गुरू की तलाश में भटके साधक का सफ़रनामा
उनकी आवाज़ और उनकी गायकी ने संगीत-रसिकों की कई पीढ़ियों के मन पर अपनी छाप छोड़ी, आत्मा की गहराई तक उतर जाने वाला उनका घन-गंभीर स्वर उन लोगों को भी प्रभावित करता रहा है, जो शास्त्रीय संगीत से बहुत वाक़िफ़ नहीं. मगर जिस संगीत साधक भीमसेन जोशी को ज़माने ने जाना, इस मुक़ाम तक पहुंचने का उनका सफ़र आसान हरगिज़ नहीं था.
संगीत और अपने मन का संगीत सिखाने वाले गुरू की तलाश में वह कहां-कहां नहीं भटके, क्या-क्या नहीं सहा मगर अपनी लगन और हौसले का दामन नहीं छोड़ा. मोहन नाडकर्णी की अंग्रेज़ी में लिखी उनकी जीवनी का यह अंश उनकी अटूट साधना और अनथक यात्राओं की झलक है.
वह स्कूल से अक्सर देर से घर लौटते. यह घर वालों को जताने का उनका तरीक़ा था कि वह कितनी लगन से पढ़ाई कर रहे हैं. हालांकि देर से घर लौटने की वजह स्कूल के रास्ते में पड़ने वाली ग्रामोफ़ोन की वह दुकान थी, जहां खड़े होकर वह गाने सुन रहे होते थे. दुकान पर एक के बाद दूसरा रिकॉर्ड बजता – नारायणराव व्यास, बाल गंधर्व, पंडितराव नागरकर की आवाज़ में गीत हवा में घुलते रहते और ये ख़ामोशी से दूर खड़े सुनते रहते. मां की लोरी सुनते बड़े हुए उस बच्चे के लिए वह दुकान संगीत की पहली पाठशाला बन गई. बालक ने कन्नड़ के कुछ भजन भी सीख लिए थे और मंदिर पर गुरुवार को होने वाले कार्यक्रम में जब वह गाता तो उसके भाव और स्वर सुनने वालों को मुग्ध कर देते.
इन मुग्ध श्रोताओं में भीमसेन जोशी के पिता गुरूराज भी शामिल थे. भीमसेन की यह लगन देखकर पिता ने उन्हें गाना सिखाने के लिए पांच रुपये महीने की फ़ीस पर चनप्पा को मुकर्रर कर दिया. चनप्पा यों धोबी थे मगर उन्होंने इनायत ख़ां से दीक्षा ली थी. चनप्पा ने उन्हें हारमोनियम बजाना सिखाया और राग भैरव और राम भीमपलास भी. सात महीने बाद ही बालक ने चनप्पा की शार्गिदी छोड़ दी तो पिता ने पंडित श्यामाचार्य को उन्हें सिखाने की ज़िम्मेदारी दे दी. श्यामाचार्य ने उन्हें गायन और वादन दोनों में ही पारंगत बनाया.
संगीत की यह शिक्षा और स्कूल की पढ़ाई साथ-साथ चलती रही. और ग्रामोफ़ोन की दुकान पर बजने वाले रिकॉर्ड्स सुनने का सिलसिला भी. वहीं एक रोज़ उसने उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां को सुना. राग बसंत में ‘फगवा ब्रिज देखन को’ और झिंझोटी की ठुमरी ‘पिया बिन नहीं आत चैन’ उन्हें इस क़दर भाये कि उन्होंने इरादा कर लिया कि उस्ताद की तरह ही गाना है, बस! एक बार अपने पिता के साथ सवाई गंधर्व को सुनने गए तो अब्दुल करीम खां का रिकॉर्ड फिर याद हो आया. उन्होंने सवाई गंधर्व की शार्गिदी की इच्छा जताई मगर वह मुमकिन न हो पाया. मगर इससे बालक के हौसले पर कोई असर नहीं पड़ा. उसने घर से भाग जाने का फ़ैसला कर लिया. उस वक़्त उनकी उम्र 11 साल थी.
और उसके बाद कितनी ही यात्राएं, कितने ठिकाने, गुरू की तलाश और यह सब उस बेचैनी के सबब जो संगीत है. उनका एकमात्र ध्येय ही संगीत था. ग्वालियर में माधव संगीत विद्यालय तक पहुंचने और कुछ समय वहां रहकर सीखने तक की यात्रा भी आसान थोड़े ही थी. जेब में फूटी कौड़ी थी नहीं तो रेलगाड़ी का सफ़र बिना टिकट ही करते. भजन, अभंग गाकर सहयात्रियों प्रभावित करते और टीटीई को चकमा देते हुए कभी तय ठिकाने पर पहुंच जाते तो कभी ऐसे रेलवे स्टाफ़ के हत्थे भी चढ़ जाते जो उनकी आवाज़ और उनकी कहानी से बिल्कुल मुतासिर न होता तो ठिकाना हवालात होती. कई बार भूखे रह जाते, कभी कोई उनके गाने के बाद कुछ पैसे दे देता तो खाने का इंतज़ाम हो जाता. बीजापुर, पुणे, भुसावल, खंडवा होते हुए वह ग्वालियर पहुंच ही गए.
