आंखिन देखी | इरोम की तरह हरियाली का संघर्ष

घर की एक बालकनी मुख्य सड़क की ओर है. यों तो यह सड़क शहर की दो मुख्य सड़कों को जोड़ती है, लेकिन अब इसने ख़ुद भी मुख्य सड़क की शक़्ल अख़्तियार कर ली है. ख़ूब आवाजाही रहती है इस सड़क पर. सड़क के उस पार बालकनी के ठीक सामने एक खेत है.

खेत में अब भी फसल उगाई जा रही है. साल में एक आध महीने को छोड़कर हरे रंग की अलग-अलग छवियाँ उसमें बिखरी रहती हैं. हर सुबह बालकनी से उस हरियाली को निहारना किसी के लिए भी एक ‘ट्रीट’ हो सकता है. घंटों तक आप उसे निहारते रह सकते हैं. ख़ास तौर पर तब जब कंक्रीट का पूरा एक जंगल आपके चारो और बसा हो और हर तरफ़ सिर्फ़ ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं ही नज़र आती हों.

दरअसल यह खेत कंक्रीट के रेगिस्तान में नखलिस्तान सरीखा है. बेचैनी के महासागर में सुकून का दरिया है. भागते-दौड़ते-हांफते शहर के बीच सुस्ताने वाली सराय है. अंधे विकास से लड़ता प्रकृति का निहत्था योद्धा है. बस यही डर है कि न जाने किस दिन अचानक यह योद्धा खेत हो जाएगा. इस खेत को देखकर मैं हमेशा अचरज में पड़ जाता हूँ. अचरज कि ईंट-पत्थरों और रेत-सीमेंट की इस कठोर और निष्ठुर दुनिया के बीचोबीच ये कोमल-नरम मुलायम छोटा-सा खेत कैसे अभी तक अपना अस्तित्व बचाए हुए है.

पहले ऐसा नहीं था. उस समय यह अकेला खेत नहीं था. बताते हैं कि यहां कभी एक भरा- पूरा गांव हुआ करता था. बस, एक दिन शहर की नज़र पड़ गई. नज़र क्या पड़ी, गांव को तो जैसे उसकी नज़र ही लग गई. ये जो शहर हैं न, पिछली आधी सदी से उनकी भूख बहुत ज़्यादा बढ़ गई है. उन्हें देखकर लगता है कि वे मानो सदियों से भूखे हैं. जो कुछ भी उनकी उनकी ज़द में आता है, अपनी भूख मिटाने को गड़प करते जाते हैं.

नदी, पहाड़, जंगल, बाग़, बगीचे, गांव सब कुछ. तभी तो शहर इतने बेडौल हो गए हैं. दो-एक नहीं सारे ही शहर. कोई अपवाद हो तो हो. कैसी बनिए-सी तोंदें हैं इन शहरों की. इस शहर का भी यही हाल है. तमाम गांव की तरह यह शहर एक दिन इस गांव को भी गड़प गया. देखते ही देखते धूसर रंग तेज़ कृत्रिम रंगों में तब्दील हो जाता है, मिट्टी की कोमलता कंक्रीट की कठोरता में गुम हो जाती है, धैर्य अधीरता में परिवर्तित होती जाता है और सुकून अब बेचैनी का रूप ले लेता है. एक गांव शहर में जो तब्दील हो जाता है.

पर ये ‘एकला खेत’ अजूबा है न. अब भी बना हुआ है वैसे का वैसा ही. वैसा ही सहज-सरल कोमल-सा जैसे पहले कभी बहुत सारे हुआ करते थे. पर आज एक दम अकेला. आज भी अपने दामन को हरे रंग से सजाए हुए. अब देखिए न, इस समय गेहूँ की फसल लहलहा रही है. इस फसल पर सवार हो नृत्य करता वसंत मानो अपनी उपस्थिति की घोषणा कर रहा हो. उधर ठंड धीरे-धीरे पांव खींच रही है. सूरज का ताप हौले-हौले बढ़ रहा है. इस अतिरिक्त ऊष्मा से हरा रंग पिघलने लगा है. हल्का-हल्का पीला रंग चढ़ने लगा है. खेत फगुनाया-सा लगता है. जैसे कह रहा हो फागुन आ गया. होली के रंगों का सुरूर छाने लगा है. होली के बाद गेहूं के पौधों की कच्ची कोमल काया पककर कंचन-सी हो जाएगी. कंचन सी? न, न! कंचन ही हो जाएगी. उस किसान से तो पूछो एक बार. जिसने इसे पोसा है. उसके घर में कनक का पीला रंग बिखर-बिखर जाएगा जब फ़सल उसके बखार में जाएगी. आख़िर दुनिया में ख़ीली पेट से ज़्यादा स्याह और भरे पेट से ज़्यादा सुनहरा रंग किस चीज का होता है!

मैं जब भी चारो तरफ़ अट्टालिकाओं से घिरे, फसल से लहलहाते झूमते इस खेत को देखता हूँ तो वो गाता-सा महसूस होता है. मधुर संगीत का रस कानों में घुलता हुआ लगता है. मानो वो अकेला होकर भी निर्भय, सारे ग़मों को भुलाकर, अपना अस्तित्व ख़त्म करने की शहर की साज़िशों को चुनौती दे रहा हो और गा रहा हो ‘एकला चलो रे, एकला चलो रे…’.

