संस्मरण | तो इंतिज़ार साहब ने कहा – आपके हाथों में महफ़ूज़ है मेरा घर

डिबाई के जिस घर में उनका बचपन बीता, उसे वह कभी भूल नहीं सके थे, न वहाँ की गलियाँ और ठिकाने. उनकी कहानियों में वह बार-बार लौट कर आता रहा. जब भी हिंदुस्तान आए कितनी बार उसे तलाश करते फिरे. आख़िरकार तलाश पूरी हुई तो मालूम हुआ कि उस घर में अब पूर्व चेयरमैन अर्जुन कुमार और उनका कुनबा आबाद है. दरो-दीवार को छू कर देखने की ख़्वाहिश पूरी हुई और ख़ुलूस तोहफ़े में. तब वहाँ से चलते हुए इंतिज़ार हुसेन ने कहा था – “वहां जाकर अपने ख़ानदानियों को बताऊंगा. हम क्या-क्या सोचते रहे – पता नहीं कौन रहता होगा उस घर में. कैसा होगा वह आदमी, वह घर? पर आज मुझे चैन है, ख़ुशी है – मेरा घर आपके हाथों में महफ़ूज़ है, पाक है. अच्छे लोग रहते हैं मेरे घर में.”

क्या आपने कभी इंतिज़ार हुसेन साहब के डर और उनके आंसुओं को भी देखा है? यदि नहीं, तो क्या आप इस क़द के लेखक के एक दिन के विचित्र से उस भय और दुर्लभतम आंसुओं के बारे में कुछ जानना चाहेंगे? मैं बता दूं कि उन अद्भुत क्षणों में हम दो लोग – असग़र वजाहत और मैं, उनके साथ थे. क्यों, कब, कैसा घटा-हुआ वह सब – यही बताने के लिए मैं यहां उपस्थित हूं.

बंटवारे के बाद पाकिस्तान गया एक लेखक अनेक बार भारत आया. हर बार इरादा किया कि अबकी बार तो उस घर को ढूंढ़ ही लेना है जिसमें उसका बचपन बीता था. पहली बार बीच रास्ते से लौट आया. कारण पूछा तो कह दिया – पता नहीं आज इतने दिनों बाद कैसा होगा वहां सब. दूसरी बार मौक़ा मिला तो डिबाई तक चले भी गए, घर भी तलाशा – पर घर का अता-पता नहीं मिला. तीसरी बार फिर इरादा बना और इस बार की हैरान कर देने वाली बात यह कि घर ढुंढ़वाने का दायित्व मुझ पर आन पड़ा. एकदम अचानक, अप्रत्याशित. जी हां, मैं इंतिज़ार हुसेन साहब के घर की ही बात कर रहा हूं. जब-जब हिन्दी में उन्हें पढ़ा, उनसे मिलने को मन बार-बार मचला. मिलने की चाह इस हद तक बढ़ी कि पासपोर्ट तक बनवा लिया. जब भी उन्हें पढ़ता, उसमें डिबाई, वहां के चौक, शेख़ान मोहल्लों, वहां की गलियों और इमारतों से मुलाक़ात ज़रूर होती. मैं भी उस इलाक़े से जुड़ा हूं इसलिए आश्चर्य होता है कि पाकिस्तान में बैठे आदमी के पास उत्तर प्रदेश के बुलदशहर ज़िले के डिबाई जैसे छोटे क़स्बे की इतनी यादें, इतनी तस्वीरें अभी तक कैसे और क्यों ज़िंदा हैं!

