ्र ही हम रोम शहर में प्रवेश करते हैं. मैं जानता हूँ कि दिन के प्रकाश में रोम बिलकुल दूसरा दीखने लगेगा पर इस समय भी जो दीख रहा वह अपूर्व और आकर्षक है. अंगूर की कटी-छटी बेलें-इतनी नीची कटी हुई कि पौधे मालूम हों. लिलाक की झाड़ियाँ जिनके बकायन-जैसे फूलों के गुच्छों का रंग रात में नहीं पहचाना जाता. पर मधुर गन्ध वायुमण्डल को भर रही है. तरह-तरह के खँड़हर जिनमें कुछ चित्रों द्वारा परिचित हैं कुछ अपरिचित. स्वच्छ सुन्दर सड़कें, जहाँ-तहाँ प्रतिमा-मण्डित फव्वारे-ये फव्वारे न केवल इटली की मूर्तिशिल्प और वास्तु-प्रतिभा के उत्कृष्ट नमूने हैं वरन् पौराणिक आख्यानों से इतने गुँथे हुए हैं कि पूरी क्लासिकल परम्परा उनकी फुहार के साथ मानो झरती रहती है. नगर के मध्य में फोन्तांना दि त्रेवी मानो कल्पस्रोत्र हैं-वहाँ पर यात्री जल में सिक्का फेंककर मन्नत करते हैं कि उनका फिर रोम आना हो. सुना है कि त्रेवी की शक्ति दिल्ली के ‘हंडिया पीर’ से कुछ कम नहीं है; किन्तु इटली फिर आना चाहकर भी मैंने उसका सहयोग नहीं माँगा! यों उत्सुक अथवा चिन्तित प्रेमी-युगलों की भीड़ त्रेवी पर लगी ही रहती है; और विदेशी यात्रियों को स्थायी स्मृति-सुख देने के लिए गिद्धों की-सी तीव्र दृष्टिवाले फोटोग्राफरों की पंक्तियाँ भी दिन-रात कैमरे और रोशनी का सामान लिये फव्वारे के आस-पास मँडराती रहती हैं.

किन्तु मैं अपनी बस से भी अधिक तेज गति से चलने लगा! …मुड़ती, बल खाती हुई सड़कें और चक्करदार ऊँची-नीची गलियाँ जिनमें विभिन्न कालों के विभिन्न स्थापत्य-शैलियों के तरह-तरह के मकान, अपने-अपने ढंग से सुन्दर और शैलियों का यह मिश्रण और घरों की बेतरतीबी अपना एक अलग सौन्दर्य लिये हुए है! और जहाँ-तहाँ अप्रत्याशित स्थलों पर-जैसे सड़कों के बीचों बीच, या चौराहे पर, गलियों के मोड़ पर, सिपाहियों के खड़े होने के चबूतरे के आस-पास, सन्तरी के ठिये के चारों ओर-फूलों की क्यारियाँ.

