‘राजा निरबंसिया’ से मेरा साहित्यिक बपतिस्माः कमलेश्वर
हिंदी अदब की दुनिया में कमलेश्वर ऐसी शख़्सियत थे कि उन्हें किसी एक विधा के खांचे में बांधा नहीं जा सकता. कहानी, उपन्यास लिखे तो कितनी ही फ़िल्मों की स्क्रिप्ट भी लिखी, पत्रकारिता की, अख़बारों के संपादक रहे, कॉलम लिखे और दूरदर्शन के लिए भी काम किया. और जिस विधा में काम किया, अपनी अलग छाप छोड़ी. कमलेश्वर से यह लंबी बातचीत पुरानी है, इसमें उनके काम और शख़्सियत के तमाम पड़ावों के ब्योरे हैं, उनके जीवन के यथार्थ और विचारों के बेशुमार अक्स हैं. बातचीत लंबी है, इसलिए हम इसे तीन हिस्सों में छापेंगे. शुरुआती बातचीत का यह पहला हिस्सा है. -सं.
भीषण ठंड और घने कोहरे में तय समय से पहले पहुँचने के बावजूद कमलेश्वर जी ने ज़रा भी प्रतीक्षा नहीं कराई. डनहिल के पैकेट से सिगरेट निकालते हुए वे अतिथि कक्ष में मेरे सामने आकर बैठ गए थे. केन का सोफ़ा, दीवान, मेज़, गद्दे, पर्दे, एकाधिक ऐशट्रे, गमले, पौधे, फूल, ढेर सारे स्मृति चिह्न, प्रशस्ति पत्र सब अपनी सुरुचि सम्पन्नता और कलात्मकता की बातें बताने को उत्सुक-से थे. कमलेश्वर जी की चाल-ढाल, बातचीत में चुस्ती-फुर्ती, उनके उल्लास, उत्साह आदि ने उस समय अलग से ध्यान आकर्षित किया था.
सबसे पहले मैंने कमलेश्वर जी से उस क्षण या घटना विशेष के बारे में जानना चाहा था; जिसने उन्हें लेखन के रास्ते की ओर मोड़ा. सुदूर अतीत को दूरी को पार कर वे तुरंत उस कालखंड में पहुंच गये थे – देखिए, बचपन में मैं समाजवादी क्रान्तिकारी पार्टी से जुड़ गया था. पार्टी का आदेश हमारे लिए अन्तिम होता था. किसान आन्दोलन चल रहा था तब. योगेश चटर्जी दिल्ली में थे. केशव प्रसाद कहीं और गए हुए थे.
हम कुछ लोग ऑफ़िस में बैठे हुए थे. पुलिस आयी और हमें गिरफ्तार कर लिया गया. थोड़ा भय का क्षण भी था वह. नैनी जेल की खपरैल की कोठरी में उन्नीास दिन बंद रहे. खेतों की निराई का काम मिला वहाँ. घास की जगह अन्न उखाड़कर हम अपना आक्रोश व्यक्त करते. उन्नी़सवें दिन जेलर राउंड पर आया. हमें देखा तो स्टाफ़ से पूछा कि इन नाबालिग लड़कों को क्यों पकड़ा? पकड़ा भी तो अब तक कोर्ट में पेश क्यों नहीं किए गये? उसने कहा कि इन्हें तुरन्त छोड़ दो. अन्यथा फँस जाओगे.
हमें निकलने के लिए मनाया गया. तब हमें बीड़ी का चस्का लग चुका था. लाल मोहम्मद बीड़ी बड़ी ‘फ़ेमस’ थी तब. एक बंडल, पम्पशू और रिक्शे से लौटने के लिए छह आने पैसे लेकर हम बाहर आये. पैसा बचाने की गर्ज से पैदल चल पड़े. बादशाही मंडी में रहते थे तब. यमुना पुल पारकर जैसे ही गऊघाट से थोड़ा पहले पहुँचे, सोचा कि अब जाना कहाँ है? लौटना कहां है?
