बिरजू महाराज | संगीत और आनंद एक दूसरे के पर्याय

  • 4:31 pm
  • 17 January 2022

कथक गुरु बिरजू महाराज से प्रवीण शेखर की यह बातचीत 17 मई, 1995 को अमर उजाला के इलाहाबाद संस्करण में छपी. इसे पढ़कर संस्कृति के प्रति उनके सरोकार और नज़रिये की झलक तो मिलती ही है, यह भी मालूम होता है कि टेलीविज़न के ज़रिये फैल रही अपसंस्कृति के बारे में तो वह फ़िक्रमंद थे ही, संगीत सभाओं में ताली भर पीटने वाले श्रोताओं पर भी उनकी निगाह लगी हुई थी.

पांच वर्ष की अल्प आयु से ही पैरों में घुंघरू बांध लेने वाले कथक गुरु पद्मविभूषण पंडित बिरजू महाराज दूरदर्शन के रवैये से ख़ासे क्षुब्ध हैं. नाराज़गी भरे स्वर में कहते हैं – दूरदर्शन पर कलाकारों के चयन का कोई मानदण्ड नहीं है. चुनाव और चयन दोनों ही ग़लत तरीक़े से होता है. कलाकारों के चयन के लिए बनी समितियां बेमानी हैं. दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले ‘ग्रेट मास्टर्स’ कार्यक्रम में कई ऐसे कलाकारों को मौक़ा दे दिया जाता है, जिन्हें अब भी कम-से-कम 15 साल रियाज़ की ज़रूरत है.

पंडित बिरजू महाराज ने कहा कि दूरदर्शन पर शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम देर रात में दिखाये जाते हैं जबकि अपसंस्कृति फैलाने वाले कार्यक्रमों का प्रसारण दूरदर्शन के ‘प्राइम टाइम’ में किया जाता है. हालांकि ज़रूरत इसके एकदम उलट है. यह भारत सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि इस सम्बन्ध में दूरदर्शन को ज़रूरी दिशानिर्देश दे. कहा कि इन्हीं सब वजहों से वह दूरदर्शन पर कार्यक्रम प्रस्तुत नहीं करते. आख़िरी कार्यक्रम उन्होंने 25-30 वर्ष पूर्व लखनऊ दूरदर्शन की शुरुआत के समय दिया था. विदेशी भी अपने जूठन जैसे पॉप संगीत के कार्यक्रमों को देख कर कहते हैं कि यह सब तो वह लोग 20 साल पहले ही छोड़ चुके हैं.

कलाकार और उसकी कला के लिए पुरस्कार और सम्मान के महत्व के सवाल पर उन्होंने कहा कि सच्चे कलाकार के लिए पुरस्कार या सम्मान की हैसियत एक छोटे-से स्टेशन से ज़्यादा नहीं होती लेकिन आजकल दिये जा रहे पुरस्कारों की भी कमोवेश दूरदर्शन जैसी है. पुरस्कार समिति में बैठे 8-10 लोग मिल बांट कर पुरस्कार ले-दे लेते हैं.

संचार माध्यमों, केबिल टेलीविज़न और सूचना-मनोरंजन के संसाधनों में आई क्रान्ति, उसके बदलते तेवर (और स्तर) के सवाल पर उनका कहना था कि विदेशी शास्त्रीय पहले जैसा ही ही है. उनकी कला वैसे ही सुरक्षित है. बैले और जापान के काबुकी थिएटर का वही रूप विद्यमान है. वहां चीखने वाले पॉप संगीत को हमारे फ़िल्म वालों की तरह स्वीकार नहीं किया गया. भारत इस मामले में ज्यादा दूषित हो गया है.

हालांकि उम्मीद भरे स्वर में वह ये भी कहते हैं – लेकिन यह सब टिकाऊ नहीं है. विदेशी संगीत का यह प्रभाव वायरल फ़ीवर जैसा है, जो मौसम के साथ आया है और वैसे ही चला जाएगा. यहीं के लोग ‘पॉप सिंगर’ और न जाने क्या-क्या बनते जा रहे हैं.

यूरोप सहित पूरी दुनिया में बेहद लोकप्रिय अमेरिका के पॉप गायक माइकल जैक्सन का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि उसके पास भी संभावनाएं ख़त्म हो गईं. वह उछल-कूद लिया, कूद-फांद लिया, कपड़े कम कर दिए और जब सारी गुंजाइश ख़त्म हो गई तो क़ब्र से मुर्दा उठाकर नचवाने लगा. दरअसल पाश्चात्य सभ्यता का यह अपना दोष है. यह वैसे लोग अपनाते हैं, जिनका अपने ऊपर वश नहीं है, ब्रेक फेल हो गया है. हमारा संगीत आनन्द का द्योतक है. संगीत अर्थात्‌ संग और गीति. यह श्रृंगारिक भावनाओं और आनन्द के लिए हैं. जो आनन्द का प्रकटीकरण करे, वही सच्चा संगीत है जैसे हमारा शास्त्रीय संगीत. भारतीय संगीत और आनन्द एक दूसरे के पर्याय हैं.

