फ़ैज़ मानते थे कि औरतें ही पाकिस्तान का मुस्तक़बिल

  • 3:46 pm
  • 10 November 2023

(फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की बड़ी बेटी, शिक्षक और चित्रकार सलीमा हाशमी से कथाकार प्रेम कुमार की लंबी बातचीत का यह दूसरा हिस्सा है. यह इंटरव्यू डॉ. प्रेम कुमार की किताब ‘गुफ़्तगूः सरहदों के आर-पार’ में शामिल है. -सं)

मसलन?
‘मसलन—उनका जो जेल था—1951 में. उस जेल की शायरी में वो मसायल नज़र आते हैं, जो असीरान-ए-वतन के थे. वहां दर्द का पहलू भी है, उम्मीद का पहलू भी है. वलवला भी है, रुमानी शायरी भी है. साथ ही वो अपना ज़ाती दुःख एक तरफ़ करके, ईरान के जो तलबा मारे गए उनके लिए लिखते हैं, अफ्रीका को लिखते हैं—और साथ ही अपनी शायरी की बेहतरी के लिए बहुत मेहनत करते हैं. आप यदि उनके ख़ुतूत पढ़ें तो एक तरफ़ तो वो हमारी अम्मा की दिलज़ोई कर रहे हैं, हमारा सब पूछ रहे हैं, हमारे ख़तों के जवाब दे रहे हैं—लेकिन साथ ही हमारी अम्मा को बता रहे हैं कि वो शेर लिखते हुए किस तरफ लफ़्ज़ों का ‘इंतख़ाब’ करते हैं. कई-कई दिन एक-एक मिसरे पर लगा रहे हैं. फिर जेल में फ़ुर्सत का ज़माना होता है किसी हद तक. वहां उन्होंने फ़्रेंच सीखनी शुरू कर दी. बाग़वानी की. तालीम के निज़ाम पर कुछ सोचा. तो इस बात की उनको पशेमानी नहीं कि उन्होंने उसूलों के लिए जो किया सो किया, उसका ख़ानदान पर क्या असर हुआ—ये ख़तों में नज़र आता है.’

पता नहीं तब वो हंसने के लिए रुकी थीं या रुकने के लिए हंसी थीं. निर्मल-विमल झरने जैसी उस हंसी ने उनकी आंखों में उजली-सी एक चमक भर दी थी और चेहरे को स्वर्णिम-से एक प्रकाश से दमका दिया था—’उनके ख़ुतूत या शायरी आज भी—हमारे खित्ते में ही नहीं और जगह भी—जहां-जहां के लोग, जेल काट रहे हैं या कफ़स में हैं—तो फ़ैज़ उनका साथी है. एक बात बताऊं आपको?’ जैसे बड़े किसी राज़ को उजागर करने जा रही थीं वो—’कई दफ़ा हुआ है कि मेरे पास कोई सियासी लीडर, एक्टीविस्ट या तालिबे इल्म आता है तो कहता है—जी, हमने उन्हें जेल में पढ़ा. वहां जाकर समझ आई. तो ये तो है….’ अब हंसी अधिक आवाज़दार, तेज़ और लंबी हो गई है—’बाक़ी ये कि जब जेल से बाहर आए तो वहां की आर्ट काउंसिल में रहे. और आप देखिए कि दोबारा भी जेल जाना पड़ा उन्हें. जी,अय्यूब ख़ां ज़माने में—1958 में. जी, सेफ़्टी एक्ट में. नहीं नहीं, मेरे ख़याल मेँ यहाँ या वहाँ क्या—सेफ़्टी एक्ट का सभी हुकूमतों ने ख़ूब इस्तेमाल किया है.’ मंद होती उनकी हंसी की आवाज़ में अब जैसे असहमति, नकार और आक्रोश का अनुपात यकायक काफ़ी बढ़ चला है.