अचानक आत्महत्या की एक ‘इंस्टिंक्ट’ जागी. ‘इंस्टिंक्ट’, इरादा नहीं. डर तो आत्महत्या से भी लगता था न! घर की ओर बढ़े तो साहित्य सम्मेलन की इमारत पर नज़र पड़ी. पैसे थे ही, एक चाय पी पहले. साहित्य सम्मेलन के सभागार में देखा कि तमाम लेखकों की तस्वीरें लगी हैं वहाँ. तब उन तस्वीरों की पहचान नहीं थी मुझे, पर घर की बैठक की तस्वीरों की समानता दिखी उनमें. अजीब-सी अनुभूति हुई, लगाव पैदा हुआ उनसे. परिवार की पहचान-सी उभरी उनमें. बस, उस क्षण से मेरा वंश ही बदल गया. क्रान्तिकारी पार्टी के पत्र में थोड़ा बहुत लिखते थे तब. उसके बाद तो रास्ता ही बदल गया.
सात भाई, बहिन कोई नहीं. सबसे छोटा. बड़े भाई रेलवे में. उन्तीस रुपये तनख़्वाह. माँ की आमदनी का ज़रिया दुकानें और मकान. किराया बेहद कम. माँ सब्ज़ी लाने भेजती तो, तब, जब बाज़ार बन्द होने को होता. सस्ती मिलने की उम्मीद होती तब. मुझसे बड़े एक भाई थे सिद्धार्थ. तात्कालिक मित्र थे मेरे. इटावा में थे तब, उनका देहान्त हो गया. मेरे लिए वह बर्दाश्त न कर सकने वाली स्थिति थी.
उस हाल में एकदम अन्तर्मन की तरफ़ चला गया मैं. चुप बैठे रहने के लिए पढ़ना ज़रूरी हो गया. यहां से पढ़ने की आदत पड़ी. सिद्धार्थ की मौत से जैसे परिवार का भविष्य ही ख़त्म हो गया. कम से कम में काम चलाना, रहना-सहना, बर्दाश्त करना, ख़ास क़िस्म की समझदारी-सब उसी दौर की देन हैं. माँ अपनी मजबूरी, बदहाली कभी ज़ाहिर नहीं होने देती थीं. उनका बड़ा असर पड़ा मुझ पर. विज्ञान का छात्र था. रेलवे में एक ट्रेनिंग के लिए चुन लिया गया था. वहाँ से मैकेनिकल इंजीनियर बनाकर ही निकालते थे वे. ट्रेनिंग को गया, पर लोहा-लंगड़, ख़राद देखा तो लौट आया.
तब लिखना शुरू किया. क्या लिख रहे हैं, यह पता नहीं होता था तब. तीज-त्योहारों पर माँ से सुनी कहानियाँ प्रभावित करती थीं. क्रान्तिकारी पार्टी में गुजारा वक़्त अनुभव में था. अजीब गड्मड्ड-सी चीज़ें. माँ से सुना हुआ और पार्टी से प्राप्त शौर्य, वीरता की चीजें. सब मिलकर अजीब-सा मानस बना. लिखने को लेकर कोई रास्ता नहीं था.
पहली रचना की बात चली तो बोले–
अब लगता है कि मेरे साहित्य के इतिहास को लेकर एक ग़लती हुई है. ‘कामरेड’ को पहली कहानी बताया जाता रहा है. वह ’48 में छपी थी. सही यह है कि कानपुर की एक पत्रिका, नाम याद नहीं आ रहा, में ‘फ़रार’ ’46 में छप चुकी थी. उन दिनों सामाजिक-राजनीतिक चेतना मुझे पार्टी के अनुभवों से मिलती थी और माँ की पौराणिक कहानियों से भी मेरा मानस बन रहा था. उन दोनों से मिलकर जो रचना आयी, जिससे मुझे स्वीकृति मिली, वह थी ‘राजा निरबंसिया’.
