यादों में शहर | ललितपुर

अविभाजित उत्तर प्रदेश में किसी सरकारी कर्मचारी को धमकाने या सज़ा देने की मंशा हो तो अफ़सरों का पसंदीदा जुमला होता था – कहां जाना है, उत्तरकाशी या ललितपुर ? उत्तरकाशी तो ख़ैर अब उत्तराखंड का हिस्सा है. पता नहीं कि इस धमकी का अब वहां कोई वजूद बाक़ी भी है कि नहीं, मगर धमकाने के लिहाज़ से सरकारी महकमों में ललितपुर का असर आज भी ज्यों का त्यों बना हुआ है. बशर्ते आप ललितपुर के बाशिंदे न हो.

नेहरू युवा केंद्र में ज्वाइन करने के बाद एक रोज़ राज्य निदेशक ने फ़ोन करके बताया कि आपको झांसी जाना है और वहीं से महोबा और ललितपुर का ज़िला भी देखना है. अभी बुंदेलखंड में कोई अफ़सर नहीं है, इसलिए आपको ही वहां जाना पड़ेगा. उनके फ़ोन से मुझे तुरंत ही सरकारी धमकी की याद आई. सोचा, मैं तो अभी-अभी डेप्यूटेशन की अपनी पहली पोस्टिंग पर आया हूं. सो पूरे सूबे में मुझसे अच्छा अफ़सर भला और कौन हो सकता है.

झांसी से तो थोड़ा परिचय था, लेकिन ललितपुर अभी तक मेरे लिए अजनबी शहर ही था. ललितपुर के बारे में तब तक मैं तीन बातें ही जानता था. मुरारी लाल पांडे का राई सैरा, माता टीला गेस्ट हाऊस और देवगढ़ के जैन मंदिर. ललितपुर का काम भी देखना ही था, सो शहर की ख़ूबियां जुटाने लगा. सफ़र की तैयारी चल ही रही थी कि एक और कहावत याद आ गई, “झांसी गले की फांसी, दतिया गले का हार/ ललितपुर न छोड़िए, जब तक मिले उधार.

इसके साथ ही यह विश्वास भी पक्का हुआ कि वहां जाकर इस कहावत का मर्म भी मालूम हो सकेगा.

बुंदेलखंड के समाजसेवी, लोककला मर्मज्ञ, गायक और राजनेता हरगोविंद कुशवाहा से जब पहली मुलाक़ात हुई तो उन्होंने इस कहावत का निहितार्थ समझाया – ललितपुर जैन व्यवसायियों का बड़ा केंद्र रहा है. स्थानीय लोग अपनी ज़रूरतों के मुताबिक़ इन व्यापारियों से उधार ले लिया करते थे. कहा जाता है कि ये साहूकार बड़ी मानवीय शर्तों पर उधार का कारोबार चलाते थे. ललितपुर के बारे में यह कहावत तभी से मशहूर हो गई. इस कहावत को वे 1857 की क्रांति से भी जोड़ते है. उनका कहना है कि लक्ष्मीबाई की सेना में राजा मर्दन सिंह उनकी तरफ से लड़े थे, जिनको बाद में अंग्रेज़ों ने बंदी बना लिया. जाते समय राजा मर्दन सिंह ने सभी व्यापारियों से निवेदन किया कि वे उनकी प्रजा का ध्यान रखें. पहले की तरह ही उनकी मदद करते रहें, कि वापस आकर वह प्रजा का सारा उधार चुका देंगे.

कहने को तो ललितपुर मध्य प्रदेश से सटा हुआ उत्तर प्रदेश का अंतिम ज़िला है. कई बार झांसी से ललितपुर के रास्ते में बिजौली और बबीना के बीच में कई गांव मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ ज़िले के पड़ते हैं. इसका अहसास उस समय होता था, जब रोमिंग में आया मोबाइल अचानक पूरा चार्जिंग पैक ख़ाली कर देता.

वहां होता तो मुझे हमेशा ही लगता कि यह संभावनाओं का शहर है. पर्यटन के लिए देवगढ़ में जैन मूर्तियों का अपार ख़जाना है तो विकासवादियों के लिए यह शहर पूरे प्रदेश में बांधों की सबसे ज़्यादा तादाद के लिए जाना जाता है. चंदन के पेड़ों के लिए विख्यात बार तहसील है, जहां सफ़ेद मूसली समेत दूसरी जड़ी-बूटियों के बड़े पैमाने पर उत्पादन की संभावना है. दशावतार का मंदिर भी उन्हीं संभावनाओं में से एक है. बुंदेलों की कहानी तो है ही, पत्थरों के खनन का व्यवसाय भी इस शहर की पहचान में शामिल है.