ग्वालियर में ही माधव संगीत विद्यालय के बारे में मालूम हुआ. यह भी कि वहां हिन्दुस्तानी संगीत सिखाने के साथ ही एक जून का खाना भी खिलाते हैं. उस्ताद हाफ़िज़ अली ख़ां के बारे में सुनकर वह उनसे मिलने गए और संगीत सीखने की अपनी इच्छा के बारे में बताया. उस्ताद इतने प्रभावित हुए कि संगीत विद्यालय में उनके दाख़िले की सिफ़ारिश करते हुए चिट्ठी लिखकर दे दी. शाम की क्लास में दाख़िला मिल गया. कृष्णराव शंकर पंडित और राजाभैया पूछवाले प्रशिक्षण देते. यह दौर ख़याल गायकी की बारीकियां समझने और अमल में लाने में बहुत मददगार साबित हुआ, हालांकि बहुत सारे लोगों को एक साथ संगीत सिखाने वाली यह पद्धति उन्हें रास नहीं आ रही थी. उनकी ख़्वाहिश तो ऐसे गुरू से सीखने की थी, जो परंपरागत तरीके से तालीम दे सके. उस्ताद हाफ़िज़ अली से मिलते रहे और उनसे भी सीखते रहे. ख़ाली समय में एक कीर्तनिया के साथ तानपूरे पर संगत करते हुए भीमसेन जोशी संगीत की महफ़िलों में भी शरीक होने लगे.
महाराज के यहां रवायत थी कि संगीत की महफ़िल में शामिल कलाकार के साथ ही संगत करने वालों का भी सम्मान किया जाता. ऐसी ही एक महफ़िल में उन्हें एक नारियल और दस रुपये की दक्षिणा मिली, एक कलाकार के तौर पर संभवतः उनकी पहली फ़ीस. दक्षिणा की इस रक़म से उन्होंने अपने लिए क़मीज़ और हाफ़ पैंट ख़रीदी. संगीत विद्यालय के उनके शिक्षक न केवल उनकी मेधा पहचान चुके थे बल्कि विद्यालय की शिक्षा पद्धति को लेकर उनकी बेचैनी भी भांप ली थी. राजाभैया ने उन्हें मशविरा दिया कि खड़गपुर जाकर केशव मुकुंद लुखे से संगीत सीखें. उन्होंने केशव मुकुंद को एक सिफ़ारिशी ख़त भी लिखकर दिया. वहां भी बात नहीं बनी. अपने तमाम शिष्यों को ट्यूशन देने के लिए केशव मुकुंद देर तक बाहर रहते और लौटते तो इतने थके हुए कि उन्हें कुछ सिखा पाने की नौबत ही न आती. चार महीने बाद ही वह कलकत्ते चले गए और कुछ महीनों बाद वहां से जालंधर. साल भर जालंधर में रहने के बाद जब विनायकराव पटवर्धन से उनकी भेंट हुई तो पटवर्धन ने उन्हें सवाई गंधर्व से सीखने की नसीहत दी, जो उनके ज़िले में ही रहते थे. सवाई गंधर्व से सीखने की चाह और पुरानी स्मृतियां जाग गईं. उन्होंने अपने पिता को ख़त लिखा कि अगर उन्होंने सवाई गंधर्व से उनके संगीत सीखने का बंदोबस्त नहीं किया तो वह जान दे देंगे. पिता से उन्होंने रास्ते के ख़र्च के लिए पैसे भी मांगे मगर पैसे पहुंचने का इंतज़ार किए बग़ैर बिना टिकट सफ़र करते हुए वापस घर पहुंच गए.
यह बात सन् 1935 की है, जब अपने पिता के साथ वह सवाई गंधर्व से मिले. अगले पांच साल उनकी शार्गिदी में ही बीतने वाले थे, जिसमें से शुरू के डेढ़ साल गुरू ने संगीत नहीं सिखाया, शिष्य की लगन और प्रतिबद्धता का आकलन किया. इस दौरान शिष्य पूरे मनोयोग से गुरू की सेवा में जुटा रहा. फिर शुरू हुई दीक्षा – भोर से लेकर आधी रात तक रियाज़. अभ्यास में भी स्वर के चूक की निशानी माथे पर वह निशान, जो गुरू के सरौता फेंककर मारने से लगी चोट का था. 1940 में वह घर लौटे और रियाज़ में डूब गए. साल भर बाद उनकी यात्रा फिर शुरू हुई. छह महीने तक रामपुर में रहकर उस्ताद मुश्ताक हुसैन ख़ां से सीखा, फिर लखनऊ चले गए. वहां रेडियो स्टेशन पर बेग़म अख़्तर से भेंट हुई तो उनक गाए भैरवी के एक टुकड़े से प्रभावित बेग़म अख़्तर ने स्टेशन डायरेक्टर कृष्ण स्वरूप मल्लिक से बात की और 32 रुपये महीने पर रेडियो स्टेशन में उनकी मुलाज़मत पक्की हो गई. रेडियो स्टाफ़ के तीन लोगों, भीमसेन जोशी, बिस्मिल्लाह ख़ां और रोजर लॉयल, ने एक रसोइया रख लिया और एक ही जगह रहने लगे. हालांकि साल भर बाद ही भीमसेन जोशी लखनऊ छोड़कर बंबई चले गए.
(मोहन नाडकर्णी की किताब ‘भीमसेन जोशीः अ बायोग्राफ़ी’ से साभार)
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