ये दाग़-दाग़ उजाला का असर तो दोनों तरफ़ के दिलों परः सलीमा हाशमी

  • 12:39 pm
  • 10 November 2023

(गुफ़्तगूः सरहदों के आर-पार ऐसी किताब है, कथाकार प्रेम कुमार ने जिसमें भारत और पाकिस्तान के अदीबों से अपने साक्षात्कार संजोये हैं. अनौपचारिक साक्षात्कार की उनकी शैली बातचीत से आगे शख़्सियत और उस दौरान की मनःस्थिति का ख़ाका भी है. इनमें से कुछ साक्षात्कार हम पहले छाप भी चुके हैं. इसी श्रृंखला में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की बड़ी बेटी सलीमा हाशमी से यह लंबी बातचीत. सलीमा जी चित्रकार हैं और शिक्षक भी रही हैं. बातचीत लंबी है, इसलिए हम इसे तीन कड़ियों में छाप रहे हैं, बाद की कड़ियों के लिंक आपको नीचे मिल जाएंगे. -सं)

चार-छह दिन पहले तक उनसे मिलने जैसी न कोई चाहत थी, न उम्मीद. सुन रखा था कि केवल एक दिन को आ रही हैं—और वो भी बेहद टाइट प्रोग्राम लेकर! 20 जनवरी, 2011 को फ़ैज़ पर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हो रहे सेमिनार के उद्घाटन सत्र के बाद पता लगा कि उन्हें आज नहीं कल वापस जाना है. अंदर कुछ कुलबुलाया था जैसे. सेमिनार के दूसरे सत्र में जिसने भी शोध-पत्र पढ़ा, शुरुआत सलीमा जी के बोलने की तारीफ़ के साथ ही की. यहां तक कि सबसे अच्छी तक़रीर उन्हीं की थी—उनके बोलने में क़ुर्रतुलऐन हैदर का अंदाज़ था. ज़रा पहले की बच्ची-सी मिलने की इच्छा एकदम से जैसे बिंदास जवान हो गई.

सेमिनार के संयोजक प्रो.ए.आर.फ़तीही से जानकारी ली तो उन्होंने सलीमा जी की थकान और व्यस्तता से अवगत कराया— ‘सुबह पांच बजे चली हैं दिल्ली से. बेहद थकी हैं. इतनी ख़राब सड़क! आते ही उद्घाटन समारोह में शामिल हुईं. काफ़ी लंबी इमोशनल तक़रीर की! अब शायद आराम कर रही होंगी. और हां—शाम को पांच बजे मुशायरे में भी तो आना है उन्हें.’ प्रो.फ़तीही को सुना— पर मन था कि उसने उनकी बात मानने से जैसे मना ही कर दिया. कुछ तो धुन सवार हुई ही थी कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस नंबर तीन जा पहुंचा.

संयोग था कि मैंने जिस कर्मचारी से उनके कमरे का नंबर जानना चाहा था, वो चाय की ट्रे हाथ में थामे उन्हीं की चाय पहुंचाने जा रहा था. उसने सलीमा जी वाले कमरे की घंटी बजाई तो मैं सहमा-सकुचाया-सा ठीक उसके पीछे खड़ा था. दरवाज़े ने खुलने में समय लिया. जरा-सा खुले उस दरवाज़े की जाली के पार दूधिया-सी उस रोशनी में बचती-छिपाती-सी जो नारी-आकृति पलांश में दिख सकी—मान लिया कि यही सलीमा जी हैं. मिलने का निवेदन किए जाने के क्षणों में दिखा—दरम्याना क़द! ग्रे-सा ट्रैक सूट! गोरी, स्वस्थ, फुर्तीली सी काया! आंखों पर वर्गाकार-सा बड़े, चमकीले फ़्रेम वाला चश्मा! सुनहरी-सी मेंहदी के रंग के किसी युवक जैसे कटे-कढ़े बाल. कमरे में पहुंचकर लगा कि किसी अपरिचित के अकल्पित स्थिति में आ उपस्थित होने वाले क्षणों जैसी सकपहाहट और हिचक वहां भी थी. इस-उस सोफ़े की सीट से कभी यह उठाना, कभी वह रखना. सोफ़े पर रखे-बिखरे सामान को हटा-संभालकर शायद बैठने को ठीक-सी जगह बनाई जा रही है जल्दी-जल्दी. उधर डबल बेड-उस पर आधी करवट लिए लेटी-सी वो रज़ाई. जैसे अभी-अभी पास से उठकर गए शख़्स के इंतज़ार में है वो! एक कोने में ठंड के बढ़ते जाने पर लाल-पीला-सा होता रूम हीटर. फ़र्श पर बिछे लाल क़ालीन पर खुला रखा काला बैग. सोफ़े की पुश्त पर टिका-लेटा सा पर्स! मेज़ पर बर्तन, फ़ाइलें-कुछ काग़ज़! हर तरफ कलाकारों-चिंतकों जैसा एक ख़ास क़िस्म का खुला-बिखरापन! जैसे कमरे में टिके शख़्स को कुछ भी सहेजने-संभालने की फ़िलहाल न तो कोई फ़िक्र है, न फ़ुर्सत!