एक दिन अचानक पता चला कि इंतिज़ार साहब अलीगढ़ आए हैं. कई करह के भावों से भरा-लदा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के नयू गेस्ट हाउस जा पहुंचा. पहुंचकर पता चला कि असग़र वजाहत और ओवेस सिद्दीक़ी टी.वी. की पूरी टीम साथ लेकर आए हैं और इंतिज़ार साहब पर डॉक्युमेंट्री फ़िल्म बनाना चाहते हैं. जब मैं पहुंचा तो वे तीनों लोग डिबाई, हापुड़ और मेरठ की यात्रा की योजना बना रहे थे. वे तनाव भरे ऐसे दिन थे जब दोनों देशों की सेनाएं सीमाओं पर तैनात की जा रही थीं. शायद इसीलिए इन तीनों को कई तरह के भयों और आशंकाओं ने घेर रखा था. मैंने उन्हें चिंतित देख डिबाई से अपनी नज़दीकी बताई. सुनते ही जैसे कोई जादू हुआ. तीनों लोगों के मुंह से एक साथ निकला – ‘तब ठीक है कल आप साथ चलेंगे.’ मुझे घंटों तक सब सपना-सा लगता रहा – कमाल है, जिस लेखक से मिलने को इतने दिन से मन मचल रहा था, उसके साथ इस तरह इतनी देर तक रहना-घूमना हो सकेगा कल.

अजीब संयोग था कि जनरल एज्यूकेशन सेंटर द्वारा इंतिज़ार साहब पर आयोजित कार्यक्रम के बीच रात को जो बारिश हुई, वह पूरी रात पड़ी और सुबह के तय समय तक भी पूरी ताक़त के साथ बरसती रही. कुछ दूर पैदल, कुछ दूर रिक्शे में बैठकर मैं तरबतर जैसे-तैसे घर से तीन-साढ़े तीन किलोमीटर दूर गेस्ट हाउस पहुंचा. नाश्ता करते वहां वे लोग सोच-विचार में फंसे थे – अब क्या हो? कैसे हो? इतनी बारिश में तो कुछ भी संभव नहीं…! इंतिज़ार साहब कई बार बाहर गए, अंदर आए. एक बार आए तो बोले – ‘कमाल है, बारिश के इस मौसम को एन्ज्वॉय करने के बजाय हम लोग इस तरह डर रहे हैं….’ इन शब्दों ने तुरंत तय करा दिया कि और नहीं तो कम से कम तीन लोग – इंतिज़ार साहब, असग़र वजाहत और मैं, तो डिबाई घूम ही आएं. घर मिल गया तो इंतिज़ार साहब के मन में इतने दिनों से मचलती एक इच्छा तो पूरी हो ही जाएगी.

11 अक्टूबर, 2004 को उस घनघोर बारिश में गाड़ी में बैठे हम न जाने कितनी बातें करते रहे थे. मन में जैसे ही यह आता कि यदि आज भी घर न मिला तो…घबराहट-सी होती. वहां के आसपास कुछ जानना ज़रूरी लगा. चर्चा हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के संबंधों से जुड़े कुछ सवालों से शुरू हुई. फिर मौसम और डिबाई की बातें होने लगीं – ‘हां, वहां भी ऐसा ही लगता है. सड़क भी, आसपास की फ़सलें भी, बस्तियां भी….यह अलग बात है कि इन दिनों ये सड़कें इतनी ख़राब हैं – पत्थर, कंकड़ पड़ रहे हैं, इतनी फिसलन है…पर.’ मैं उनकी यादों को बाहर लाकर उनके बचपन के घर के आसपास होना चाहता था इसलिए तरह-तरह के सवाल किए जा रहा था – ‘हां, हमारी ननसाल थी यहां. मामा का नाम था – बादशाह. …हां, इतना याद है, वहां पास में एक मस्जिद थी – सैयदों वाली मस्जिद. हमारे घर के सामने एक दुकान थी – हम दही-वही लाते थे वहां से. शेख़ान नाम था उस मोहल्ले का… एक चक्की थी…हां, एक दुकान थी हलवाई की – उसके पेड़े बहुत मशहूर थे. हम खाते थे वहां से लेकर. और वो छोइया था…वहां हम नहाने जाते थे. ऊपर से कूद-कूदकर ख़ूब नहाते थे बहुत सारे बच्चे मिलकर. …फिर वो चामुंडा का मंदिर – जहां जाकर हम रोज़ लुका-छिपी का खेल खेलते थे…और बाहर एक कर्बला था…बस और ज़्यादा तो याद नहीं आता. पर अब वहां क्या होगा, क्या पता…’ मुझे फिर डर लगा कि इतने भर से घर कैसे ढ़ूंढ़ पाएंगे हम लोग.