अनन्तर रोम के, इटली के, यूरोप की गलियों के बारे में और भी बहुत कुछ जानूँगा; पर यह तो पहली ही द्वष्टि में दीखता है कि यूरोप के पुराने शहरों की ये बल खाती गलियाँ एक अद्वितीय सौन्दर्य लिये हुए हैं. बड़ी सड़कों को देखकर चले जाना मानो एक लिफाफे को देखकर बिना उसके भीतर के निजी पत्र की बात पढ़े ही चल देना है! रोम के पहले उस चार दिन के प्रवास के बाद मैंने इटली के विभिन्न शहरों की गलियों में – विशेषकर फ़िरेंज़ें (अर्थात् फ्लोरेंस), पेरूजिया, असोसी आदि मध्य इटली के प्राचीन शहरों की गलियों में पैदल भटक-भटक कितने घण्टे बिताये हैं और कितने मील नापे हैं, इसका हिसाब नहीं है. और इसी प्रकार पैरिस की गलियों में, और जेनीवा, बीएना, बाँन, एम्स्टर्डाम, डैल्फ़्ट, स्टाकहोम आदि पुराने और कम पुराने शहरों के पुराने भागों की गलियों में! और सर्वत्र इस बात से प्रसन्न हो सका हूँ कि, यद्यपि बड़ी सड़कों से हटकर गलियों में जाने का अर्थ सर्वदा यही हुआ कि किसी शहर के बारे में दावे से कुछ कह सकना कठिनतर हो गया, गलियों में जाने पर शहरों के निवासी सहसा एक गति-युत, कर्म-रत, परम्परा-सम्पन्न जीवन्त मानव-समाज के रूप में मेरे निकट आ गये हैं, पहचाने गये हैं. कोई पूछ सकता है कि यदि ऐसा है तो क्यों उनके बारे में कुछ कहना कठिनतर हो गया है ? तो उसका उत्तर यही है कि इसीलिए. इसलिए कि लोग सहसा एक इतर समाज से निकट आकर घर के-से लोग हो गये हैं. घर के लोगों के बारे में यह कह देना तो आसान होता है कि ‘अच्छे लगते है’ या कि ‘हमें नहीं अच्छे लगते हैं,’ पर उनका वर्णन करना उतना आसान नहीं रह जाता.
भीड़ों में
जब-जब जिस-जिससे आँखें मिलती हैं
वह सहसा दिख जाता है
मानव:
अंगारे-सा, भगवान्-सा
अकेला.

और इस प्रकार आँखें मिलने के बाद उसके बारे में कुछ कहना कठिनतर हो जाता है- इसलिए और भी अधिक कि उसकी आँखों में प्रच्छन्न या प्रकट रूप से अपनी प्रतिच्छवि झाँकती जान पड़ती है…
खड़ा मिलेगा
वहाँ सामने तुमको
अनपेक्षित प्रतिरूप तुम्हारा
नर, जिसकी अनझिप आँखों में नारायण ही व्यथा भरी है !

यों तो ऐसे एक अकेले व्यक्ति के चित्रण से भी एक पूरे देश का, सभ्यता का, युग का चित्र खींचा जा सकता है. यूरोप के एकाधिक देश में मुझे ऐसे व्यक्तियों को देखने या उनसे मिलने का सहयोग हुआ जिनके माध्यम से कुछ क्षणों में ही मुझे एक पूरे एक समाज की – या कम-से-कम विशेष युग-स्थिति के समाज की, जीवन-परिपाटी बिजली की-सी कौंध के साथ दीख गयी – मुझे ऐसा लगा कि मैंने सहसा पूरे देश – बल्कि समूचे यूरोप की आत्मा की एक झाँकी पा ली है. जैसा कि ब्राउनिंग ने कहा है:
देअर आर फ्लैशेज़ स्ट्रक फ्रॉम मिडनाइटस्…
(मध्यरात्रि में कभी ऐसी कौंध होती है…)
और मैं समूचे यूरोप का चित्र खींचना चाहता तो यह भी कर सकता, और कदाचित् वह अधिक प्रभावशाली ही होता – कि ऐसे चार-छह विशिष्ट व्यक्तियों का चरित्र उपस्थित कर देता. किन्तु उपन्यासकार की दृष्टि पर्यटक की दृष्टि नहीं है. वह विदेशी आत्मा को देखने की ओर बढ़ेगी जब कि मुझे अपनी देशी दृष्टि के सम्मुख विदेशी भूमि को भी रखना है. हाँ, मिट्टी की प्रतिमा बन जाने के बाद उसमें आत्मा की झलक जाए तो वह मेरा अहोभाग्य! अनन्तर यह भी जाना कि रोम यूरोप का सबसे स्वच्छ शहर नहीं है. बल्कि स्काटहोम और कोपेनहागेन से लौटने पर इटली के बड़े शहर (और लन्दन और पैरिस भी) वैसे गन्दे जान पड़ते हैं. जैसे इटली से लौटकर भारत के शहर! और यह भी जाना कि पहली दृष्टि में रोम की जो विशेषताएँ लगीं उनमें से बहुत-सी समूचे दक्षिणी-पश्चिमी यूरोप में पायी जाएँगी और कुछ तो सारे यूरोप में.

