ज़ायक़ा | डींगर के ‘बंद-मक्खन’ और कल्लू के समोसों की याद

एक क़िस्सा है कि किसी साधु के पास कोई चना लेकर गया और कहा, ‘महाराज चना लाया हूं, भोग लगा लें.’ साधु ने कहा, ‘रख दो, जब लड्डू बन जाएगा तो भोग लगा लूंगा.’ शिष्य को आश्चर्य हुआ, चना लड्डू कैसे बन जाएगा? उसने सोचा आज यहीं बैठ कर देखता हूं कि चना लड्डू कैसे बनता है? तीन-चार घंटे बाद साधु ने अपने शिष्य से कहा, ‘अरे वह लड्डू लाओ मैं भोग लगा लूं.’ शिष्य ने देखा अभी भी यह चना ही है. उसने उठाकर साधु को दे दिया.

साधु ने बड़े आराम से चना खाया, पानी पिया और शिष्य की ओर देखकर बोला, ‘वाह! क्या लड्डू था, स्वादिष्ट.’ उसने कहा कि गुरु जी यह तो सुबह भी चना ही था. अब जब आपने भोग लगाया तब भी चना ही था. साधु ने शिष्य की चिंता का समाधान करते हुए कहा, ‘सुबह मुझे भूख नहीं लगी थी. उस समय यह चना था. शाम को जोर की भूख लगी तब यह चना ही लड्डू की तरह स्वादिष्ट लग रहा था.’

हमें वही ज़ायक़े हमेशा याद रहते हैं, जिन्होंने सही समय पर हमारी भूख से राहत दिलाई है. कभी-कभी दाल-रोटी भी हमारे ज़ायक़े में आख़िरी दम तक शुमार रहती है. आज इधर-उधर से लाए गए उन ज़ायक़ों और उन्हें स्वादिष्ट बनाने वालों की एक यादगार कड़ी जिन्होंने जाड़े, गर्मी, बरसात हर वक्त भूख को अपने खाने से अंजाम तक पहुंचाया है.

इलाहाबाद चाहचंद की गली में एक विद्यालय था, ‘आदर्श विद्यालय’. उसी के मोड़ पर अपनी पेटी के तमाम ख़ानों में रखे बिस्कुट, दालमोठ, टॉफी, चूरन, चटनी, क्रीम रोल, पेटीज़ के साथ डींगर अपनी दुकान सजाते थे. यों उनके पास इमली, कैथा, बेर जैसे फल भी होते थे, जिसे स्कूल जाते बच्चे जल्दी से ख़रीद कर अपने बैग में भविष्य इस्तेमाल के लिए रख लेते थे. डींगर की ख्याति की वजह मगर ‘बंद मक्खन’ था, ताज़ा बना देसी मक्खन और उस पर काली मिर्च, नमक और काले नमक का छिड़काव. जब कभी घर का टिफिन जल्दी में छूट जाता या अम्मा का टिफिन न बन पाता तो अम्मा से पैसे मांग लेते और पहुंचकर डींगर का ब्रेड-बन खाने की साध पूरी करते थे. उम्र के इस पड़ाव पर भी जब कितना कुछ पीछे छूट गया है, डींगर के उस ‘बंद-मक्खन’ और भूख का रिश्ता आज तक ज्यों का त्यों क़ायम है.

‘मील्स ऑन व्हील्स’ या ‘रेडी टु ईट’ का प्रचलन कब से शुरू हुआ, यह अलग-अलग शहरों में अलग शोध का विषय हो सकता है. लेकिन हमारे शहर इलाहाबाद के पुराने बादशाही मंडी मोहल्ले में यह प्रयोग सबसे पहले कल्लू समोसे वाले ने किया था. वह सुबह-सुबह बांस की बनी दो डलियों में से एक में समोसे, तेल की बोतल और दूसरी में कोयले वाली अंगूठी लेकर पहुंचते थे. हम लोगों के सामने ही समोसे तलकर महुए के पत्ते में चटनी के साथ परोस देते थे. इलाहाबाद का हरि का समोसा हो या दुनिया के किसी कोने का – तमाम तरह के समोसों के बावजूद कल्लू के समोसे का ज़ायक़ा और उनका कॉन्सेप्ट सबसे अव्वल है, बेजोड़ है.

हीवेट रोड पर कश्मीरी होटल के नीचे छोटई चाट वाले की दुकान सजती थी. शाम होते ही पहले बाल्टी से पानी डालकर ज़मीन की धूल-मिट्टी को बैठा दिया जाता था. उसके बाद थाल में चाट सजाकर, लाल कपड़े से जीरा-जल का बर्तन बांधकर, बढ़िया सफेद कुर्ता पहन कर, छोटई चाचा चाट की दुकान पर बैठते थे. गर्मी के दिनों में चाचा की फुलकी, जलजीरा का जो स्वाद मिला है, आज बंगाली मार्केट, हल्दीराम के रेस्तरां में खाने के बाद भी वह स्वाद अपनी जगह बरक़रार है. 1977 में जब पंडित केसरीनाथ त्रिपाठी पहली बार संस्थागत वित्त मंत्री बन कर इलाहबाद आए तो छोटई की दुकान पर उनको चाट खाते देख कर छोटई चाचा की दुकान हमारे लिए चाट का ब्रांड बन गई.

ज़ायक़ों की इस परंपरा में हमारी स्थानीयता शुमार थी, हर व्यक्ति, हर दुकान, हर शहर का अपना जो स्वाद था, आज मॉल और फ़ूड चेन वाली संस्कृति के दौर में सब कुछ कहीं सिमट-सा गया है. विविधता में एकता का वह रंग अब फ़ूड चेन बन गया है.

इलाहाबाद में लोकनाथ की गली की मिठाई, नमकीन, दूध, दही, रबड़ी, खुरचन, हरि की नमकीन, ठंडाई, लस्सी हो या सुलाकी चंदा का मोतीचूर का लड्डू. नेतराम की कचौड़ी या शाम को लाइन लगाकर देहाती के रसगुल्ले के लिए खड़े लोगों की बेक़रारी. ये सारे स्वाद एक ही शहर में अलग-अलग जगहों समय के साथ फलते-फूलते रहे थे. यूनिवर्सिटी रोड पर यादव की चाय, झूंसी में बाबा का समोसा, शिवगढ़ नहर के किनारे गरम गुलाब जामुन का स्वाद जब सिर चढ़कर बोलता है तो लगता है ज़ायक़े की अपनी इस विविधता को फ़ूड चेन के दौर में हम कैसे और कब तक संजोकर रख पाएंगे?

(लेखक लोक कलाओं के अध्येता हैं. एनसीज़ेडसीसी और नेहरू युवा केंद्र से लंबे समय तक संबंद्ध रहे हैं.)

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