फ़ोटोजर्नलिस्ट के लिए डिज़िटल में मौक़े ज़्यादाः प्रशांत पंजियार

  • 10:05 am
  • 19 August 2023

प्रशांत पंजियार ने 1984 में पेट्रिअट् अख़बार में फ़ोटोजर्नलिस्ट के तौर पर अपना कॅरिअर शुरू किया. बाद में दस साल तक इंडिया टुडे और फिर सात साल तक आउटलुक में फ़ोटोग्राफ़र-एडिटर रहे. तस्वीरों में अपनी कहन के हवाले से उन्होंने अलग पहचान बनाई. सन् 2001 के बाद से वह स्वतंत्र फ़ोटोग्राफ़र और क्यूरेटर के तौर पर काम कर रहे हैं, और उनकी तस्वीरें न्यूयॉर्क टाइम्स, टाइम और फ़ोकस समेत तमाम राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.

वह दिल्ली फ़ोटो फ़ेस्टिवल के सह-संस्थापक हैं, और नज़र फ़ाउण्डेशन और गोवा के सेरेंडिपिटी आर्ट्स फ़ेस्टिवल की क्यूरेटोरियल टीम के प्रमुख रहे हैं, साथ ही वर्ल्ड प्रेस फ़ोटो अवार्ड्स, चाइना इंटरनेशनल प्रेस फ़ोटो कॉम्पिटिशन और इंडियन एक्सप्रेस प्रेस फ़ोटो अवार्ड्स की जूरी में भी शामिल रहे हैं. अब तक उनकी नौ किताबें छपी हैं – द सर्वाइवर्स-कम्पूचिया (1984), मलखान-द स्टोरी ऑफ़ अ बैंडिट किंग (1984), द रानाज़ ऑफ़ नेपाल (2002), लॉक्ड होम्स.एम्प्टी स्कूल्स (2007), किंग, कॉमनर, सिटिज़न (2007), एड्स सूत्र (2008), पैन इंडिया –अ शेयर्ड हैबिटेट (2009), शाइन ऑन (2015) और दैट विच इज़ अनसीन (2021). उनकी तस्वीरों की कई एकल प्रदर्शनियाँ लगती रही हैं और दुनिया भर में हुए तमाम ग्रुप शो में भी उनकी तस्वीरें शामिल रही हैं.

फ़ोटोग्राफ़ी और पत्रकारिता की दुनिया के उनके अनुभवों, पिछले चार दशकों में आए बदलावों और मौजूदा परिदृश्य पर बातचीत करते हुए उन्होंने बेलाग ढंग से अपना नज़रिया साझा किया है.

हाल के वर्षों में प्रिंट मीडिया में फ़ोटो सेक्शन और फ़ोटोग्राफ़र की ज़रूरत ख़त्म मान ली गई है, बड़े संस्थानों में भी नई भर्तियाँ कमोबेश बंद हैं. ऐसे में तस्वीरों और तस्वीरें खींचने वालों के भविष्य को किस तरह देखते हैं?

यह बात एकदम सही है कि प्रिंट मीडिया में फ़ोटोग्राफ़ी की जगह लगातार सिकुड़ती जा रही है, इसी अनुपात में काम मिलने और काम करने के मौक़े भी कम हुए हैं. इसकी वजह समझना कोई बहुत मुश्किल नहीं है. टेक्नोलॉजी का दबदबा बढ़ता है तो हुनरमंदों की क़द्र होने लगती है. इंटरनेट के प्रसार के बाद ख़बरों की दुनिया भी इसी तरह बदली है, रियल टाइम में ख़बरें देने का दबाव लगातार बढ़ रहा है और ख़बरों की दुनिया में आम लोगों की भागीदारी भी तेज़ी से बढ़ी है. ऐसे में जब मीडिया संस्थानों को कुछ ख़र्च किए बिना ही इफ़रात ख़बरें और तस्वीरें सहज ही उपलब्ध हैं तो उन्हीं तस्वीरों के लिए फ़ोटोग्राफ़र भला वे क्यों रखना चाहेंगे? और आप फ़ोटोग्राफ़र की बात कर रहे हैं, ग़ौर करें तो जर्नलिस्ट की ज़रूरत भी कम होती जा रही है.