बहुत कम बोले थे वे. जो जितना मुश्किल से बोले थे वह भी बुलवाने पर ही बोले थे. पूरे रास्ते गुमसुम से बैठे पता नहीं क्या सोचते रहे थे वे. मैंने बताया, यहां से छतारी को रास्ता जाता है तो उन्हें छतारी याद हो आई. दानपुर आया तो वहां बाग़ और दरगाह को याद किया. दरगाह पर गाड़ी रुकवाई तो एक-एक चीज़ ऐसे देख रहे हैं जैसे उनके देखने से पिछला सब उन्हें याद आ रहा है. धीरे ही सही, कुछ याद आ रहा है, कुछ पहचान भी रहे हैं – ‘हां, यहां हम आए हैं बचपन में.’ डिबाई के आने की सूचना दी तो ऐसे संभलकर बैठ गएजैसे किसी डर, हिचक या आशंका ने उन्हें आ घेरा हो. चेहरे पर तनाव सा दिखा. इधर-उधर देख रहे हैं – शायद कुछ पहचान में आ जाए. पर कहां, इतने वर्षों में डिबाई की भी तो दुनिया बहुत बदल चुकी है. ‘अरे हां, यहां कहीं एक हस्पताल था…अच्छा, है अभी…वाह.’ गाड़ी को बाज़ार के संकरे, भीड़ भरे रास्ते से बचाकर तालाब की तरफ़ ले जाया गया. तालाब को देखकर कई यादें कुलबुलाईं.

अब हम लोग गाड़ी से उतर चुके थे. मिट्ठन लाल हलवाई की वह प्रसिद्ध पुरानी दुकान पास थी, जिसके पेड़े बचपन में इंतिज़ार साहब ने खाए थे. बूंदे अब भी थीं, पर उतनी तेज़ नहीं. हम तीन थे और हमारे बीच छाता एक था. वह भी औरतों वाला ज़रा सा छाता. इंतिज़ार साहब के एक तरफ़ मैं, दूसरी तरफ़ असग़र साहब. छाता कभी उनके हाथ में, कभी मेरे हाथ में. दोनों की यही कोशिश कि छाता कम से कम इंतिज़ार साहब को तो भीगने से बचा ले. उनके फिसलने की चिंता में कभी असग़र साहब उनका बायां हाथ थाम लेते तो कभी मैं दायां. और वे थे कि बिना कपड़ों-जूतों की चिंता किए संभले-संभले चहकते से चल रहे थे. दुकान देखकर मुझे अच्छा नहीं लगा – इस पीढ़ी ने इसे बढ़ाया-चमकाया क्यों नहीं है आख़िर? पर इंतिज़ार साहब उसमें के उस पुरानेपन को तलाश रहे थे जो उनके ज़माने में ज़िंदा, नया था, प्रसिद्ध था. दुकान पर बैठे उस प्रौढ़ को मैंने मिट्ठन लाल का बेटा समझा था. बाते हुईं तो मालूम हुआ कि वह उनक पोता है. पाकिस्तान से आने और अपने दादा के ज़माने की बातें सुनकर वह बहुत विनम्र हो गया. जो था उसे खाने को प्रस्तुत किया, आग्रह किया. इंतिज़ार साहब बड़े प्यार से उसे समझा रहे थे – ‘हां, ले जाऊंगा पेड़े. सब खाएंगे वहां तो ख़ुश होंगे.’