देवगढ़ ललितपुर का दिल है. जैन तीर्थ यात्रियों का ही नहीं, स्थापत्य और मूर्तिकला के जानकारों की समझ में भी यह कुछ इज़ाफ़ा ही करेगा. बेतवा के किनारे मंदिर के परिसर में उकेरे गए शिल्प अद्भुत हैं. हम आप भले ही इस ख़जाने से अनजान हों लेकिन कला-शिल्प की धरोहरों पर नज़र रखने वाले अंतरराष्ट्रीय चोरों-तस्करों के लिए भी यह माक़ूल ठिकाना है.

मुरारीलाल जैन बताते हैं कि बेतवा नदी के किनारे-किनारे पत्थरों की पहाड़ियां थी. उस समय मूर्तियों के व्यापारी शिल्पकारों को लेकर यहां आते थे. पत्थरों को तराश कर तरह-तरह की मूर्तियां यहां गढ़ी जाती थी. बड़ी-बड़ी नावों में इन तराशी गई मूर्तियों को लाद कर बाहर भेजा जाता था. वह कहते हैं कि हो सकता है कि कभी देवगढ़ मूर्तियों के व्यापार का बड़ा केंद्र रहा हो.

दशावतार मंदिर भगवान विष्णु के दस अवतारों को चित्रित करता छठवीं शताब्दी ईस्वी गुप्त काल का पंचायतन मंदिर है, जिसमें गर्भ गृह मूल मंदिर के चारो तरफ चार मंदिर बने हैं. ललितपुर के लोग कहते हैं कि प्रतियोगी परीक्षाओं में कई बार जैन मंदिर और दशावतार मंदिर के बारे सवाल पूछे जाते हैं. इन मंदिरों को देखने के बाद एक हर्ष-मिश्रित दुख भी होता है. इतनी अकूत सांस्कृतिक, पुरातात्विक संपदा और उसका यह रखरखाव! मंदिर से लौटने के बाद जब-जब चाय की तलब लगी तो जैन धर्मशाला पहुंच जाता था. वहां के केयरटेकर का आतिथ्य ऐसे समय में हमें हमेशा याद आता. घूमने से हुई थकान के बाद चूल्हे पर बनी चाय अपने स्वाद-गंध से कई स्मृतियां ताज़ा कर देती.

देवगढ़ के रास्ते में ही ‘ललितवाणी सामुदायिक रेडियो’ का छोटा- सा बोर्ड देखा. जिज्ञासा हुई तो अपने सहयोगी अरविंद कुमार से पूछा कि उन्होंने कभी इसे देखा है. बोले – जानकारी तो है पर रुका नहीं हूं. तो हम वहीं रुक गए. अंदर गए तो गांव के ही दो युवा शाम के प्रसारण की तैयारी में जुटे थे. जगह-जगह से जुटाई गई सामग्री को संयोजित करके प्रसारण किया जाता. संचालक ने बताया ‘ललितवाणी’ यूनिसेफ़ के सहयोग से चलने वाला प्रदेश का संभवतः पहला सामुदायिक रेडियो प्रसारण केंद्र है. बताया – हम आसपास के गांवों के समाचार, साक्षात्कार और कलाकारों को जोड़कर केंद्र का काम चलाते हैं.

मेरे लिए यह सुखद अनुभव था, जैसे मन की उड़ान को अपना अड्डा मिल गया हो. इसके बाद जब-जब देवगढ़ में कोई एकता शिविर, युवा संसद का आयोजन हुआ, ‘ललितवाणी’ के साथियों ने उसके प्रचार-प्रसार में ख़ूब सहयोग किया. पता नहीं कि फ़ेसबुक, टि्वटर, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया के इस दौर में ‘ललितवाणी’ अपनी उपस्थिति कैसे दर्ज करा रहा है?

उसी देवगढ़ में उत्तर प्रदेश सरकार का एक यात्री निवास भी है, जो कई-कई बार बिकते-बिकते अब भी निश्चित मोड़ से एकांत गीत गा रहा है. काश कभी कोई उसकी भी सुध लेता.

वहां के परिसर में संस्कृति विभाग का बहुत सुंदर सा ओपन एय़र थिएटर बना है. पहली बार जब प्रशिक्षण के दौरान युवाओं के साथ वहां सांस्कृतिक संध्या की, तब लग रहा था कि सच में युवाओं को थोड़ी देर के लिए ही सही, पंख खोलने की आज़ादी मिल गई हो. देवगढ़ से निकलते हुए वहां की भव्यता, पुरातत्व, विरासत और घने जंगलों से गुज़रते हुए दुष्यंत बार-बार याद आते – ‘तुम्हारी आंखों में एक जंगल है, मैं/ जिसमें रास्ता भूल जाता हूं.