आप देखिए कि दुनिया के बहुतेरे नामचीन मीडिया संस्थान भी स्टाफ़ में ज़्यादा फ़ोटोजर्नलिस्ट नहीं रखते. उनकी ज़रूरत फ़्रीलांस फ़ोटोग्राफ़र्स से पूरी हो जाती है. और वहाँ यह रिवायत वर्षों से चली आ रही हैं. हमारे यहाँ तो यह नौबत अभी आई है. मेरी समझ में जो पहले से इस क्षेत्र में हैं, या जो इस दुनिया में दाख़िल होने का इरादा रखते हैं, उन्हें इस सच्चाई को स्वीकार करते हुए, नई तरह की चुनौतियों के लिए ख़ुद को तैयार कर लेना चाहिए. यह बात हम जितनी जल्दी समझ सकेंगे, उतना ही अच्छा रहेगा.

जिन देशों या संस्थानों की बात आपने अभी कही, वहाँ फ़्रीलांस फ़ोटोग्राफ़र को इतना मेहनताना तो मिल जाता है कि वे ढंग से ज़िंदगी बसर कर सकें, उनके पेशे को अब भी सम्मान की नज़र से ही देखा जाता है.

बेशक, ऐसा है. और वे परिस्थितियाँ एकतरफ़ा नहीं हैं. अपने यहाँ जो सूरते-हाल है, उसमें कुछ बातें तो बिल्कुल साफ़ हैं – काम करने की पहले जैसी आज़ादी नहीं रह गई है, प्रिंट में जगह कम हो गई है और असहमतियों की गुंजाइश बिल्कुल ख़त्म, ख़ालिस ख़बरें जुटाने का काम कहीं ज़्यादा ख़र्चीला हो गया है. प्रिंट मीडिया का प्रसार बुरी तरह प्रभावित हुआ है. इसके चलते अमेरिका में ही कितने अख़बार और पत्रिकाएं बंद भी हुईं. तमाम मीडिया संस्थानों के डिज़िटल प्लेटफ़ार्म बन गए हैं, और एक तरह से देखा जाए तो डिज़िटल होने की वजह से उनकी पहुँच दुनिया भर में बनी. धीरे-धीरे यह प्रक्रिया हमारे यहाँ भी चलन में तो आ गई मगर इसे अब भी वैकल्पिक मीडिया के तौर पर लिया जाता है, फिर बहुतेरे डिज़िटल प्लेटफ़ार्म का रेवेन्यू मॉडल अभी ढंग से बन नहीं हो पाया है और यह चिंताजनक बात है. अगर ख़ुद उनकी ही आमदनी नहीं होगी तो वे फ़ोटोग्राफ़र या जर्नलिस्ट को ही कहाँ से देंगे. और जब वे पैसा ही नहीं देंगे तो पेशेवर गुणवत्ता भला कैसे आ पाएगी. किसी प्रिंट माध्यम में तस्वीर देने पर फ़ोटोग्राफ़र को जितने पैसे मिलते हैं, वायर सर्विस वाले उससे कहीं ज़्यादा देते हैं.

मेरा मानना है कि मौजूदा दौर में डिज़िटल माध्यम बढ़ने के साथ ही फ़ोटोजर्नलिस्ट के लिए काम के मौक़े कहीं ज़्यादा हैं. प्रिंट की दुनिया में तस्वीरों के ढंग से इस्तेमाल नहीं होने के लिए जगह की क़िल्लत का तर्क पुराना है, पर डिज़िटल में तो यह संकट भी नहीं है. सारा मसला आमदनी और ख़र्च का है. न्यूयॉर्क टाइम्स या वॉशिंगटन पोस्ट अपने डिज़िटल संस्करण के लिए हिंदुस्तान के फ़ोटोग्राफ़र्स को जितने मौक़े आज देते हैं, उतने मौक़े पहले कभी नहीं थे. और चूँकि वे मुफ़्त में नहीं पढ़े जाते, लोग उनका सब्सक्रिप्शन ख़रीदते हैं तो मौक़े के साथ वे फ़ोटोग्राफ़र को उनके काम के मुताबिक पैसे भी देते हैं. अपने यहाँ ऐसा होना अभी बाक़ी है. इसके अलावा कोई दूसरी सूरत मुझे तो नज़र नहीं आती.

आप वैकल्पिक मीडिया के बारे में कह रहे थे. हमारे यहाँ सोशल मीडिया में तस्वीरों की भरमार है, और लोग उन्हें देखते भी हैं मगर जिस पेशेवराना गुणवत्ता की बात आप कर रहे हैं, उसकी जगह कहाँ है?