फसल कट जाने के बाद भी बाद भी कितने दिनों तक उसका रंग पीला ही रहता है. एक स्वर्णिम आभा उस पर फैली नज़र आती है. खुशी चारों और फैली सी लगती है. लगता है खुशी का वो खुमार उस पर अब भी छाया है, जो बखार भरकर किसान के पूरे परिवार के चेहरों पर आई होगी.

अब जेठ का महीना आ गया है. पता ही नहीं चला. सूरज रौद्र रूप में आने लगा है. शायद किसी बात पर कुपित हो. क्रोध से उसका ताप बढ़ गया है. इस ताप से खेत की ख़ुशी का पिघला है. वह अब उघाड़े बदन जो है. फसल बखारों में है और वो निपट अकेला. ख़ुशी का पीला रंग उदासी के धूसर रंग में गल रहा है.

अब वो उदासी के साथ हैरान-परेशान भी लगने लगा है. कुछ बेचैन-सा. घबराया हुआ. आपने देखा होगा कि चींटियां हमेशा एक क़तार में चलती हैं. सबसे आगे चलने वाली रानी चींटी फेरोमेन्स नाम का दृव्य छोड़ती जाती जाती है और उसकी गंध पहचान कर बाक़ी चींटियां उसके पीछे चलती जाती हैं. पर कभी-कभी कोई चींटी भटक जाती है. उस चींटी की छटपटाहट देखिए. वह लाइन को ढूंढने कर अपने साथियों से जुड़ने को किस कदर इधर से उधर भटकती है. उसकी घबराहट, उसकी बेचैनी किस तरह से आदमी को भी द्रवित कर देती है. इस माह खेत किसी भटकती चींटी-सा दीखने लगता है. वही छटपटाहट, बेचैनी, घबराहट.

छटपटाहट से उसकी उदासी का रंग गहराता जाता है. बीते दिनों की याद में खेत भीतर ही भीतर गलता जाता है, गलता जाता है. धूसर रंग मटमैला होकर स्याह होने लगता है. उसका चेहरा क्या, पूरी देह कुम्हला जाती है. अकेलापन शायद उसे खाए जाता है. अट्टालिकाओं के अट्टहास से उसका दुख घनीभूत होता जाता है. उसका शरीर अब स्याह हो चला है.

अषाढ़ लग गया है. खेत के इतने दुख से आसमान भी द्रवित होने लगता है. भावुक होकर आसमान के आंसू बारिश बनकर अविरल बहने लगते है. बूंदों की शीतलता से उसके दुखों का ताप कम होने लगता है. खेत की शुष्कता फिर से तरल होने होने लगती है, मुरझाई हिम्मत हरी होने लगती है. किसान भी खुशी के ख़ुमार से बाहर आकर फिर से खेत के पास लौट आता है. अब वो चारा बोता है. इतना साथ पाकर खेत ख़ुशी से फिर हरिया जाता है. अट्टालिकाओं के सामने फिर सिर तानकर खड़ा हुआ लगता है.

अचानक ‘मणिपुर की लौह महिला’ शर्मिला चानू इरोम की याद आती है. उनका एकल संघर्ष याद आता है. बिल्कुल ऐसा ही तो इस खेत का संघर्ष है. निपट अकेला है. पर सीना ताने खड़ा है. हर अतिक्रमण का प्रतिरोध करते हुए न केवल अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश है बल्कि कंक्रीट होती दुनिया में थोड़ी-सी कोमलता को भी बचाने की लगातार कोशिश कर रहा है. वो भी निपट अकेले. अपनी बालकनी से उसे निहारते हुए पता नहीं कितनी बार अट्टालिकाओं के बीच फसल के साथ लहराते इस खेत में इरोम की छवि नज़र आती है.

पता नहीं क्यों इधर कुछ दिनों से हरी-भरी लहराती फसल के बावजूद उदास-सा है वो. उसके तमाम प्रयास, तमाम प्रतिरोध के बावजूद कुछ फसल उजाड़ दी गई है. उसका सीना सरिया, ईंटें, रेत, सीमेंट, बजरी से पाट दिया गया है. वो कराह रहा है. उसके कराह, उसकी सिसकियां कानों को बेध-बेध जाती हैं.

बचपन की एक कहानी याद आ रही है. उस डायन की जिसकी जान तोते में बसती थी. यहां उसके उलट है. प्रकृति की जान खेती-किसानी में बसती है. और इसका नियंत्रण विकास डायन को मिल गया है. वो जब चाहे खेत के किसी एक हिस्से को उससे अलगा देती है. प्रकृति कराहती रहती है. खेत सिसकता रहता है. आगे निकलने की अंधी दौड़ में बहरी दुनिया और दुष्ट विकास डायन को कुछ सुनाई नहीं देता. प्रकृति ऐसे ही तिल-तिल मरती जाती है.

एक दिन आएगा कि मैं सुबह उठूंगा, बालकनी में आऊंगा. पर न खेत होगा, न फ़सल होगी और न आंखों का, मन का सुकून होगा. होगी तो बस एक बेचैनी, और छटपटाहट. जंगल का कुछ और विस्तार हो गया होगा.

उस खेत को निहारते हुए कई बार ऐसा लगता है कि उसके और आम आदमी के जीवन में कितनी समानता है. फिर क्यों वे उसके दुश्मन बन बैठे हैं. क्या कभी दोस्त बन कर साथ नहीं रह सकते.

आज मैं बेचैन हूँ. उसकी उदासी देखी नहीं जा रही है. मैं बालकनी से भीतर कमरे में आ गया हूँ.

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