(कभी-कभी यह भी हुआ कि विदेशी शहरों में जो बात विशेष जान पड़ी थी भारत लौटकर पाया कि वह यहाँ भी पहुँच गयी है. उदाहरण के लिए फ्रांकफुर्त में रंग-बिरंगी बत्तियों द्वारा विज्ञापन; लौटकर देखा कि दिल्ली में भी उनका प्रवेश हो गया है. या कि लन्दन और पैरिस की दुकानों अथवा विज्ञापनों में स्त्रियों के अण्डरवियर का अतिरिक्त प्रदर्शन – अपने यहाँ शादियों में लाउडस्पीकर से गोलियों की बाढ़ की तरह बरसने वाले घटिया फिल्मी गानों के समान गला फाड़-फाड़कर अपनी ओर ध्यान खींचने वाले भोंडे विज्ञापन – किन्तु भारत लौटकर देखता हूँ कि दिल्ली और कलकत्ता के केन्द्रीय बाजारों के गलियारे भी इन्हीं से पट गये हैं – दीवारों पर उभार-उभारकर टाँगी हुई चोलियाँ और जमीन पर बिखरी हुई उतनी ही भद्दी रंग-बिरंगी पत्रिकाएँ. मशीन सब कुछ उघाड़ती चलती है, मशीन के आत्मा नहीं है. लेकिन मशीन का दास होकर मनुष्य भी निरन्तर अपने को उघाड़ता जा रहा है – आत्मा उसके पास नहीं है यह मानना तो कठिन है लेकिन वह अनाहत है, यह कहना तो सरासर झूठ होगा !)

सड़क के बीच में फूल इटली में मिल सकते हैं और स्वीडन में भी, इंग्लैण्ड में भी और जर्मनी में भी. हाँ, इटली के मध्ययुगीन नियमित अलंकृत उद्यानों का सौष्ठव एक ढंग का है, फ्रांस की सजीली वीथियों का दूसरे ढंग का; इंग्लैण्ड के विशाल तरुराजियों से छाये हुए खुले हरियाले पार्कों का और एक ढंग का, और जर्मनी के वनोद्यानों का एक और ढंग का. सहज, अकुण्ठित और अनाहत भाव से बड़े हुए पेड़ों की शोभा क्या होती है, यह इंग्लैण्ड में ही देखने को मिला. यहाँ भारत के पेड़ पौधों को पूज तो लेते हैं, लेकिन सहज भाव से पनपने नहीं देते; जिनको गाय-बकरी के खाने के लिए, दतुवन के लिए नोच नहीं लेते उन्हें वैसे ही ऐसी तंग जगह में बाँधकर रखते हैं कि उनका सहज विकास नहीं होता. चमत्कार के लिए हम यह भी सिद्ध करना चाहते हों कि किसी जाति के स्वभाव और उसके बनाये हुए बगीचों में समानता होती है, तो उसके लिए मनचाही युक्तियाँ हमें यूरोप में उतनी ही आसानी से मिल सकती हैं जितनी पश्चिमोत्तर भारत के मुगल उद्यानों से, या बनारस की फुलवाड़ियों से.