जिस इलाक़े और जिस मोड़ पर अब हम थे, उनकी सूचनाओं के अनुसार घर को वहीं कहीं होना था. कृष्णा जाजू कन्या इंटर कॉलेज को ठीक वहां से रास्ता जाता है. कॉलेज का बताया तो उन्हें कुछ याद नहीं आया. तब भला यह कॉलेज होगा भी कहां से! जितनी अधिक मैं पूछताछ कर रहा था, उतना ही अधिक वे मुझे रोकना चाह रहे थे. डरे, घबराए, उत्तेजित से कई बार कह चुके थे – ‘छोड़ो ये नहीं होगा…मैं ठीक से याद नहीं कर पा रहा होऊंगा…’ मुश्किल से याद आया था उन्हें – ‘इधर कहीं वो दही वाली दुकान थी हलवाई की…’ गली में हमें बार-बार इधर से उधर आते-जाते देख लोगों में जिज्ञासा बढ़ रही थी. लोग झांक-झांककर देखने लगे थे. इंतिज़ार साहब को लोगों का उस तरह रुकना देखकर पता नहीं कैसा लगा कि कहने लगे – ‘ठीक है, चलो इतना ही काफ़ी है. कम से कम घर के आसपास तो हो चले.’

आगे बढ़े तो मस्जिद के बारे में पूछताछ की. मालूम हो गया कि यही मस्जिद सैयदों की मस्जिद कहलाती है. मस्जिद में कोई नहीं था. दोनों दरवाज़ों पर ताले पड़े थे. आसपास वालों की मदद से जैसे-तैसे ताला खुलवाया. उसकी दुर्दशा पर हम शर्मिंदा-से हुए, पर वे थे कि जैसे वहां थे ही नहीं – ‘हां, हां, यह कुआं था…वैसी ही यह चरख़ी अब भी है…यहीं वज़ू करते थे…यह भी उसी तरह का है…यह नमाज़ पढ़ने की जगह पर…’ कुएं में झांककर देखने लगे – देखते रहे – ऐसे कि अभी उस सूखे कुएं में से निग़ाहों की डोर से खींचकर पानी निकालकर ही मानेंगे. वहां की गंदगी, इधर-उधर सोते कुत्तों को जैसे उन्होंने देखा ही नहीं था. बस गेट, बुर्ज और पहचाना-सा वह कुआंदेर तक देखा…बार-बार देखा. मस्जिद के पीछे गए – ‘हां, यह हवेली थी बड़ी सी…नाम याद नहीं आ रहा – वे लोग रहते थे यहां…अभी ये तो वैसी ही है…ताला बंद है इसका भी…पता नहीं कहां होंगे वे लोग भी…और ये इधर-उधर के घर…पता नहीं अब कौन रहता है इनमें…तब हम पतंगें लूटते-उड़ाते थे इनकी छतों पर घूम-घूमकर…हां, इन मुंडेरों से हमने दीवाली के दीये ख़ूब चुराए हैं…अगर बचपन में दीवाली के दीये न चुराए होते तो मैं लेखक नहीं बनता…’

