डालडा 13 | भारत की पहली महिला फ़ोटोजर्नलिस्ट

  • 3:47 pm
  • 9 December 2020

होमी व्यारावाला भारत की पहली महिला फ़ोटोजर्नलिस्ट थी. फ़ोटोजर्नलिस्ट के तौर पर क़रीब चालीस साल तक सक्रिय रहीं होमी व्यारावाला की तस्वीरें आज़ादी की लड़ाई के दौर का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं.

किसी लाइब्रेरी या आर्काइव में पुराने अख़बार पलटते वक़्त अगर किसी फ़ोटो की क्रेडिट लाइन ‘डालडा 13’ छपी हुई मिले तो फ़ोटोग्राफ़र के नाम का अंदाज़ लगाना बहुत मुश्किल नहीं, वह होमी व्यारावाला की खींची हुई फ़ोटो होगी. होमी अपने इस नाम से ख़ूब मशहूर थीं. उनके इस छद्म नाम की कहानी भी ख़ासी रोचक है. उनकी पैदाइश 1913 में हुई, अपने होने वाले पति से उनकी पहली मुलाक़ात 13 साल की उम्र में हुई और उनकी पहली कार का रजिस्ट्रेशन नम्बर था – डी.एल.डी 13. सन् 1965 में उनके पति ने जिस रोज़ उनके लिए यह कार ख़रीदी, हिन्दू कैलेण्डर के मुताबिक वह 13 तारीख़ थी.

उनके पिता पारसी थिएटर में काम करते थे. नाटक कंपनी के साथ परिवार के बम्बई आने के बाद उन्होंने बॉंबे यूनिवर्सिटी और जे.जे.स्कूल ऑफ़ आर्ट से पढ़ाई की. सन् 1930 से फ़ोटोजर्नलिस्ट के तौर पर काम शुरू करने वाली होमी की आज़ादी आंदोलन और तत्कालीन राजनेताओं की तस्वीरें महत्व का दस्तावेज़ हैं. 1956 में नाथु ला के रास्ते सिक्किम से भारत आए. दलाई लामा की यात्रा को उन्होंने ‘लाइफ़’ पत्रिका के लिए कवर किया.

उनकी शुरुआती तस्वीरें ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ में छपती रहीं और बाद में लंबे समय तक ‘इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया’ में. मानेकशॉ जमशेतजी व्यारावाला से ब्याह के वह उनके साथ दिल्ली आ गईं और ब्रिटिश सूचना सेवाओं के कर्मचारी के रूप में स्वतंत्रता के दौरान की तमाम महत्वपूर्ण तस्वीरें बनाईं. उनके पति टाइम्स ऑफ़ इंडिया के लिए काम करते थे. दिल्ली में काम करते हुए उनकी तस्वीरों को देशव्यापी पहचान मिली. सन् 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दिनों में गांधी, नेहरू और जिन्ना की उनकी कई तस्वीरें चर्चा में रहीं और अब इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. माउण्टबेटन की विदाई, लाल क़िले पर तिरंगा लहराते नेहरू, हो ची, क्वीन एलिजाबेथ, कैनेडी जैसे नेताओं के भारत दौरे की उनकी तस्वीरें भी इसी श्रेणी में हैं.

अपने पति की मृत्यु के बाद 1970 में उन्होंने फ़ोटोग्राफ़ी छोड़ दी. फ़ोटोजर्नलिस्ट के तौर पर अपने उसूल और व्यवहार को उन्होंने हमेशा जिया. पेशेवर बिरादरी की नई पीढ़ी में उसूलों की कमी उन्हें खिन्न और परेशान करती और सुरक्षा प्रबंधों के नाम पर महिला फ़ोटोजर्नलिस्ट्स की आवाजाही पर प्रतिबंधों से उन्हें झुंझलाहट होती.

सन् 1995 में मोनिका बेकर ने उन पर एक डॉक्युमेंट्री ‘डालडा 13ः अ पोर्ट्रेट ऑफ़ होमी व्यारावाला’ बनाई थी. जब उनसे पूछा गया कि कॅरियर के उत्कर्ष पर उन्होंने फ़ोटोग्राफ़ी क्यों छोड़ दी, उन्होंने जवाब दिया था,

“अब इसका कोई औचित्य नहीं रहा. हमारे दौर में फ़ोटोग्राफ़र्स के लिए कुछ क़ायदे हुआ करते थे. हमारी पीढ़ी के फ़ोटोग्राफ़र तो ड्रेसकोड भी बनाकर रखते थे. हम एक दूसरे को सहकर्मी मानते हुए सहयोग और सम्मान देते. लेकिन अब तो सब कुछ बदल गया है. नई पीढ़ी की दिलचस्पी तो बस पैसा कमाने में है, चाहे जैसे भी मिले और मैं ऐसी भीड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहती.”

कवर में कार | मोनिका बेकर की डॉक्युमेंट्री से साभार.

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