मज़ेदार इतिहास है उसका. दुष्यंत तब इलाहाबाद में कानपुर रोड पर रहता था. वह मुरादाबाद से ‘शीरा पड़ी’, हुक़्क़े की तम्बाकू लाता और हम लोग – दुष्यंत, मार्कण्डेय और मैं, हुक़्क़ा पीते. याद आता है कि वह कहानी लिखी तो दुष्यंत को दी होगी. उन्होंने श्रीपत राय, जो ‘कहानी’ निकालते थे, को दी होगी. उन्होंने वह जैसे छापी, लगभग पुरस्कृत ही की थी. एक दिन मुझे बुलाया, अपनी राय बतायी. उस अंक में तीन कहानियों – ‘डिप्टी कलक्टरी’ (अमरकांत), ‘आटे का सिपाही’ (आनन्द प्रकाश जैन), और ‘राजा निरबंसिया’ (कमलेश्वर) को उन्होंने विशेष रूप से रेखांकित किया था. तब तक कहानी और अपनी परम्परा की समझ आ गई थी. मेरा साहित्यिक बपतिस्मा इसी रचना से हुआ.
कविता लिखने के बारे में कमलेश्वर जी से पूछा गया तो कहने लगे –
नहीं, कविता कभी नहीं लिखी. शुरुआत कहानी से ही की. अब लगता है कि शायद इसलिए नहीं लिखी कि तब महादेवी, पन्त, निराला औऱ फ़िराक़ जैसे बड़े कवि कविता लिख रहे थे. हिम्मत ही नहीं पड़ी होगी. यह भी कि इन्हें पढ़ने के बाद इतनी संतुष्टि मिलती थी औऱ लगता था कि जो मैं सोचता था, वह वहां मिल जाता था. ‘तोड़ती पत्थर’,‘ग्राम्या’,‘कामायिनी’ – इतनी कुछ कि मुझे कविता लिखने की ज़रूरत ही नहीं लगी. मैं अपने अतीत की आवृति तब की कविता में देख रहा था. उसे पढ़कर मेरी सोच को जो आयाम मिलते थे, मेरी इच्छा वहीं पूरी हो जाती थी. महादेवी की रोमांटिक, छायावादी कविता; बच्चन जी मस्ती, फ़िराक़ की – ‘तक़दीर तो क़ौमों की हुआ करती है’. नेहरू का गहरा मानवतावाद, मार्क्सवाद की जो पसीने की प्रांजलता थी, ये सब मिलकर मेरा मानस बना रहे थे. यह कि मैंने तब जो लिखा, उसे कहानी कहा गया. यह भी अब उसके अलावा मुझ पर कुछ आता न था.
तब मैंने कमलेश्वर जी से उनकी पढ़ने की रुचि व पसंद और आज की स्थिति में आए अंतर के बारे में जानना चाहा था. वे फिर से जैसे अतीत में लौट रहे थे – अब तो पढ़ना क्या है? शुरू में पढ़ने की बेहद ललक थी. इलाहाबाद का माहौल ही कुछ ऐसा था. बिन पढ़े साहित्यिक बैठकबाज़ी में अस्पृश्य ही रहता था. नेमिचंद जैन तब इप्टा में थे. जो लेटेस्ट आता, उनसे हम लाते. वे बताते रहते कि यह पढ़ो, वह पढ़ो. आपने यदि सब नहीं पढ़ा तो अगले दिन कॉफ़ी हाउस में आपको जगह नहीं मिलेगी. बैठे रहो अलग, अस्पृश्य की तरह. विदेशी साहित्य तो पढ़ते ही थे, समकालीनों और निकट अंग्रेज़ी का साहित्य बहुत पढ़ते थे. ऐसा कुछ न था, जो पढ़ा न हो. एक-एक बिम्ब साफ़ था कि कौन क्या कह रहा है.