अपने पिता की बड़ाई, ऊंचाई और हिम्मत की बातें बताते समय सलीमा जी बेहतरीन एक गर्व से लबालब थीं—दुर्लभ एक सुख में सराबोर थीं. जी किया कि उनसे फ़ैज़ के पिता-रूप के बारे में कुछ जाना जाए—‘कब अहसास हुआ कि आपके अब्बा इतने बड़े शायर हैं? उनमें के पिता को आज आप किस तरह याद करना चाहेंगी?’ पीठ कुर्सी की पुश्त पर जा टिकी है और दोनों हथेलियां एक-दूसरे में फंसी-गुंथी-सी सिर पर-आ लेटी हैं. जी भर हंसा गया है पहले खुलकर. फिर क़ुछ याद करते से मंद स्वर में धीमे-धीमे कहा गया है—’हम छोटे थे तो हमें बिल्कुल अहसास नहीं था कि हमारे पिता कोई तीसमार खां हैं. पिता के रूप में वो निहायत मुलायम, नेकदिल इनसान थे. तंज़ो-मज़ाक का उन्हें शौक़ था. अच्छा लतीफ़ा सुनना और सुनाना उन्हें पसंद था. अब्बू से हमने कभी डांट नहीं खाई. हां, अम्मा से खाई-ख़ूब खाई.’ पूरी उनकी काया अचानक जैसे एक बच्चे की देह में तबदील हो गई थी झट से—’आपको एक बार की बताऊं—मैं हिसाब में हमेशा फेल हो जाती थी. एक बार मेरी अम्मा ने कहा कि जाओ, तुम अपना रिज़ल्ट लेकर अब्बू के पास जाओ. मैं गई तो रिज़ल्ट कार्ड को एक नज़र देखने के बाद अब्बू बोले कि कोई बात नहीं, मैं भी कभी हिसाब में पास नहीं हुआ.’ ज़ोर से हंसते कुछ ऐसे देखा मेरी ओर जैसे मुझे भी खिलखिलाता देखना चाहा था तब उन्होंने— ‘जब मैट्रिक का इम्तहान देने लगी तो अम्मा को बहुत फ़िक्र थी कि पता नहीं मैं पास होऊंगी या फेल. मगर अब्बा ने फ़िक्र जैसा कुछ ज़ाहिर नहीं किया. एक दिन बोले कि अगर तुम्हारी फ़र्स्ट डिवीज़न आ गई तो मैं तुम्हें सोने की घड़ी दूंगा!’ हंसी जैसे मुस्कान का प्यारा-सा फूल बनकर खिले जा रही है होंठों पर— ‘रिज़ल्ट आया तो मैं न केवल फ़र्स्ट आई—अपने स्कूल में भी फ़र्स्ट थी मैं. अब्बा जब दफ़्तर से आए तो मैंने कहा कि मेरी सोने की घड़ी? बहुत हैरान हुए— अरे, अच्छा! तुम तो ज़हीन निकलीं. और अगले दिन घड़ी आ गई.’ उस पल की उस ख़ुशी और प्राप्ति में इतनी गहराई तक डूबी हैं कि रोम-रोम प्रसन्न प्रफुल्लित है. जैसे अभी-अभी उनके अब्बा ने उन्हें सोने की घड़ी लाकर दी हो.

लड़की होने के नाते उनसे मिली छूट¬—आज़ादी—या फिर लगाई गई कुछ बंदिशें?
दाएं पैर ने उठकर टखने को बाएं पैर के घुटने पर जा टिकाया है और अपनी एड़ी को आहिस्ता-आहिस्ता हिलाना शुरू किया है—’देखिए, हमें ये कभी नहीं कहा गया कि डॉक्टर, इंजीनियर या ये या वो बनना है. खुली आज़ादी थी कि जो चाहे करो. लिहाज़ा मैंने पेंटिंग-आर्ट की तरफ रुख़ किया—जी, पढ़ाया भी. नेशनल कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स, लाहौर में तीस साल पढ़ाया—वहां प्रिंसिपल भी रही. अब एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में पढ़ा रही हूं. मेरी छोटी बहन मुनीज़ा टेलीविज़न में रही. अब वो कंसल्टेंट है. उसका अपना एक एनजीओ है.’