सोशल मीडिया तो कम से कम उसकी सही जगह नहीं है. अच्छी तस्वीरें बनाने के लिए संसाधनों की दरकार होती है, समय, श्रम और पूंजी लगानी पड़ती है और यही वे सारे तत्व हैं, जो किसी संस्थान में काम करते हुए पेशेवर फ़ोटोग्राफ़र को सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं. 80 या 90 के दशक में जब हम लोगों ने काम करना शुरू किया था, तब देश भर में अगर कहीं कोई बड़ी घटना होती तो उसे कवर करने के लिए फ़ोटोग्राफ़र और रिपोर्टर वहाँ भेजे जाते थे. हम लोग ख़ुशक़िस्मत थे कि हमें बढ़िया समय में काम करने को मिला. इंडिया टुडे और आउटलुक के लिए काम करते हुए देश के तमाम हिस्सों में जाने के साथ ही मुझे चीन, पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान समेत कई और मुल्कों में जाकर काम करने को मिला. हमारी यही कोशिश रहती थी कि बढ़िया तस्वीरें बनाकर लौटें ताकि उस वाक़ये की हक़ीक़त और भावनाएं तस्वीर देखने वालों पर नुमायां हो सकें, अपनी छाप छोड़ सकें. हम लोगों से मिलते थे, उन्हें क़रीब से जानने, उनके दुःख, सुख, समय, समाज, संघर्षों को समझने और महसूस करने की कोशिश करते थे, तस्वीरों में कशिश पैदा करने के लिए महसूस करने का कोई विकल्प नहीं, कोई शॉर्टकट भी नहीं है. अच्छी तस्वीरों की बदौलत हमने पेशेवर सफलता और शोहरत भर हासिल नहीं की, बल्कि समझ-विचार के स्तर पर ख़ुद हम लोग समृद्ध भी हुए. नई सदी में ऐसा कम ही देखने को मिलता है. ऐसा नहीं है कि उस दौर के मीडिया संस्थान ख़र्च करने के मामले में बहुत उदार थे मगर प्रामाणिकता उनके लिए बड़ी कसौटी हुआ करती थी. अपने स्टाफ़ के लोगों को मौक़े पर कवरेज के लिए भेजने के पीछे यही मंशा काम करती थी.

जहाँ तक सोशल मीडिया का सवाल है, यह थोड़ी बहुत मौज-मस्ती की जगह है, गंभीर चीज़ों की वहाँ गुंज़ाइश नहीं है, और न ही ढंग के पढ़ने-सोचने वाले लोग उसे गंभीरता से लेते ही हैं. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की वजह से ख़बरों की दुनिया की विश्वसनीयता का जितना नुक़सान हुआ, सोशल मीडिया ने उससे कहीं ज़्यादा नुक़सान पहुँचाया है. इसकी भरपाई के लिए पुराने दौर की गंभीरता पर अमल की ज़रूरत लगती है, ख़बरों की वेबसाइट्स आज की दुनिया की ज़रूरत हैं मगर उससे कहीं ज़्यादा प्रामाणिक और विश्वसनीय ख़बरों और विज़ुअल्स की ज़रूरत है. स्क्रॉल या वायर जैसे संस्थान अपने सीमित संसाधनों से सामर्थ्य भर करते दिखाई देते हैं मगर दुनिया के झूठ से मुक़ाबले के लिए ऐसे और ज़्यादा सकारात्मक संस्थानों की दरकार है.

कुछ अर्सा पहले ही आपकी किताब ‘दैट विच इज़ अनसीन’ आई है. इससे पहले आपकी कई किताबें आ चुकी हैं और इस दिशा में आप लगातार सक्रिय भी रहते हैं. किताबों के ज़रिये गंभीर और महत्वपूर्ण तस्वीरों को साझा करना किस हद तक कारगर हो सकता है? .

इसमें कोई शक नहीं कि किताबें बढ़िया माध्यम हैं, मगर इसमें दुश्वारियाँ बहुत हैं, हमेशा से रही हैं. तीस-चालीस साल पहले कॉफ़ी टेबल बुक चलन में थीं, काफ़ी बड़े साइज़ की वे किताबें ख़ूब भव्य होती थीं. लोग उन्हें पसंद करते थे इसलिए वे ख़ूब बिकती भी थीं. उन दिनों हर फ़ोटोग्राफ़र की हसरत होती थी कि कम से कम एक कॉफ़ी टेबल बुक उसकी भी छप जाए. यहाँ मैं उन किताबों के विषय के बारे में बात नहीं कर रहा हूँ. मगर अब फ़ॉर्मेट बदल गया है. नया ज़माना फ़ोटो बुक का है. इनमें पहले जैसे भव्यता भले नहीं रह गई है, तस्वीरें तो हैं ही न. देखा जाए तो ये किताबें एक तरह से आपकी तस्वीरों की स्थायी नुमाइश बन जाती हैं और सुधि-गुणी जनों तक पहुँच भी सकती हैं. यानी आप बेहिसाब लोगों (जैसा कि सोशल मीडिया के बारे में आम धारणा है) तक भले ही न पहुँचें मगर क़द्रदानों के बीच ज़रूर पहुँच सकते हैं. आप रघु राय, रघुबीर सिंह, दयानिता सिंह या स्टीव मकॅरी की किताबों को दुनिया भर में मिली पहचान को उदाहरण के तौर पर देख सकते हैं.