साहित्य की जीवंत और सांस लेती दुनिया हमारे सामने थी. पठन-पाठन की संस्कृति इतनी ज़बर्दस्त थी कि किसी की कोई रचना छपे, पढ़नी है और रुचे तो सराहनी है. हम लोगों में ईर्ष्या नहीं थी. मानते थे कि दूसरे की रचना हमारी पूरक है. सब कुछ तो हम लिख नहीं सकते. पढ़ना एक जुनून था जैसे. तब का हाल बताऊँ आपको? ‘सारिका’ से पहले मैं ‘नयी कहानियाँ’ में था. जैनेन्द्र जी व वात्स्यायन जी से मेरी सोच मेल नहीं खाती थी. वीरेन्द्र जैन नई कहानी पर इंटरव्यू के सिलसिले में जैनेन्द्र जी के पास गए. बात करने से पहले जैनेंद्र जी ने उनसे पूछा क्याी तुमने नई कहानी के औरंगजेब का इंटरव्यू ले लिया? वीरेन्द्र जी ने मुझे बताया. मैंने कहा कि तुम उन्हें इंटरव्यू दिखाने उनके पास तो जाओगे ही. कहना कि कमलेश्वर ने पूछा है कि उनके और वात्स्यायन के बीच शाहजहाँ कौन है, पहले यह तो तय हो जाए. पर इसमें बड़े लेखकों की कहीं अवज्ञा नहीं थी. इलाहाबाद में सबसे गम्भीर मज़ाक़ें, तू-तू-मैं-मैं होती, बड़े-बड़े साहित्यिक सिद्धान्तों, प्रगतिशील लेखक संघ और परिमल वालों की ख़ूब बहसें चलतीं, यहाँ तक कि ख़ूब तू-तड़ाक हो जाती, पर शाम को सब एक साथ बैठे दीखते.
ख़ास विधा की जो बात है, तो यात्रा विवरण और डायरी पढ़ने में मेरी ख़ास रुचि है. व्यक्तिगत भी हो तो ऐसा जो पूरी सामाजिक संचेतना से जुड़ा हो, उसे व्यक्त करे. इलाहाबाद के बाद बम्बई में मेरे पास पढ़ने का बड़ा खजाना था. नए से नए लेखकों की महीने में हज़ार-डेढ़ हज़ार कहानियाँ आती थीं. मैं ख़ुद पढ़ता था उन्हें. उनमें कुछ दिखता तो समझने की कोशिश करता था. तब भारतीय कहानियों तक महदूद रहा. दलित मूवमेंट को शुरू में मराठी का सवर्ण संचेतना वाला वर्ग मंज़ूर नहीं करता था. उच्छिष्ट मानता था उसे. मुझे उन्हें पढ़ने-सुनने का मौक़ा मिला. पढ़कर लगा कि वह भारतीय आत्मा को पहचानने का अचूक अवसर था मेरे लिए. तब फ़िल्में भी लिख रहा था मैं.
आज अन्तर यह आया है कि एक अच्छी किताब, जिसे हम पढ़ना चाह रहे हैं, उसे एक कम अच्छी किताब विस्थापित कर रही है. प्रकाशन-लेखन का इतना विस्तार हुआ है कि पढ़ने को मन से किताबें छाँटता रहता हूँ, शाम होते-होते संख्या आठ-दस हो जाती है. घबरा जाता हूँ और सब एक तरफ़ रखी रह जाती हैं. फिर यह लोकार्पण की परम्परा है. आपको वहाँ बोलना भी है. पिछले दस महीनों में जब किसी ने मुझसे लिखने के बारे में पूछा है, मैंने यही कहा है कि केवल भूमिकाएँ लिख रहा हूँ. बिना पढ़े लिख नहीं सकते. पढ़ते हैं तो लिख नहीं सकते. रचना-दृष्टि का एक संकट उभरता रहता है.
उपन्यास लेखन की ओर आप कब और कैसे प्रेरित हुए?
उपन्यास लेखन के लिए मुझे अमृतराय ने प्रेरित किया. तब क़स्बे की कहानी का मुहावरा चल पड़ा था और मुझे क़स्बे का कथाकार माना जाने लगा था. अमृतराय से मेरी दोस्ती थी. मुलाक़ातें, आना-जाना होता रहता. ज़ीरो रोड पर रहते थे वे. एक दिन अमृतभाई बोले कि तुम क़स्बे की पृष्ठभूमि पर उपन्यास क्यों नहीं लिखते? तब ‘एक सड़क सत्तावन गलियाँ’, लिखा. ‘हंस’ में ही छपा पूरा. उस समय की दुनिया इतनी अच्छी थी कि लोग ख़ुद से बताते कि तुम अच्छा और नया कर रहे हो. हम नहीं जानते थे कि क्या नया हुआ. छपते ही प्रचारक संस्थान के बेरी साहब ने कहा कि इसे हम छापेंगे और उन्होंने छापा. हम अचम्भित. रचना के लिए समर्पित हो जाने की कहीं ज़्यादा अच्छी स्थिति. बस फिर हम चालू हो गए. हम पर कोई और विकल्प भी तो नहीं था.