पतली-लंबी उंगलियां चम्मच को ब्रुश की मानिंद पकड़े-थामे उसे ऐसे घुमाए जा रही हैं जैसे उन्हें चाय में चीनी न घोलनी हो, बल्कि किसी वृत्त की परिधि को गहरे से गहरा करते जाना हो. अबोला बेहिसाब चुभने लगा था तब— ‘ लोग कह रहे थे कि आज के आपके बोलने ने क़ुर्रतुलऐन हैदर की याद दिला दी…!’ चम्मच थमा. उनकी निगाह क़दम ब क़दम सीढ़ियां चढ़ती-सी मेरी आंखों तक आई. चश्मे के पार साफ़ दिख रहा था कि उनकी आंखों की चमक में इज़ाफ़ा हुआ है और आकार में भी. ख़ुद की बांहों में सिमटता-दबता-सा उनका जिस्म बता रहा है कि वो संकोच भी जी रही हैं और ख़ुशी भी— ‘यह सिर्फ़ लोगों की मुहब्बत है—वरना—कहां ऐनी आपा और कहां मैं.’ ऐसे उन पलों में मेरी मंशा ने अचक-पचक ख़ुद को उनके सामने पेश कर दिया. ध्यान से सुना. दौड़ती-सी एक नज़र मेरी ओर आई. न ना, न हां! दूर किसी एकांत में जाकर मुश्किल-सा कुछ तय किए जाने के समय की-सी मुद्रा! ज़रूरी किसी किताब कतरब्योंत के इरादे से जैसे समय के छोटे एक हिस्से को पूरा खोल-फैलाकर उसकी पैमाइश की जा रही है— ‘शाम को मुशायरा…कल सुबह नौ बजे सर सैय्यद की मज़ार पर जाने की बात है. सुबह को पढ़े जाने वाले दो पर्चों को मैं भी सुनना चाहती हूं और अली भी. और एक बजे से पहले हर हाल में हमें अलीगढ़ छोड़ भी देना है!’ क्या यह किसी इनकार से पहले की कोई सभ्य-सी भूमिका है? पर नहीं, मेरा काँटेक्ट नंबर पूछा तो लगा कि अब न तो नहीं ही होनी है! अपना मोबाइल नंबर लिखा रही हैं मुझे— ‘ठीक है—अली से बात करके कल बारह के आसपास का देखते हैं कुछ. ऐसा कुछ करें कि सेमिनार से थोड़ा पहले चले आएं—और दिल्ली जाने में थोड़ी देर कर दें. ठीक है न?’ प्रसन्न चकित-सा मैं सलीमा जी के व्यवहार में की सादगी, लियाकत, तहज़ीब और उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति के बारे में सोचे जा रहा था. कमाल है कि एक क्षण को भी नहीं लगा कि मैं उनसे पहली बार मिल रहा हूं.