बिरजू महाराज ने और स्पष्ट करते हुए बताया कि उपद्रव के बाद जो शान्ति होती है, वह है हमारा संगीत. उपद्रव विदेशी चलताऊ संगीत है. कितना भी कूद-फांद कर लो, अंत में शान्ति की परम आवश्यकता होती है. यह योग क्रिया है. इससे ज़िन्दगी में सन्तुलन आता है. ‘स’ वही है, आवर्तन वहीं है लेकिन लय को समय में बांधकर मनन करना और आवर्तन रोकने का कार्य संतुलन हैं.

नई पीढ़ी के शास्त्रीय संगीत के साथ रिश्ते के बारे में उन्होंने कहा कि इसके लिए सरकार की ओर से वांछित प्रयास नहीं हो पा रहे हैं. कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय में कलकत्ता के प्रहलाद दासगुप्ता के पुत्र चित्रेश दासगुप्ता ने संघर्ष करके वहां नृत्य को अनिवार्य विषय बनवा दिया लेकिन भारत के विद्यालयों से नृत्य को हटा दिया गया. वास्तव में नृत्य की शिक्षा हर व्यक्ति को दी जानी चाहिए. यह एक रचनात्मक कार्य है. शरीर की कसरत हो जाने के साथ शरीर संचालन में सन्तुलन बनता है नृत्य से.

सरकारी प्रचार से वह ख़ास संतुष्ट नहीं लगते. उन्होंने कहा कि नृत्य-संगीत में वजीफ़े तो दिए गए लेकिन उससे बात नहीं बनती. खेलों जैसी सुदृढ़ स्थिति कलाओं में अभी तक नहीं बन सकी. खेलों में चाहे कोई हारे या जीते आर्थिक तौर पर मज़बूत तो हो ही जाता है. यानि हार के भी वह कमाता है और जीत के तो कमाता ही है. अब क्रिकेट के प्रसिद्ध खिलाड़ी सुनील गावस्कर का ही उदाहरण लीजिए. उनकी सेवाओं के बदले सरकार ने उन्हें आजीवन मुफ़्त रेलवे पास जारी कर दिया लेकिन पंडित रविशंकर, उस्ताद अल्ला रक्खा ख़ाँ, पंडित किशन महाराज, अलाउद्दीन ख़ाँ या मुझे क्यों नहीं मिला?

कहा – मैं यह नहीं कहता कि गावस्कर को नहीं मिलना चाहिए. वह भी श्रेष्ठ हैं और गावस्कर ने अपने फ़न में क़माल हासिल किया है परन्तु हमें भी ऐसी ही तमाम सुविधाएं मिलनी चाहिए. अल्ला रक्खा ख़ाँ, किशन महाराज या पंडित रविशंकर के जैसा कोई दूसरा नहीं पैदा होगा. पद्मविभूषण का तमग़ा न तो ओढ़ सकते हैं, न बिछा सकते हैं और न उसमें रह-खा सकते हैं. कुछ ऐसी व्यवस्था होती कि हम किराये के मकान में न रह रहे होते. मेरे चाचा पंडित शम्भू महाराज कहा करते थे कि इन्दिरा गांधी ने मेडल तो दे दिया लेकिन एक स्कूटर दे दिया होता ताकि सावन में भीगने से बच जाते और घर जल्दी पहुंचते.

दर्शक और मंच के रिश्तों में बदलाव के सवाल पर उन्होंने कहा कि संगीत सभाओं में आने वाले गुणीजनों की संख्या अब कम हो चली है. लोगों के पास समय नहीं है. तालियां पीटने वाले और वाह-वाह करने वाले बहुत आते हैं. हृदय से ‘आह’ करने वाले अब अत्यन्त कम हैं.

पंडित जी के लिए नृत्य अब दर्शन है, अध्यात्म है. नाच अब उनके लिए महज नाच नहीं रहा. 30-35 वर्ष पूर्व ऐसा नहीं था. तब मेहनत और जीत की ख़्वाहिश थी. होड़ थी, एकदम तबले की तरह. वह सब बालपन ओर बांकपन की स्वाभाविक प्रवृत्ति थी.

अपने भारतीय होने पर गर्व करने वाले पंडित बिरजू महाराज आजकल गायन के विभिन्न रागों, कथक और प्रकृति पर आधारित एक टेलीविज़न धारावाहिक पर काम कर रहे हैं. उसके बारे में उन्होंने बताया कि इसमें संगीत के श्रेष्ठ लोग जुड़े हैं.

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