कोई लड़का न होने को लेकर अपने अब्बा-अम्मा या अन्य परिवारीजनों के किसी मलाल, क्लेश या फ़िक्र के इज़हार की भी क्या कुछ यादें हैं आपके पास?
पल की देर नहीं लगी थी बोलने में—’मां-बाप तो नहीं—पर हां, और लोगों को बहुत ही चिंता रहती थी कि फ़ैज़ का कोई बेटा नहीं है. अब्बा या अम्मा का तो कभी कुछ ऐसा ज़ाहिर नहीं हुआ मेरे सामने. पर ज़ाहिर है कि दादी बहुत दुखी रहती थीं. पर ये भी कि हमारे ताया-चचा के यहां भी कोई लड़का नहीं था.’ ऐसी एक हंसी वहां अचानक सुनाई पड़ी जो अजब-गजब से किसी संयोग को याद करने के साथ तुरंत जन्म ले लेती है—’और आगे की नस्ल में आप देखिए कि धड़ाधड़ लड़के ही लड़के. मुनीज़ा के अली और अदीम दो बेटे. मेरे पास एक बेटा यासिर और एक बेटी मीरा.’ तृप्त-संतुष्ट-सी उनकी आवाज़ जैसे तब एक ख़ास प्रकार का गर्व जीना शुरू कर चुकी थी—’ मेरे ख़याल में अब्बा को बहुत नाज़ था कि ख़ानदान में सब लड़कियां पढ़ी-लिखी हैं और प्रोफ़ेशन में हैं. आख़िरी वक़्त में जब वो बेरूत से पाकिस्तान वापस आए तो ज़ियाउल हक़ का ज़माना था. सकूत का आलम था. पॉलिटिकल पार्टीज़ बैन थीं. सियासी ख़ामोशी. बहुत ज़बर का दौर था. एक दिन अब्बा के साथ बहुत लोग बैठे थे. बातें जारी थीं कि क्या हो रहा है. कोई रास्ता नज़र नहीं आता. क्या करें? बहुत से लोगों ने अब्बा से ये सवाल किया कि फ़ैज़ साहब क्या आपको कोई उम्मीद नज़र आती है पाकिस्तान में. उन्होंने जवाब दिया—मुझे उम्मीद की जो किरन नज़र आती है वो पाकिस्तान की औरत है—और वो इनकरेप्टेबुल है—और उसी से मुस्तक़बिल है. तो मेरे ख़याल में वो इस मामले में निहायत ही प्रोग्रेसिव, बहुत ही दूरअंदेश और औरतों के हुक़ूक के बहुत ही ज़बरदस्त हामी थे.’

नारंगी-से रंग के उनके वे स्पोर्ट शूज़ मोज़ों को दिखाते से हिले जा हे थे. मोज़ों का रंग जैकेट से मैच कर रहा था. बारीक हरी लाइनों वाली वह गुलाबी-सी सलवार. मफ़लर की तरह गले में पड़ी वह सफ़ेद सिलकिनी-सी शॉल. गले में पड़ी माला. हॉफ़ ग्लब्ज़ पहने उनकी उंगलियां. उनमें पहनी कई रंगों-आकारों के नगों वाली अंगूठियां. पहली बार मिलने के समय से ही उनकी वेशभूषा को लेकर मैंने कई तरह से सोचा था. पाकिस्तानी महिला को लेकर मेरे मन के किसी पूर्वाग्रह ने ही सलीमा जी को उस ड्रेस में देखते ही मुझे चौंकाया था. पर जैसे ही ख़याल आया कि अंततः हैं तो वो फ़ैज़ जैसी शख़्सियत की पुत्री-तो उनकी शख़्सियत और अभिव्यक्ति की वह आधुनिकता मन-मन रुचने लगी थी. लेकिन ऐसी इन इतनी अंगूठियों को देखा तो ताज्जुब का सा भाव फिर जाग उठा.—फ़ैज़ की बेटी की उंगलियों में—हां, ब्रुश चलाने में माहिर इन उंगलियों में ऐसी-ऐसी इतनी ये अंगूठियां! रुका नहीं गया तो पूछ ही बैठा—’ इतनी सारी ये अंगूठियां…?’