पर उसे छोड़ दें तो इतना अवश्य कहा जा सकता है कि शैली के उद्यान अपने-अपने प्रदेश, परिवेश और जलवायु में ही अधिक सुन्दर लगते हैं. इटली के तरतीबदार सरू और मोरपंखी के पेड़ और पलस्तर की मूर्तियाँ वहाँ के नीले आकाश और नीले सागर के परिपार्श्व में शोभा देती हैं और आस-पास के ऊँचे-नीचे प्रदेश के जैतून वृक्षों से भरी घाटियों और सजीले हँसमुख नर-नारियों के साथ मेल खाती हैं. बल्कि जैसे वहाँ के विनोद-प्रेमी, जीवनातुर, संगीत-मुखर, श्रृंगार-वृत्ति लोगों के बीच काले या भूरे लबादे और काले या उनाबी टोप पहने हुए कैथोलिक पादरी और श्रमण सहज-भाव से अपने को खपा लेते हैं, वैसे ही अपने में लिपटे-सिमटे ये सम्भ्रान्त मोरपंखी झाड़ भी वहाँ की दृश्य-परम्परा में अपना स्थान बना लेते हैं. और उन्हीं उद्यानों को जब हम किसी गिरजाघर से संलग्न विहार की चारदीवारी के अन्दर बन्द पाते हैं तो दीवार के पुराने पत्थरों के साथ इन वृक्षों का क्लान्त उदासीन भाव फिर एक नया सामंजस्य प्राप्त कर लेता है, मानो विलासिता से ऊबा हुआ कोई अभिजीत रसिक अब दूसरे को याद दिला रहा हो कि ‘कालो न जीर्णो वयमेव जीर्णा:!’

किन्तु शालीन उद्यानों और मधुदायिनी अंगूर-बेलों की चर्चा से यह न समझ लिया जाय कि पश्चिम का जीवन अचंचल गति से चलता है. पहली दृष्टि में यही सबसे बड़ा अन्तर पूर्व और पश्चिम को दीखता है: पूर्व का जीवन विलम्बित लय में चलता है और पश्चिम का द्रुत लय में. और भारत में तो हम-योजनाओं के बावजूद-आलाप लेने में ही खोये रहते हैं! यों और देशों की अपेक्षा इटली कुछ धीरे चलना पसन्द करता है और जब-तब विश्राम करने या गली के मोड़ पर बिलमाने को तैयार है, फिर भी वह असन्दिग्ध रूप से है पश्चिमी देश ही. कम-से-कम आधुनिक इटली. पुराकाल में जब वह पूर्व नहीं तो मध्यपूर्व से आक्रान्त था, रोमिक लोग अधलेटे भोजन करते थे और एक व्यालू में छह घण्टे बीत जाना साधारण बात थी, पर आज का रोमी खड़े-खड़े ही खाता है. खाने के बाद का विश्राम वह अनिवार्य मानता है और इसलिए यूरोप-भर में इटली के दफ्तरों में लंच की लम्बी छुट्टी होती है – नियमत: दो घण्टे पर व्यवहार में तीन घण्टे. किन्तु दूसरी ओर वह काम देर तक करता है और उसकी कारीगरी प्रसिद्ध है. यूरोप में सवेरे उठते ही जीवन की दौड़ आरम्भ होती है, और रात तक चली ही जाती है. मेरा अनुमान है कि औसत यूरोपीय को प्रतिदिन छह-सात घण्टे तो पैरों पर खड़े-खड़े बीतते हैं- अधिक भी हों तो अचम्भा नहीं. फिर वह खड़े रहना चाहे घर पर नाश्ता बनाते समय का खड़े रहना हो, चाहे ट्राम-बस में दफ्तर जाते का खड़ा होना, चाहे सिनेमा के टिकट के लिए लगी कतार का खड़े होना. और चाहे खाते-पीते समय का खड़े होना – क्योंकि प्राय: दिन में एक बार ही बैठकर भोजन किया जाता होगा.

ऐसा क्यों है ? यन्त्रों ने इतनी सुविधा दी है सो क्या केवल खड़े होने के लिए ?

(भारतीय ज्ञानपीठ से छपी ‘एक बूंद सहसा उछली’ से साभार. आवरण फ़ोटो|वीकिमीडिया)

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