इतना कुछ लिखा है आपने. क्या आप बताएंगे कि किस रचना को लिखने के बाद सर्वाधिक सुख जिया आपने?
निश्चित रूप से ‘राजा निरबंसिया’. मैं भूल नहीं पाता उस सुख को. श्रीपत राय जैसे सम्पादक. तब तक उनसे मेरी मुलाकात नहीं हुई थी. इलाहाबाद को साहित्यिक संस्कृति की देन थी यह कि बाद में रचनात्मकता का एक सिलसिला ही चल पड़ा.
हम लोग फ़िल्म और टीवी लेखन के बारे में बात कर रहे थे. कमलेश्वर जी देर तक अपने अनुभवों-धारणाओं के बारे में बताते रहे थे- ‘नया समान्तर आन्दोलन शुरू हुआ था तब. मणिकौल, बासु आदि ने साहित्य की तरफ़ रुख़ किया तो हम लोगों ने हिन्दी की अच्छी रचनाओं की स्क्रिप्ट्स का एक बैंक बनाया था. बंगाल, केरल में जो एक परम्परा थी, उसी की तरह हम चाहते थे कि साहित्य से हिन्दी सिनेमा जुड़े. दूरदर्शन का मेरा अनुभव इसमें काम आया. वहाँ मेरी पहली नौकरी स्क्रिप्टराइटर की ही थी. तभी यह चेतना मिली कि यह कला का ऐसा फ़ॉर्म है जो एकान्तिक नहीं है, सामूहिक है. इसमें साथ बैठने वाले सभी लोग कंट्रीब्यूट करते थे. जैसे नाटकों में होता है. हालाँकि मूल रूप से लिखता एक ही लेखक था. तब तीन-चार फ़िल्में लिखों. तभी कहानी का भी समान्तर मूवमेंट चल रहा था. आम आदमी या सामान्यजन शब्द जो आज इतना ‘राइज’ हो गया है, वहीं से आया. वह भी एक तरह से दलित आन्दोलन था.
देखिए, आधारभूत चीज़ साहित्य ही है. यदि समाचार अलग कर दें तो टीवी की शुरुआत भी साहित्य से हुई. उसके सांस्कृतिक कार्यक्रम की शुरुआत प्रसिद्ध मराठी नाटक ‘चाँद चकोरी’ से हुई. तब पी.एल. देशपांडे इंचार्ज थे. कह सकते हैं कि दूरदर्शन का बपतिस्मा साहित्य में हुआ. वहीं मैंने ‘पत्रिका’ कार्यक्रम शुरू किया, जिसका विकास आज भी देखा जा सकता है. पहला कार्यक्रम वात्स्यायन, मोहन राकेश और पत्रकार इन्दर मल्होत्रा को लेकर बनाया गया था. यहां से मुझ पर कार्यक्रम पेश करने की ज़िम्मेदारी आती चली गई.
कह संकते हैं कि यहां कला-रूपों का बड़ा भारी सांस्कृतिक समन्वय हुआ. तकनीक के स्तर पर टीवी और फ़िल्म के लेखन में बहुत फ़र्क़ नहीं है. फ़र्क़ यह है कि टीवी में कमेंट्री काम आती है जबकि फ़िल्म में नहीं. टीवी में धारावाहिकों को लेकर आपके पास स्पेस होता है जबकि फ़िल्मा ढाई घंटे में पूरी होनी है. उसके लिए आपको काफी कुछ काटना, छाँटना, तराशना पड़ता है. जहाँ तक लेखन की तकनीक का सवाल है, दोनों एक हैं. फ़िल्म के लिए बहुत सतर्क रहना होता है कि कथा सूत्र टूटने न पाए. दर्शक को बाँधे रखने के लिए कुछ न कुछ ऐसा भी हो जो उसे ऊबने न दे. फ़िल्म की स्क्रिप्ट में आप ज्यादा क्रूर होते हैं अपने लिखे को काटने के समय. जी, मैंने हर रचना उतने ही ईमान से लिखी है. वह चाहे कहानी या उपन्यास हो अथवा धारावाहिक या फ़िल्म हो.
(जारी)
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