देह सेंकती-सी, चमकती धूप वाली वह एक सुहानी दोपहर थी! गेस्ट हाउस का लंबा, ख़ूबसूरत लॉन—जैसे उसकी लंबाई का एक हरा ईरानी क़ालीन बिछा गया हो कोई वहां आकर. बेंत की तीन कुर्सियां और उनके बीच रखी शीशेदार एक मेज़. कुर्सियों पर बैठे हम तीनों—सलीमा हाशमी, उनकी छोटी बहन मुनीज़ा के पुत्र अली हाशमी और मैं! यहां—वहां—सब तरफ फूल, पत्तियां, पेड़-पौधे! जैसे चांदनी-सी उस धूप में से अभी-अभी नहाकर बाहर निकले बच्चों की तरह बेलिबास खड़े हैं—खिल-खिल, मचल-विहंस रहे हैं. लॉन की बाउंड्री के पार यूनिवर्सिटी की मुख्य सड़क के दोनों ओर मुस्तैद सैनिकों की तरह सीना ताने शान से खड़े बुलंद क़द दरख़्त! दाईं ओर ज़रा फ़ासले पर किसी कलाकृति-सा आलीशान विश्वविद्यालय का प्रवेश-द्वार-बाब-ए-सैयद. जैसे क़िले सरीखे बादशाही किसी महल की ड्योढ़ी हो वो. समय की तंगी ने हड़बड़-गड़बड़, वजनी-मुश्किल-सा बनाया हुआ था हमारी बातचीत से पहले के उस हिस्से को. कुछ कहने को सोचा ही था कि उनका मोबाइल बज उठा— ‘जी ठीक है-हम एक बजे निकल लेंगे.’ बातों के उत्साह का दम ही घुट चला था जैसे. मेरी हताशा को जान लिया था उन्होंने— ‘जी फ़ारूक़ी साहब आने की पूछ रहे थे. मीटिंग तय है न उनसे. दरअसल उन्हें शाम में जयपुर के लिए निकलना है. हमारे इंडिया आने के पीछे यह भी था कि उन्हें पाकिस्तान आने के लिए इनवाइट करना था.’ बेबस मेरी झुंझलाहट जैसे बिलबिलाई— ‘अगर मुझे यह पता चल पाता कि आप कितनी देर…’ खिलखिलाती-सी उस दिन की उस पहली हंसी ने आ जमे उस तनाव को हल्का करने की कोशिश की थी— ‘अभी लगभग एक घंटा तो है ही हमारे पास. ठीक है-शुरू करते हैं…’

बाएं हाथ की हथेली में दबे मोबाइल से उंगलियां छुआ-छुई जैसा खेल खेल रही थीं. चंचल, अनमना-सा मन सवाल की तलाश के क्रम में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के बारे में बंटवारे से जुड़ी कुछ सुनी-पढ़ी बातों को उलटे-पलटे जा रहा था—वे पाकिस्तान में रहे पर हिंदुस्तान के बारे में कभी कटु-अनुदार नहीं हो पाए. बांग्लादेश बना तो उनकी कुछ लिखी पंक्तियों का वहां की सरकार ने अपने पक्ष में उपयोग किया और ‘धर्मयुग’ में धर्मवीर भारती ने फ़ैज़ की भावना के विपरीत एक विवाद खड़ा करने का काम उनसे लिया. तब यकायक और कुछ न सूझा तो मैंने सलीमा जी से बंटवारे के दिनों की उनकी स्मृतियों, उनके अनुभवों को अपने साथ बांटने का अनुरोध किया.

ग़ौर से सुना. निगाहें कहीं दूर आसमान में जा टिकी हैं. सीधे हाथ की उंगलियां मोबाइल को जैसे हथेली की परिधि में नचाए जा रही हैं— ‘जहां तक उनके वहां बसने की बात है तो फरवरी, 1947 में वो लाहौर आ चुके थे. ‘पाकिस्तान टाइम्स’ और ‘इमरोज़’ की शुरुआत कर चुके थे. यानी कि जब 1946 में उन्होंने फ़ौज़ छोड़ी तो लाहौर आने का तय कर लिया था. वैसे भी कम्युनिस्ट पार्टी ने तय किया हुआ था कि सज्जाद ज़हीर पाकिस्तान जाएंगे और वहां तंज़ीम को मज़बूत करेंगे. यूं भी फ़ैज़ का ताल्लुक चूंकि लाहौर, सियालकोट, पंजाब से रहा हो ये वाज़े हो गया था कि पाकिस्तान बनेगा तो फ़ैज़ का पाकिस्तान में रहना लाज़िमी था.

