सत्तू के जोड़ का फ़ास्ट फ़ूड बताएं तो जानें

  • 10:07 pm
  • 26 November 2020

नई पीढ़ी के लिए यह यक़ीन करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है कि चिप्स अंकल के पैदा होने के पहले भी बनाए-खाए जाते थे. और फ़ास्ट फ़ूड की जिस फ़ेहरिस्त पर उन्हें इतना नाज़ है, सत्तू के जोड़ की एक भी चीज़ उसमें बता सकें तो जानें.

मैगी, मोमोज़, पास्ता, रोल, बिरयानी, पिज्ज़ा, मंचूरियन के दौर में आज की पीढ़ी का एक सीधा सरल-सा सवाल होता है – आप के समय में फ़ास्ट फ़ूड होता था? आपके पास अपने समय के किसी फ़ास्ट फ़ूड की कोई रेसिपी भी है? सवाल यों आसान लगता है मगर सोचने पर मजबूर भी करता है. पहले तो मुझे यही सोचना था कि अपने ज़माने के हम फ़ास्ट फ़ूड को हम पुकारते किस नाम से थे?

यह सब याद करने की कोशिश में सबसे पहले जिस परंपरागत ‘फ़ास्ट फ़ूड’ की याद आई, वह था – सतुआ यानी सत्तू. ख़ासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में गर्मी के दिनों में जौ और चने के आटे से बना सतुआ खाने का चलन है. इसे कई तरह से इस्तेमाल किया जाता है. याद आता है कि बचपन में जब हम लोग यात्रा पर निकलते थे तो यह ज़रूर ध्यान रखते थे कि खाने के दूसरे सामानों के साथ थोड़ा-बहुत सत्तू भी रख लिया जाए.

तमाम जगहों पर लोग सत्तू को ‘तुरंता’ कहते भी थे. कभी भी, कहीं भी पेट भरने के लिए और तंदुरुस्ती के लिहाज से भी इसका कोई जवाब नहीं था, और जो इसके गुणों से वाक़िफ़ हैं उनके लिए तो अब भी नहीं है. संभवतः यही हमारा पहला फ़ास्ट फ़ूड रहा होगा. स्मृति में इससे पुराना और कुछ दर्ज नहीं मिलता. मीठा या नमकीन – सतुआ दोनों ही रूपों में बनाया-खाया जाता है. इसे भोजन का संपूर्ण विकल्प भी मानते हैं.

मुझे बचपन में इलाहाबाद में हीवेट रोड पर सतुआ वालों की कई दुकानों की याद ताज़ा हो गई, जो तोलने के बाद सतुआ सान कर बेचते थे. नमक, गुड़, शक्कर और अचार के साथ. सतुआ के ऊपर से एक अचार और हरी मिर्च का टुकड़ा भी रख कर परोसते थे. सामान्यतः श्रमजीवी मजदूर और रिक्शा वाले दोपहर के समय सतुआ खाने इन दुकानों पर आते थे. आज भी पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में सड़क के किनारे सतुआ या सतुआ का शरबत बेचने वाले बेशुमार मिल जाते हैं.

सतुआ के बाद फ़ास्ट फ़ूड की श्रेणी में ‘लाई’ की याद आती है. चावल को भून कर बनाई गई या नए ज़माने की शब्दावली उधार लें तो रोस्ट की गई ‘लाई’, परवल, मुरी, मुरमुरा, मूड़ी – देश भर में कितने ही नामों से कितने ही रूपों में प्रयोग की जाती है. लाई-चना की जोड़ी तो यात्राओं में हमेशा साथ-साथ चलती रही है. गंगा नहान से लेकर मेले-ठेले तक. आजकल दफ़्तर के बाहर कड़ाही में भूनकर बेचने वाले दुकानदार हों या इलाहाबाद के एजी ऑफिस के बाहर गरम भूजा बेचने वालों की क़तार हो या फिर बनारस में कचहरी के पास भूजा वालों की दुकानें. यह सब आज भी हमारे पुराने फ़ास्ट फ़ूड की महत्ता से अच्छी तरह परिचित कराते रहे हैं. देश भर में लाई भूनने वाले तमाम रूपों में अपनी पहचान बनाए हुए हैं.

बंगाल में सरसों के तेल के साथ बनाई गई झालमुड़ी हो या महाराष्ट्र में चटनी या सॉस के साथ बनाई गई भेलपुरी. इसका उपयोग हम राह चलते नाश्ते के रूप में करते हैं. बंगाल में मुरी भाजा यानी लाई के साथ प्याज़ की पकौड़ी भी एक स्वादिष्ट व्यंजन है. बिहार में उबले मटर-चने की घुघनी के साथ लाई का नाश्ता प्रचलित है. लाई को गुड़ के साथ मिलाकर मीठा खाने का भी रिवाज़ है, ढूंढ़ा, गुड़ लईया, लाई खोई, गुड़ के रस के साथ उसे बांध कर उसका मीठा स्वरूप रसरंजक है और फ़ास्ट फ़ूड भी.