ताजमहल पर रघु राय की कॉफ़ी टेबिल बुक याद कीजिए, जिसके टेक्स्ट का 19 ज़बानों में तजुर्मा हुआ और वह दुनिया भर में बिकी. पर, अगर ज़्यादा प्रतियाँ नहीं छपेंगी तो पब्लिशर को उसमें मुनाफ़े की बहुत उम्मीद नहीं रह जाती. इसका नतीजा यह है कि लोगों को ख़ुद ही अपनी किताबें छापनी पड़ती हैं और यह सब इतना ख़र्चीला है कि आप किसी तरह तीन सौ या पाँच सौ प्रतियों छाप भी लें तो उनके ख़रीदने वाले कहाँ से लाएंगे! और इतनी भी बिक जाएं तो शायद छपाई की लागत वसूल हो जाए.

कुछ लोग अलबत्ता इसका अपवाद भी साबित हुए हैं और सीमित संस्करण वाली उनकी ख़ुद छापी हुई किताबों को अप्रत्याशित सफलता मिली. सोहराब हुरा की ‘लाइफ़ इज़ एल्सव्हेयर’ या थोड़ा पीछे जाएं तो स्पेनिश फ़ोटोग्राफ़र क्रिस्टीना डि मिडेल की किताब ‘एफ़्रोनॉट्स’ को इसका बढ़िया उदाहरण मान सकते हैं. दस साल पहले उन्होंने यह किताब सेल्फ़-पब्लिश की थी और उसकी क़ीमत 35 डॉलर रखी थी. फ़ोटो प्रिंट की तरह ही उस किताब की नंबर वाली दस्तख़त की हुई प्रतियाँ दूसरी बार या तीसरी बार भी बिकती हैं और उनके दाम सैकड़ों डॉलर में हैं.

एक और नई बात यह हुई है कि नैरेटिव भी अब ज़रूरी और ख़ासा महत्वपूर्ण हो गया है. फ़ोटोग्राफ़र होने के नाते तस्वीरें और नैरेटिव ही आपके बस में है, पर छापने वाले नहीं मिलते. इनका अर्थशास्त्र बहुत जटिल है, और इस वजह से ये किताबें अब उतनी बड़ी तादाद में न तो छपती और न ही बिकती हैं.

फ़ोटोग्राफ़र के तौर पर अपने इतने लंबे कॅरिअर की सबसे बड़ी उपलब्धि आप क्या मानते हैं?

किसी ने मुझसे पूछा था कि फ़ोटोग्राफ़ी नहीं करता तो मैं और क्या काम करता. इस सवाल पर मैंने जितना सोचा, हमेशा एक ही जवाब मिला कि मुझे कुछ और नहीं, फ़ोटोग्राफ़र ही बनना था. जर्नलिज़्म ने मुझे जो कुछ दिया, किसी और पेशे में मिलना संभव ही नहीं था. इस पेशे में मैं कितने अच्छे वक़्त में रहा, कितने ढेर सारे तजुर्बे हुए, पेशे के स्तर पर ही नहीं, व्यक्तिगत स्तर पर, बौद्धिक स्तर पर समृद्ध होने का मौक़ा मिला, बेहिसाब शोहरत मिली. 80-90 के दिनों में लोगों को कोई तस्वीर अगर पसंद आतीं तो वे फ़ोटोग्राफ़र का नाम तक याद रखते थे. सन् 82 में मलखान पर मेरी किताब आई, मगर तस्वीरों की यह सीरीज़ छप जाने के बाद एक बार मैं आंध्र प्रदेश गया था. मैं जहाँ जाता, लोग मेरे नाम से मुझे पहचान जाते थे. कहानियाँ लोगों को याद रह जातीं और हमारे नाम भी. किसी और पेशे में ऐसा मुमकिन है क्या!!

जब हम लोग काम कर रहे होते तो उस समय इस बात का ज़रा भी अहसास न होता कि अपनी दुनिया को, लोगों के संघर्षों को इतने क़रीब से, इतनी गहराई से देखने-जानने का ख़ुद हम पर क्या असर पड़ रहा था. मगर यह थोड़ा बाद में जाना कि छोटे-से समय में बहुत बड़ी ज़िंदगी जी है मैंने.

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