लाज़िमी?
जी, इसलिए कि वो उनकी ज़मीन है—और अब ये अख़बार शुरू किए तो उनका नज़रिया था कि पाकिस्तान की एक जम्हूरियत होगी. मुसलमान अक्सीरियत तो हैं—पर नज़रियात सेक्यूलर होंगे. अगर आप ‘पाकिस्तान टाइम्स’ में सन् सैंतालीस के उनके एडिटोरियल्स पढ़ें तो ये नज़रिया वाज़े नज़र आता है. तो उनका पाकिस्तान में रहना—उसे अपनाना अजीब बात नहीं है. लेकिन हां, उन्होंने अपनी शख़्सियत को सिर्फ़ पाकिस्तान तक महदूद नहीं रखा—उसमें पूरा एशिया है. उन्होंने पूरे खित्ते को एड्रेस किया है. उनको बहुत दुःख था कि जिस तरह का ख़ूनख़राबा हुआ या जो दूरियां पैदा हुईं—उससे! मेरे ख़्याल में वो एक ऐसा दुःख था उनका—यूं कहें कि सारी उमर का दुःख था उनका. अगर आख़िर तक उनकी कोई ख़्वाहिश रही तो वो यही कि किसी न किसी तरह से दोनों मुल्कों में समझौता हो— ताकि लोगों का आपस में मेलजोल हो—उसमें कोई ख़लल न पड़े!

बंटवारे के दिनों की अपनी या फ़ैज़ साहब से जुड़ी तब की कोई ख़ास याद?
अंगूठियों को निहारती-सी जैसे कुछ याद कर रही हैं चुप बैठी. चेहरे पर आहिस्ता-आहिस्ता एक चमक फैलती-बढ़ती सी दिखी—मैं छोटी सी थी तब. पर याद है कि सैंतालीस के चौदह अगस्त को हमारा खानदान श्रीनगर में था. जी—मैं, आपा, ख़ाला, ख़ालू! हमारे नाना इंग्लिस्तान से आए हुए थे कि अपनी दोनों बेटियों से मुलाक़ात करेंगे. हम श्रीनगर में मुक़ीम थे और अब्बा लाहौर में थे. ‘पाकिस्तान टाइम्स’ निकाल रहे थे. वो वक़्त ऐसा था कि वो लाहौर नहीं छोड़ सकते थे. पहले उनका ख़त आया—फिर टेलीग्राम भी आया कि हालात ऐसे हैं कि तुम श्रीनगर से चली आओ! तो मेरी अम्मा…!’ जैसे नन्हे-से किसी बच्चे ने कहा हो-अम्माss! उच्चारण में बचपन की अनुगूंज! भवों में एक कंप-सा. नींद से बोझिल मुंदने को आकुल-से पलक! चेहरे पर थोड़ा-सा भय और अधिक सी वितृष्णा— ‘तो मेरी अम्मा हम दोनों को—जी, मुझे और मेरी छोटी बहन को—बस में बिठाकर वापस. तब छोटी बहन दस महीने की थी और मैं कोई साढ़े चार बरस की. जब हम मरी पहुंचे तो फ़सादात शुरू हो चुके थे. मरी में बहुत ख़ूरेंज़ी हुई. ज्यादातर सिखों की कम्युनिटी को निशाना बनाया गया था. मुझे याद है—हां, याद है…’ जैसे रिकॉर्ड पर सुई एक जगह अटक गई हो. वे ही शब्द बार-बार! शून्य में ताकती बैठी कुछ पढ़ती-सी, बताती-सी— ‘हम मरी में रुके कुछ रोज़! अब्बा का पैग़ाम आया था कि अभी मत आओ. लाहौर में फ़साद बहुत हैं.’ काफ़ी देर तक आवाज़ नदारद! उदासी छंटना शुरू हुई है कुछ-कुछ— ‘हमारी अम्मा ने औरतों को तैयार किया. मीटिंग की. मरी में एक जुलूस निकाला सौहार्द के लिए.’ रुककर ख़ूब खुलकर हंस रही हैं अकेली-सी बैठी. मैं तो मैं, अली हाशमी भी विस्फारित नयनों से वैसी उस हंसी की वजह जानने को अधीर-से उनकी ओर देखे जा रहे थे. हंसी के साथ कहा जा रहा है— ‘ये औरतों-बच्चों का जुलूस था. सबने सफ़ेद झंडे उठाए हुए थे.’ कमेंट्री-सी की जा रही है आवेशित से अंदाज में— ‘सबसे आगे मैं थी. वहां पर गधे होते हैं राइडिंग को.’ बहुत उल्लसित इत्मीनान की लंबी-सी हंसी— ‘उस पर बैठी मैं. सफ़ेद झंडा. पीछे अम्मा. गोद में मेरी छोटी बहन. जुलूस में काफ़ी औरतें—अंग्रेज़, जर्मन, मुसलमान¬—वगैरह, वगैरह. मुझे याद है कि पूरे माल रोड पर घूमे हम.’ आवाज़ में ख़ास-सा एक जज़्बा और जोश आ मिला था तत्क्षण— ‘वो मेरा पहला जुलूस था. उसके बाद तो फिर बाक़ायदगी से जुलूसों में हिस्सा लेती रही हूं.’

