ज़ाइक़ा | देश भर में धाक, एक समोसा खाना पाप

  • 7:52 pm
  • 24 September 2020

आप कलकत्ते में हों या कालीकट में, मुंबई में हों या मैसूर में. सड़क के किनारे किसी चाय की दुकान पर या फिर किसी फ़ाइव स्टार होटल की बेकरी में, समोसा हर जगह के मेन्यू में मिल जाएगा. अपने यहां के बुज़ुर्गों की ज़बान पर चढ़ा ‘तिकोना’ कहीं बाअदब समोसा है तो कहीं सिंगाड़ा तो कहीं सुमोसा. यही समोसा जब हीथ्रो एयरपोर्ट के किसी स्टॉल पर दिखाई दे जाता है तो ज़ाइक़े के क़द्रदान तमाम हिन्दुस्तानी इस बात पर ख़ुश हो लेते हैं कि अपने समोसे की धाक कितनी दूर तक है. मगर हममें से बहुतों को शायद ही पता हो कि यह तिकोना हमारी नहीं, मिडिल ईस्ट वालों की ईजाद है, और जिसे अपनी ज़रूरत के मुताबिक हमने इस क़दर हिन्दुस्तानी बना लिया कि समोसा तो हमारा ही है, बाक़ी कहीं संबुसाक हुआ करे या सामसा.

ऐसा नहीं कि इसके मूल ज़ाइक़े की तरह गोश्त के क़ीमे वाला समोसा हिन्दुस्तानी बनाते या खाते नहीं हैं. देश के अलग-अलग हिस्सों में इसकी कितनी ही क़िस्में छाई हुई हैं, मगर इसका सबसे ज़्यादा जनवादी स्वरूप आलू वाला समोसा है. आलू यानी बटाटा, जो पुर्तगालियों की बदौलत हमारे यहाँ पहुंचा. हम कितनी ही तरह के समोसे बना सकते हैं और कितनी ही तरह से इसे खा सकते हैं – दाल के, मेवे के, मक्खन के समोसे, प्याज़ के समोसे और आलू-मटर के साथ मेवा और पनीर वाले पंजाब के समोसे. कहीं हरी चटनी, कहीं सोंठ, कहीं दही तो कहीं छोले के साथ. कड़ाही के खौलते तेल में डूबते-उतराते समोसों की महक़ गज़ब का मोहक खिंचाव पैदा करती है. हिन्दुस्तानी दफ़्तरों में किसी अलिखित क़ानून के तहत समोसे के बग़ैर चाय मुश्किल से ही आती है. और बक़ौल प्रवीण, जगजीत सिंह कहा करते थे कि एक समोसा खाना पाप है.

यों फ़ारसी ज़बान और ज़ाइक़े में यह सम्बुसा (समभुज) है. हिन्दुस्तान में समोसे का इतिहास सात सदी से ज़्यादा पुराना है. हज़रत अमीर ख़ुसरो (13वीं सदी) ने दिल्ली के भद्र लोक में परोसे जाने वाले जिस समोसे का जि़क्र किया है, वह मैदा, गोश्त के कीमे और घी से बना होता. उनके हवाले से कही जाने वाली यह पहेली भी समोसे की हाज़िरी की नज़ीर है – समोसा क्यों न खाया? जूता क्यों न पहना? और जवाब है – तला न था.

इब्ने बतूता (14वीं सदी) ने दिल्ली यात्रा के अपने ब्योरे में मोहम्मद बिन तुग़लक के भोज में परोसे जाने वाले जिस ‘सम्बुशाक’ का ज़िक्र किया है, वह तेज़ मसालों वाला व्यंजन था, जिसमें कीमे के साथ पिस्ता, बादाम और अखरोट का इस्तेमाल होता था. और जो भोजन के दौरान पुलाव के पहले परोसा जाता था.

कहते हैं कि अक्सर सफ़र में रहने वाले तिजारतियों की ज़रूरत समोसे की ईजाद की वजह बनी. मसालों के साथ ख़ूब भूना हुआ गोश्त मैदे की रोटी में भरकर तंदूर में पकाने के बाद सफ़र में कई दिनों तक ख़राब नहीं होता था. हां, तब इसकी शक्ल तिकोने की नहीं, अर्द्धचंद्राकार होती थी. इसे ‘डीप फ़्राई’ करने का चलन बाद में शुरू हुआ होगा. वजह समझना आसान है. सफ़र के दौरान फ़्राई करने के संरजाम जुटाना, तंदूर लगाने के मुक़ाबले काफ़ी आसान है. मानते हैं कि दिल्ली सल्तनत के दौर में मध्य एशिया के ख़ानसामों के मार्फ़त यह हमारे यहां पहुंचा. कुछ लोगों का मानना है कि मध्य भारत से आने वाले तिजारतियों के साथ समोसा हमारे यहाँ आया.

सोलहवीं सदी में जब मुग़ल बादशाहत क़ायम हुई और मुग़लई ज़ाइक़े की आमद हुई तो समोसा पहले ही यहाँ मौजूद था. आइना-ए-अकबरी में ‘क़ुतब’ की रेसिपी के साथ यह भी बताया गया है कि हिन्दुस्तानी इसे ‘संबुसा’ कहते हैं. अर्से तक समोसे को बादशाहों के दस्तरख़्वान पर होने की इज़्ज़त मिली रही, मगर इसमें वैविध्य पैदा हुआ लोक के बीच आने के बाद. दरबारी नफ़ासत छोड़कर नुक्कड़ की दुकान में आने के बाद यह भोजन के साथ परोसा जाने वाला व्यंजन नहीं रह गया और तभी इसने ‘कभी भी – कहीं भी’ वाला रुतबा हासिल किया.

समोसा यों दुनिया भर में बनाया-खाया जाता है मगर कहीं और इसकी इतनी क़िस्में शायद ही मिलें, जितनी कि हिन्दुस्तान में. आलू या फिर गोश्त भरे हुए समोसे के साथ ही प्याज़, मटर, फ्रेंच बीन्स, पनीर, दाल और भी न जाने क्या-क्या भरते हैं समोसे में. छोटा समोसा (हरि ब्रांड, इलाहाबाद) या फिर मोटा समोसा (अवनफ़्रेश, चंडीगढ़), प्याज़ का चपटा समोसा (मैसूर), हैदराबादी लुक़्मी या बिहार, झारखंड और कलकत्ते में प्रचलित सिंगाड़ा. पकौड़ी-कचौड़ी अपने मेन्यू में पहले से थी सो समोसे का इसमें जगह बनाते देर न लगी होगी.

अब तो हाल यह है कि ऐल्प्स की पहाड़ी पर भी किसी हिन्दुस्तानी से पूछ लिया जाए कि चाय के साथ क्या लेंगे तो हैरत नहीं कि जवाब मिले – समोसा. यह तिकोना हमारे चेतन से कितने गहरे जुड़ी है, इसका अंदाज़ समोसा जैसे सोशल नेटवर्किंग एप्लीकेशन या सोशल समोसा जैसी वेबसाइट्स के नाम से भी लगा सकते हैं.

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