हलवाई की दही वाली दुकान का पता लगाया. वहां तीसरी पीढ़ी मिली. उससे कुछ सवाल किए तो उसने उस मोहल्ले की सबसे बूढ़ी औरत के घर की ओर इशारा किया – हां, शायद वे जानती हों बादशाह के बारे में कुछ… मैं उस घर की ओर बढ़ा ही था कि एक चमत्कार-सा हुआ. इंतिज़ार साहब के चेहरे का रंग एकदम बदल गया. एक हूक-सी उठी थी जैसे – ‘ये जो घर है…इसके कमरे के ये जो तीन दरवाज़ों के ऊपर महराब है…ये हमारे घर जैसे हैं…शायद.’ और अचानक पता नहीं क्या हुआ कि वे डरे-से मस्जिद की ओर दौड़-से चले – ‘चलो, बस ठीक है. इतना काफ़ी है.’ असग़र साहब उन्हें रोकते रहे, वे नहीं रुके. उन्हें साथ लिए आगे बढ़ते गए. मैंने उस घर का दरवाज़ा खटखटाया. आसपास वालों ने बताया कि वह डिबाई के भूतपूर्व चेयरमैन अर्जुन कुमार सर्राफ़ का घर है. मुझे याद आया वे मेरे यहां पढ़ने के समय चेयरमैन थे. सोचा शायद यहां से कुछ पता चले. दरवाज़ा सभ्य, शालीन प्यारी-सी एक बच्ची ने खोला. मैंने पूछा – ‘तुम्हारे घर में सबसे बड़ा कौन है बेटे?’ बोली – ‘बाबा जी.’ ‘बुलवा सकती हो उन्हें?’ वो अंदर गई और उन्हें बुला लाई. परिचय दिया. कारण बताया. पूछा कि आपने यह मकान कब लिया, किससे लिया? ठगा, हैरान-सा रह गया था मैं. मालूम हुआ कि बादशाह नाम के व्यक्ति का यही तो वह मकान है जिसकी तलाश में इतने दिनों तक पता नहीं क्या-क्या जिया-झेला है इंतिज़ार साहब ने. अर्जुन कुमार जी से मिलने-बैठने की अनुमति पाकर मैं ऐसे दौड़ा जैसे मैंने भूसे के ढेर में से सोने की कोई खोई सुई ढ़ूंढ ली थी. मिल गया, मिल गया…वो घर यही है…मैं कहता रहा, पर ऐसे डरे-घबराए से हो गए वे कि हम दोनों लोग उनके हाथ पकड़े ज़बर्दस्ती लगभग खींचते से उन्हें लौटाकर ला पाए. समझ नहीं आया कि जिस क्षण की इतने लंबे समय से इंतिज़ार साहब को प्रतीक्षा थी, तलाश थी, उसके पास आने पर वे वहां से बचना-भागना क्यों चाह रहे थे. एकदम बच्चे जैसे अबोध, भोले, डरे-डरे से क्यों हो गए थे? ख़ौफ़ और कशिश की वह कौन सी उलझन थी जो उन्हें किसी किशोर की तरह अपने महबूब के घर के दरवाज़े तक बुला भी लाई थी और डरा भी रही थी?

जो भी हो जीत की ख़ुशी और उत्साह से भरे हम उन्हें अंदर तक ले आए थे. और फिर पुराने ज़माने की कितनी बातें, कितनी यादें! अर्जुन कुमार जी ने ज़िद कर-करके क्या-क्या नहीं खिलवाया था उस एक घंटे में. घर के हर छोटे-बड़े बदलाव को दिखाया था, उसके बारे में सब कुछ बताया था उन्होंने. गर का वह सुसम्पन्न, सांस्कारिक वातावरण. बहुओं का आना, पैर छूना. नातिनों का आ-आकर आग्रह करना – बाबा जी यह और लें, बस इतना-सा और. चलने से ज़रा पहले सारे परिवार ने इंतिज़ार साहब के साथ घर के आंगन में बैठकर फ़ोटो खिंचवाए थे. चलने लगे तो याद आया – ‘इधर पीछे की तरफ़ एक दरवाज़ा था, जो दूसरी तरफ़ निकलता था…’ अर्जुन जी उस जगह को दिखाते हुए बता रहे थे – ‘हां, बदलाव तो इधर भी हुआ है, पर दरवाज़ा और उसके आसपास की ये जगह अभी है…यहां जेनेरेटर रखा है अब…’ इंतिज़ार साहब ने उधर झांका – ‘हां, लगभग ज्यों का त्यों है – पहचान में आ सकने वाला…’ ऐसे छू-छूकर देखते रहे जैसे उनकी छुअन को पहचानकर वह हिस्सा बोल उठेगा कि हां, मैं तुम्हें पहचान रहा हूं…तुमने कितने तो खड़िया-कोयले चलाए हैं मुझ पर…उन्हें उस तरह देखकर पता नहीं क्यों मुझे वे लाखों-करोड़ों लोग याद हो आए थे जिन्हें सरहदों की बंदिशों और युद्धों की मारामारी ने जड़हीन, बेघर कर दिया है…मैं सोच रहा था कि क्या घरों से उखड़े-उजड़े बिना घर की क़ीमत सही समझ नहीं आती? जहां हमने जन्म लिया होता है वह जगह उम्र भर हमारा पीछा आख़िर क्यों नहीं छोड़ती?