कुर्सी की दाईं ओर बांह पर टिकी उनकी सीधी कुहनी. उसकी हथेली पर ख़ुद को जमाए उनकी ठोड़ी. जमीन की ओर टकटकी लगाए देखती-सी सलीमा जी. फुसफुसाते-से कहने की उनकी यह शुरुआत— ‘लाहौर पहुंचे. रास्ते में रेलगाड़ी से आए. रेलगाड़ी की छतों पर हज़ारों लोग रिफ़्यूजी… उफ़, बहुत ही ख़ौफ़नाक था वह सब! जी, लाहौर पहुंचे तो वहां कर्फ़्यू था. अब्बा चूंकि अख़बारनवीस थे—तो उनके पास, पास था. हमारे पास तब अपना घर-वर तो कुछ था नहीं. तो उस समय वो मेंबर ऑफ़ पार्लियामेंट थीं—जी, बेगम शाहनवाज़—उनके यहां हम गए.’ लंबी एक खामोशी-और उससे भी तवील और बाआवाज़ गहरी खींचकर ली गई एक सांस ‘—सन् सैंतालीस की ये जो यादें हैं इनमें एक याद तो वो है कि…हमारी अम्मा रिफ़्यूजी कैंप में बहुत काम कर रही थीं तब. काम—यही कि स्टेशन पर जो रेल आती थीं, उनसे आए रिफ़्यूजीज़ को कैंपों में पहुंचाना. उन्हें ज़रूरतों का सामान मुहैया कराना!’ बायां हाथ कुर्सी के बाज़ू पर पैर फैलाए करवट लिए सा लेटा है. ठोड़ी दाईं हथेली पर गढ़ी-सी टिकी है. स्वर में नामालूम-सी चलती हवा में ख़ामोश हिलते पत्ते की तरह का कंपन है— ‘उस रोज़ ग़लती से एक ड्राइवर मुझे साथ ले गया. अम्मा पहले से मौजूद थीं वहां स्टेशन पर जिसमें लाशें ही लाशें थीं. पूरा एक सन्नाटा था…! मेरी अम्मा ने जब देखा कि ड्राइवर मुझे ले आया है तो उस पर ख़ूब बरसीं कि तुम बच्ची को क्यों लाए!’ यह अकारण नहीं था कि उस बीच मुझे ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ और ‘तमस’ याद आ रहे थे. आवाज़ में अब, नन्हीं किसी किरण की-सी रोशनी और गर्माहट आ मिली है जैसे— ‘बाद में मुझे पता लगा कि उन लाशों के नीचे से दो बच्चियों को निकाला गया. वो सही-सलामत थीं. सिर्फ दो-तीन साल की थीं. और फिर बाद में इंडिया में हमारे एंबेसेडर रहे राजा गज़नफ़र अली ने उन बच्चियों को गोद ले लिया था!’ ख़ुश, चहकती-सी आवाज़— ‘एक तरह से वो अलामत बन गए उन बेबस और बेआवाज़ लोगों की.’

बित्ते भर की ख़ामोशी के बाद की वह आवाज़ उदास-उदास और अफ़सोसज़दा थी— ‘वो जो शक्लोहालत थी—उस सबकी क़ीमत तो आम लोगों ने ही अदा की न! मेरे ख़याल में अगर आप मंटो पढ़ें, बेदी या कृश्नचंदर पढ़ें तो फिर आम लोगों की ज़िंदगी का तब जो हस्र हुआ, उसका अंदाज़ा आपको होगा. मैं तब बच्ची थी, पर बहुत बाद में अहसास हुआ कि इस ख़ूंरेज़ी का, क़त्लोग़ारत को कोई स्थान न हो. वो जो बेबस मारे गए, अगर वाकई हमें उनका रंज़ है, ग़म है तो फिर मामला कुछ नहीं है. इंडिया-पाकिस्तान के लोगों को अपनी यह राह अख़्तियार करनी चाहिए. नहीं-नहीं, इसके अलावा कोई चारा नहीं है.’