नई पीढ़ी को शायद चिप्स के जनक शायद वह अंकल ही लगें, जो हवा भरी थैली में दस ग्राम चिप्स पैक करते रहे हैं. हमारे बचपन वाले घरों में होली के मौक़े पर पापड़, चिप्स, सेव और भुजिया बनाने का चलन था. और ग्राम के हिसाब से नहीं, किलो के हिसाब से. एक बार बने हुए ये पापड़-चिप्स पूरे साल भर तक काम आते. मैगी या नूडल्स का तो ख़ैर तब तक पता ही नहीं था, मगर दादी-नानी के हाथों बनी हुई सेंवई हमारा परंपरागत फ़ास्ट फ़ूड ही थी. यह सेंवई मीठी बनती और नमकीन भी. हालांकि नूडल्स का डेज़र्ट बनाने की कोई रेसिपी हमारी जानकारी में अब तक नहीं आई है.

फ़ास्ट फ़ूड मतलब यही है न कि जो झट से बन सके और आसानी से परोसा जा सके और जिनको बनाने के लिए कम से कम संसाधनों की ज़रूरत पड़े. इस लिहाज से हमें तमाम तरह के ऐसे परंपरागत खाने की याद आती है, जिनको बिना चूल्हे के कहीं भी, लकड़ी या कंडे पर पकाया जा सकता था. आलू, बैगन, टमाटर भूनकर भुर्ता और उसी आंच में भउरी, बाटी, लिट्टी फ़ास्ट फ़ूड श्रेणी के ऐसे व्यंजन हैं, भारतीय समाज परंपरागत रूप से जिन्हें बरतता आया है. उपले, गोबर, कंडे या सूखी लकड़ियां जलाकर भउरी बनाना फ़ास्ट फ़ूड का पहला प्रयोग रहा हो शायद. आटे की मोटी लोई को चपटा किया और धीमी आंच में पकने के लिए डाल दिया. बाग-बगीचे या खुले मैदान में कहीं बनाई हुई इसी आग में आलू, टमाटर, बैगन भूनकर भुर्ता. परोसने के लिए सदाबहार पत्तल, केले या महुआ के पत्ते.

‘चिउड़ा’ भी हमारे पारंपरिक भोजन का हिस्सा रहा है. एक मित्र ने बताया कि वह जब कभी विदेश जाते तो अपने साथ ढेर-सा चिउड़ा ले जाते. उन दिनों दूध में भीगा हुआ चिउड़ा ही अक्सर उनका भोजन होता. बिहार में प्रचलित दही-चिउड़ा उसी परंपरा का व्यापक स्वरूप है. पूरे उत्तर और पश्चिम भारत में चिउड़ा से बनने वाला ‘पोहा’ अलग-अलग तरीक़े से बनाया-खाया जाता है. मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में सुबह के नाश्ते के तौर पर पोहा ख़ूब प्रचलित है. बंगाल में भी ‘चिड़े दोई’ जाड़े के दिनों में जमकर खाया जाता है. हमारे बचपन के दिनों में दूध चिउड़ा जल्दबाज़ी में हमारा प्रिय नाश्ता हुआ करता था.

दलिया गेहूं का हो या जौ का या किसी और अनाज का, आजकल उसका शुमार ‘फ़ास्ट फ़ूड’ में होता है. दूध के साथ पकाकर मीठी खीर की तरह हो या नमकीन दलिया ये सब तो हमारे परंपरागत फ़ास्ट-फ़ूड रहे ही हैं, जो सुपाच्य हैं और स्वास्थ्यवर्धक भी. और इन्हीं गुणों के चलते आज इनका इस्तेमाल पौष्टिक सामग्री के तौर पर जमकर होता है.
ये कुछ फ़ास्ट फ़ूड हैं, जिन्हें हम भारतीय ‘तुरंता’ के नाम से आपके सामने परोस रहे हैं. इस विरासत में आपकी अपनी रसोई भी कम समृद्ध नहीं होगी. इस कड़ी में कुछ न कुछ जोड़ने के लिए हम सब लोगों के पास होगा. आप जितना इसमें जोड़ते जाएंगे, हमारी परंपरागत फ़ास्ट-फ़ूड की कड़ी उतनी ही मज़बूत होती जाएगी. आने वाली पीढ़ी को कम से कम यह तो बता ही सकते हैं कि अंकल चिप्स के वजूद में आने के पहले से भी हम चिप्स खाते आए है.

अचार, मुरब्बा, अमावट, आम पापड़ – एक अलग फ़ेहरिस्त है, जिसके बारे में हम ज़ायका की अगली कड़ी में विस्तार से बात करेंगे. और हां ‘खिचड़ी’ को भी, जो पूरे हिंदुस्तान में बनाई-खाई जाती है, अगर फ़ास्ट फ़ूड की लिस्ट में शामिल कर लेंगे तो गलत नहीं होगा!

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