बड़े से उस मुख्य दरवाज़े से थोड़ा पहले अर्जुन जी का पूरा परिवार इंतिज़ार साहब को घेरे खड़ा था. उनकी नातिन ने पूछा था – ‘आप पहले क्यों नहीं आए?’ इंतिज़ार साहब ने पैंट की जेब से रुमाल निकाला था. बच्ची ज़िद कर रही थी – ‘बाबा जी आप आज नहीं जाएंगे. आज यहीं रहेंगे.’ रुमाल आखों की तरफ़ बढ़ा था. सब हाथ जोड़े खड़े थे. बच्ची ने फिर कहा था – ‘अच्छा, अब आपको आते रहना है. अबकी बार यहां रहने के लिए आएंगे आप.’ गला भर आया था इंतिज़ार साहब का. वह ख़ुशी, वह भावुकता जो आंसू बनकर बाहर आने लगी थी, उसे रोकना चाहा था उन्होंने. पर बोलने लगे तो ज़रा देर को आंसू बलगाम हो गए – ‘इतना प्यार, इतनी इज़्ज़त, मैंने सोचा भी नहीं था. वहां जाकर अपने ख़ानदानियों को बताऊंगा. हम क्या-क्या सोचते रहे – पता नहीं कौन रहता होगा उस घर में. कैसा होगा वह आदमी, वह घर? पर आज मुझे चैन है, ख़ुशी है – मेरा घर आपके हाथों में महफ़ूज़ है, पाक है. अच्छे लोग रहते हैं मेरे घर में.’

छोइए के पुल को दूर से ही पहचान लिया था उन्होंने. दोनों ओर बनी ईंटों की उस दीवार पर चढ़ना भी चाहा था. चढ़ना नहीं हो पाया तो सड़क से ही नीचे झांक-झांककर देखते रहे छोइए को. झाड़-झंखाड़ की चिंता किए बिना कुछ दूर छोइए के किनारे-किनारे चले भी – अब इस मौसम में भी यह सूखा पड़ा है – ‘तब तो इतनी बाढ़ आ जाती थी इसमें…हां, हम दीवारों पर से नीचे कूद-कूदकर ख़ूब नहाते थे, डुबकियां लगाते थे…’ असग़र साहब उनके चित्र उतारे जा रहे थे. अचानक देखा कि अर्जुन कुमार जी स्कूटर पर फिर वहां हाज़िर – ‘आपने बताया था कि आपको इधर आना है. मैंने सोचा आपको अपने बाग़ दिखा दूं.’ कर्णवास जाने वाली इस सड़क के दोनों ओर हैं अपने बाग़… ‘हां, इधर-उधर तब कितने बाग़ थे. अच्छा, ये आपका बाग़ है. काफ़ी बड़ा है.’ अर्जुन जी बाग़ के रखवाले के साथ आगे-आगे और उस फिसलन भरी पगडंडी पर इंतिज़ार साहब को पानी से संभालते-बचाते हम पीछे-पीछे. कुछ याद आया कि अर्जुन कुमार ने रखवाले के हाथ से लाठी लेकर इंतिज़ार साहब के हाथ में थमा दी – ‘इसे लेकर चलेंगे तो गिरेंगे नहीं.’ थोड़ी सी ना-नुकुर के बाद लाठी अब इंतिज़ार साहब के हाथ में थी. अद्भुत था उस बाग़ में सफ़ारीधारी इंतिज़ार साहब को हाथ में लाठी लिए चलते देखना. यकायक गांधी और उनकी लाठी याद हो आई. असग़र साहब उनकी उन मुद्राओं, भाव-भंगिमाओं को कैमरे में क़ैद करने में लगे थे. और इंतिज़ार साहब बहुत ख़ुश थे. शायद इसलिए कि इससे पहले इतनी बड़ी उम्र में कभी इस तरह चल भी तो नहीं पाए थे वे.