अपनी उंगलियों की ओर मेरे देखे जाने को देखकर ही जैसे उन्हें मेरे आश्चर्य और जिज्ञासा-भाव का अनुमान हो गया था. शायद इसीलिए इतना भर सुनकर पहले उन्होंने बेहद स्नेहमयी सहलाती-सी दृष्टि से अपनी उन अंगूठियों को इत्मीनान से देर तक देखा था. उसके बाद सीधी तर्जनी से नगों को साफ़ करने-चमकाने के से अंदाज़ में छूते-सहलाते हुए धीमी-मीठी आवाज़ में बताना शुरू किया था— ‘मुख़्तलिफ़ वक़्तों में मुख़्तलिफ़ चीज़ों की याद दिलाती हैं ये अंगूठियां.’ तर्जनी मध्यमा में पहनी अंगूठी पर रखी है—’ये वाली एमेसिस वाली अब्बा ने दी थी.’ प्यार के किसी मानसरोवर में से नहाकर निकली सिहरती, निर्मल, पावन, अर्चन-सा करती आवाज़—’ये उनका बर्थडे स्टोन है. मेरी सालगिरह पर दी थी उन्होंने.’ सीधी उस तर्जनी ने भी अभी उसी उंगली में पहने छल्ले तक ही दूरी तय की थी कि उनके चेहरे के रंग और रौनक में तब्दीली हो गई. ख़ुशी और लज्जा—एक साथ एक समय में एक जगह—मेरी मंगनी की अंगूठी चोरी हो गई. लिहाज़ा मैंने अपने मियां से कहा कि मुझे सोने का एक बिलकुल सादा छल्ला दे दो.’ अब तर्जनी अनामिका पर टिकी है—’ये वाली आस्ट्रेलिया गई थी मैं. वहां का ये ओपल मशहूर है—तो ये मेरे वहां के लंबे सफ़र की याद है. और ये…’ बाईं तर्जनी सीधे हाथ की मध्यमा में पहनी अंगूठी के उस बहुत बड़े और भारी पत्थर पर जा जमी है—‘ये हकीक़ है—बहुत भारी और पुराना. ये चांदी की अंगूठी भी—जिसमें ये जुड़ा है—बहुत पुरानी है. जी, रवायत यह है कि हकीक़ हिफ़ाज़त के लिए पहना जाता है.’

फ़ैज़ की ऐसी आधुनिक आर्टिस्ट बेटी—और ऐसी ये रवायत—ऐसा यह विश्वास?
चौंकी-सहमी-सी चुप ही बैठी रहीं कुछ देर. जैसे उम्मीद ही नहीं थी कि ऐसा कुछ भी पूछा जाएगा. संभलने भर की देर के बाद चिंतक जैसी मुद्रा में डगमग-डगमग चाल चलकर आते शब्दों के साथ शुरुआत हुई—विश्वास अपनी जगह होता है—पर कभी-कभी रवायतों को थोड़ी जगह देने को भी जी चाहता है. और रवायतें—जी, मेरे ख़याल में हमारी जो रवायती क़द्रें हैं उनमें मेरा यक़ीन है. मसलन—यही कि जैसे एक तरह से बुज़ुर्गों का, ख़ानदानी रिश्तों का एक ख़ास तरह का रखरखाव हमारे यहां नापैद होता जा रहा है—तो उसकी परवरिश! जैसे हमारे यहां एक रवायत है फ़राख़दिली की. आपके पास एक रोटी है—आपकी नज़र उस पर पड़ती है जिस पर उतनी भी नहीं है—आपके दरवाज़े पर वो दस्तक देता है—तो उस रोटी को आधी करने में कोई हर्ज नहीं.’