आज के इस माहौल में आपको ऐसा कुछ होने की उम्मीद है?

कहने से पहले रुककर सोचा है. कहते समय गंभीर हैं, सजग-सी भावुक और सावधान भी— ‘मैं हमेशा उम्मीद करती हूं. जी, इसलिए कि मेरे ख़याल में हर इन्सान में एक जुस्तजू है—अपने बच्चों के लिए और आम आदमी के लिए जीने को सुकून की ज़िंदगी मिले. उसके लिए बेहतरी की सूरत यही है कि अमन हो. जी, क्यों नहीं—इससे बहुत फ़र्क़ पड़ सकता है.

उनकी अमन और सुकून की बातों के बीच मेरे ज़ेहन में सैंतालीस के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में हुए युद्ध, आतंकवाद के नाम पर लड़ी गई लड़ाइयां—उनके कारण इरादतन ताल ठोंककर की गईं बर्बादियां फिरकनी की तरह चक्कर लगाए जा रही थीं—
‘पूरी दुनिया में अमन के नाम पर जो हो रहा है-उसके बावजूद आप ऐसा सोचती हैं?

किसी भाव विशेष के आवेश में कहना शुरू किया था उन्होंने, जैसे— ‘पूरी दुनिया—पर हां, कम से कम इसलिए कि हमें विरसे में जो मिला है—जो हमारी पूरी तारीख़ में मौजूद है और जिसे अहमियत भी ख़ूब मिली है—आप सूफ़ियाना अंदाज़ ले लें या आप कबीर पढ़ें…’ अभी तक मैं उनके हिंदी बोलने के हौसले और कौशल पर ही ताज्जुब में था—कबीर का नाम सुना तो कान चौकन्ने से हुए एकदम— ‘जी, एक तहरीक रही है जिसमें यह मुमकिन है. बिलाशक यह मुमकिन है कि मुख़्तलिफ़ तौर-तरीक़ों, ज़बानों, मजहबों के लोग अपनी ज़िंदगियां नफ़रत की बजाय क़रीबी, अपनेपन और मुहब्बत के साथ सुकून से बसर कर सकें.’ ज़रा-सी उस चुप्पी ने स्वर को मंद-मंद कर दिया था और रफ़्तार में भी कमी ला दी थी— ‘यह ज़बानी कहना मुमकिन है—पर आसान नहीं है. हां, यह ज़रूर है कि आहिस्ता-आहिस्ता क़दम ब क़दम पहले छोटी रंजिशें दूर करें—फिर बड़ी!’ याद नहीं कैसे—पर हां तब फ़ैज़ की नज़्म— ‘ये दाग़-दाग़ उजाला…’ अनायास, अचानक हमारे बीच आ उपस्थित हुई थी. उसके आते ही बातों का रुख़ फिर से विभाजन के दिनों की ओर मुड़ गया था. अब सलीमा जी के बोलने में, मैदान में उतर चुकी नदी जैसी गति, गहराई और विस्तृति आने लगी थी— ‘जी, ये दाग़-दाग़ उजाला तो दोनों तरफ़ पढ़ी गई है. लोगों के दिलों पर असर भी करती है. सोच में भी डालती है. लोगों को सचेत राग़िब भी करती है कि सोचो, तब्सिरा करो, नज़रसानी करो. यहां पर रुके रहने से कोई फ़ायदा नहीं.’ वो अध्यापिक हो रही थीं तब. सुनते-सुनते सोचा कि कितने फ़नकार, फ़ैज़ जितने ख़ुशनसीब होते हैं कि उनकी संतानों ने उन्हें इस तरह इतना पढ़ा हो कि वो उनके बारे में समझा-बता सकें. अब सलीमा जी फ़ैज़ की एक नज़्म नहीं, उनकी शायरी की बात कर रही थीं— ‘और फिर बाक़ी ये है कि जिस तरह से पाकिस्तान की तारीख़ रही है, वहां जो हालात रहे हैं—गाहे-बगाहे फ़ैज़ की शायरी में वो सब मुक़ाम आते हैं.’ (जारी)

कवर | अपने वालिद के साथ सलीमा हाशमी

सम्बंधित

फ़ैज़ मानते थे कि औरतें ही पाकिस्तान का मुस्तक़बिल

फ़ैज़ का लहज़ा दरअसल उनकी तर्बियत की देनः सलीमा हाशमी


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.