चामुंडा-मंदिर और कर्बला तक साथ चलने को अर्जुन जी बहुत ज़िद की थी. संकोचवश हम नहीं माने तो उन्होंने रास्ता बताने को एक नौकर साथ कर दिया. भीगा-भरा वह लस्त-पस्त, संकरीला रास्ता. आशंका हुई कि गाड़ी फंस-फंसा न जाए. लौटना भी चाहा पर गाड़ी वहां मुड़ भी नहीं सकती थी. यह भी सोचा कि कर्बला के इतने क़रीब आकर लौटना भी कहां की बुद्धमानी होगी. जैसे भी हो, इंतिज़ार साहब को कर्बला भी दिखाना ही दिखाना है. वे झांक-झांककर रास्तों को पहचान रहे थे. इतनी इमारतें उग आई थीं अब वहां कि इंतिज़ार साहब तो क्या कोई दस-पांच साल पहले यहां से गया व्यक्ति भी आए तो उसको भी कुछ पुराना ज़रा भी पहचान में न आए. कर्बला ठीक सामने था. उसके चारों ओर पानी भरा था. गेट पर लटका बड़ा सा वह ताला दूर से दिख रहा था. आसपास की गंदगी और कर्बला तक न पहुंच पाने की स्थिति देखकर वे गाड़ी की ओर बढ़ चले थे – ‘ठीक है, बस, इतना देख लिया. अब चलो चामुंडा के मंदिर पर चलते हैं.’

चामुंडा के मंदिर तक रास्ते में उन्हें काफ़ी कुछ याद आता जा रहा था – ‘हां, यहां से ही जाते थे हम लोग…इधर पेड़ थे काफ़ी – हम इन दीवारों और दरख़्तों के पीछे छिप-छिपकर लुका-छिपी के खेल खेला करते थे. …ये सब तो पहले नहीं था…ये दुकानें..ये मंदिर में हुई बढोतरी बाद की है.’ वे उस बढ़ोतरी के बीच अपने ज़माने के हिस्से को ढूंढ़ रहे थे – हां, यह वाला मंदिर है. वो…पुराना चामुंडा का मंदिर…’ मंदिर का पुजारी बाहर निकल आया, पर उसकी उम्र इतनी नहीं थी कि इंतिज़ार साहब के ज़माने से जुड़ी उनकी यादों से जुड़े सवालों के उत्तर दे पाता. घूमते-घामते मंदिर के पीछे वाले हिस्से की तरफ़ बढ़ चले – ‘हां, ये ईंटें, ये दीवारें तब की हैं…’ अपने आप से बात कर रहे हों जैसे. जैसे कुछ देर को उन्हें याद ही नहीं रहा कि हम भी उनके साथ हैं. चलते-चलते यकायक रुके. चहकती-सी वह ख़ुशी जैसे थामे नहीं थम रही थी उस पल. सामने बहुत घना-ऊंचा पीपल का पेड़. उसके तने पर बंधे सूत के धागे. उसकी तरफ़ टकटकी लगाए देखे जा रहे हैं वे. पहले उसके रूप-आकार को परखा – और अब जैसे उसकी ऊंचाई नापी. अब तो वे जैसे वहां बिल्कुल थे ही नहीं. अपलक पीपल को देखे जा रहे हैं. सावधान की मुद्रा में ऐसे खड़े हैं जैसे अपने से किसी बड़े को बड़े अदब से सलाम कर रहे हों. होठों में मचलन हुई थी पर आवाज़ हम तक नहीं आ रही थी. लगा कि पीपल से बात कर रहे हैं. उनके बंद होंठ चुप थे फिर भी पता नहीं कैसे यह लगा कि कह रहे हैं – ‘अपनी मिट्टी, अपनी जड़ों से तुम्हारे इस लगाव को सलाम करता हूं.’ असग़र साहब का कैमरा चमकता रहा. देर बाद जैसे इंतिज़ार साहब कहीं से वहां वापस लौटे… ‘हां, यह दरख़्त तभी का है. हम यहां आकर छिपते-खेलते थे…’ उनके चेहरे की चमक से सारा आसपास दिपदिपा उठा था. पीपल को छूने को आगे बढ़े. उतावले से ऐसे आगे बढ़े जैसे बहुत दिनों के बिछुड़े किसी अपने से अचानक मुलाक़ात हो जाए और हम उसे छूने, उससे लिपटने को बहुत-बहुत बेताब हो जाएं.

(‘गुफ़्तगूः सरहदों के आर-पार’ से साभार)

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