न कोई तुक थी, न संगति. पर अचानक तेज़ी से हुआ वह कि उस सुनने के बीच मुझे सलीमा जी का अपने अब्बा के तीसमार ख़ां न लगने वाला कथन याद हो आया. याद करके अंदर-अंदर हंसा—लेकिन अगले ही पल उस याद के उकसाने में आकर ही शायद यह पूछ बैठा था—’फ़ैज़ आपको तीसमार ख़ां कब लगे…?’ अपने कहे उस जुमले को सुनते ही ज़ोर का ठहाका लगाया. हंसी थमी तो बेहद संजीदगी के साथ कहा गया—’वो तो ख़ैर कभी नहीं. वो अपने आप को उस तरह अहमियत नहीं देते थे. पर लोगों ने लगवा दिया वैसा. देखिए—अभी हाल ही में दिल्ली में एक बहुत अच्छी निशस्त-महफ़िल थी. कोई बहुत अच्छी-नामी गायिका फ़ैज़ को गा रही थीं. ज़ाहिर है लोगों पर क़लाम का असर हो रहा था. तब मुझसे किसी ने पूछा—तुम्हें कैसा लगता है? मैंने कहा—बिलकुल वैसा जैसा आपको लगता है. तो सच में तो—वैसा ही था—और वैसा ही है.’

अगर कोई यह पूछे कि फ़ैज़ की बेटी होने का आपको क्या फ़ायदा या नुक़सान मिला तो…?

खिल-चहक उठीं यह सुनते ही—’मेरे ख़याल में उसका फ़ायदा तो ये हुआ कि बिना कोशिश किए बेपनाह मुहब्बत मिली. ऐसे लोगों से मिली—जिनको हम जानते भी नहीं. उन्होंने फ़ैज़ से अपनी मुहब्बत में हमें शामिल कर लिया. अगर नफ़ी है कोई थोड़ी-बहुत-जो बहुत थोड़ी है तो वो ये कि जो उनके दुश्मन थे उन्होंने हमें भी अपनी दुश्मनी से नवाज़ा. लेकिन उसका कोई गिला नहीं है—वो तो हमारे लिए फ़ख़्र की बात है.’

चिबुक को हथेली पर टिकाए उस ख़ासे-बड़े से चश्मे के लेंसों के पार कहीं दूर देखे जा रही थीं सलीमा जी. नहीं मालूम कि क्या सूझा था तब कि मैंने अचानक से फ़ैज़ की बेटी को उनके अब्बा की एक मशहूर नज़्म की पंक्तियां गुनगुनाते से सुनाना शुरू कर दिया था—’वे लोग बहुत ख़ुशकिस्मत थे. जो इश्क़ को काम समझते थे या काम से आशिक़ी करते थे….’ सुनने के साथ ही उनका सिर हिलना शुरू हो गया था. दो-चार पंक्तियों के बाद मैं तो चुप था पर उधर का गुनगुनाना साफ़ सुनाई दे रहा था—’हम जीते जी मसरूफ़ रहे. कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया. काम इश्क़ के आड़े आता रहा. और इश्क़ से काम उलझता रहा. फिर आख़िर तंग आकर हमने दोनों को अधूरा छोड दिया.’ उनकी एकाग्रता के उन तन्मय क्षणों में मैंने जैसे ख़लल ही डाला था यह पूछकर—‘ये इश्क़, ये काम और फ़ैज़…?’ सुना तो जैसे झटके के साथ ख़ुद को नज़्म के सम्मोहन की परिधि से बाहर निकाला. जैसे अंगुल-अंगुल के फ़ासले से बोला जा रहा है एक-एक लफ़्ज़—’उनकी ज़िंदगी में अगर कोई आख़िरी इश्क़ था तो वो था फ़िलीस्तीन का रेवोल्यूशन—जिससे उनका बहुत गहरा लगाव था. अफ़गानिस्तान उनके लिए एक परेशानकुन मसला था. उनके वालिद कई सालों अफ़गानिस्तान में रहे. वो शाह अब्दुल रहमान के मुशीर—चीफ़ सेक्रेटरी कहलाए. हमारे दादा की पहली जो बीवियां थीं-वो सब अफ़गानी थीं. हमारी दादी वाहिद पंजाबी थीं. तो फ़ारसी ज़बान की समझ अब्बा को बचपन में इसी वजह से आई कि घर में फ़ारसी बोली जाती थी. गहरा लगाव था उनको अफ़गानिस्तान से. वहां के हालात देख के वो बहुत परेशान भी थे. 1984 में उनका इंतक़ाल हो गया—वो तालिबान के आने से पहले की बात है.’
(जारी)

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