सब कुछ है फिर भी हम रास्ता क्यों भूल जाते हैं?

मैं हूं न !

यह ऐतिहासिक धरोहर, यह दशावतार की प्राचीनता, यह बांधों का शहर, यह पावर जनरेशन का प्लांट, तालबेहट की झील में बोटिंग का सुख, धसान, जामिनी, बेतवा का अविरल प्रवाह, ये खदानें, ज़मीन से निकलती कठोर चट्टानें, खनिजों की संभावनाओं से भरपूर वसुधा, बार के चंदन वन, मूसली औषधि वृक्षों का अनजाना- अनचिन्हा संसार एक-एक कर मेरे यादों के शहर की बुनियाद को पुख़्ता करते हैं.

हम भी है न?

शहर तो ख़ैर शहर वालों का है. वैसे तो वह सड़कों के किनारे चाय के अड्डों, युवा दिलों को स्पेस देता गोविंद सागर बांध के किनारे, लोक संस्कृति, दुकानों, बाज़ारों में आबाद रहता है. हाईवे से थोड़ा हटकर शहर में दाख़िल होते ही निरंजन की चाय की दुकान है. यहां भी वही जुमला दोहराया जाता है – निरंजन की चाय नहीं पी तो फिर ललितपुर जा के क्या किया? मडवरा जाते हुए खितवास में कैथा की चटनी और समोसे का स्वाद उन सभी को याद होगा, जो कभी वहां से गुज़रे हैं. जितनी बार गुज़रा हूं, मेरे सहयोगी अरविंद हमेशा याद दिला देते कि गरम समोसा बन रहा है. थोड़ा रुक जाते हैं.

ललितपुर का बखान करते हुए उन्होंने चौरसिया के पान की चर्चा बार-बार की है. घंटाघर के पास खुला विशाल मेगा मार्ट, दक्षिण भारतीय व्यंजन की दुकान, जैन भोजनालय, कॉफ़ी हाउस, भले वो इलाहाबाद, दिल्ली, शिमला, भोपाल की तरह न हो मगर शहर में अपनी दस्तक देते रहते हैं. ख़ास मेहमाननवाज़ी के लिए आनंद होटल का लंच या डिनर हमेशा अच्छे खाने का विकल्प देता है.

राई-सैरा लोकनृत्य ललितपुर की पहचान है. उत्तर प्रदेश सरकार का कोई भी अनुष्ठान, आयोजन हो, ट्रंप की आगरा यात्रा या लखनऊ में इन्वेस्टर मीट, प्रयागराज का कुम्भ हो या किसी राष्ट्र नेता की वाराणसी यात्रा, राई-सैरा के कलाकार अपनी धमक वहां ज़रूर देते हैं. स्व.मुरारी लाल पांडे ने वर्षों इस परंपरा का निर्वहन किया. उनके बाद अब उनकी अर्द्धांगिनी इस काम को आगे बढ़ा रही है. दूरदराज़ के हज़ारों कलाकार आज भी अपने नंबर के इंतज़ार में अपनी परंपरा जगाए हुए हैं.

इस लोक विधा में राई नृत्य और सैरा गायकी शामिल है. ललितपुर में जो राई-सैरा है, झांसी और सागर में वही राई है. बेडिनियों को इस लोकनृत्य का श्रेय जाता है. इस विधा में नर्तकी इतनी चपलता से नृत्य करती कि देखने वालों का घेरा या पूरा मंच उसके पांवों के नीचे थरथराता है, वैसे ही जैसे फेंकने पर राई बिखर जाती है. यह सुनते हुए मुझे अलखनंदन के नाटक ‘चंदा बेड़िनी’ की नायिका याद आ जाती. यह भी कहते हैं कि राधा के एक और नाम राई से इस नृत्य को पहचान मिली. ब्याह के बाद पहले बार बहू के घर आने पर पूरब में जैसे कोहबर की रस्म होती है, बुंदेलखंड में वैसे ही दामोदर-राई की रस्म होती है. दामोदर यानी कृष्ण और राई यानी राधा.

तालबेहट तहसील में पहाड़ी पर बना माताटीला गेस्ट हाउस वही जगह है, राम मंदिर आंदोलन के दौरान कई नेताओं को जहां नज़रबंद रखा गया था. वहां ठहरना भी अलग तजुर्बा है. रात को वहां के उद्यान, बांध और शहर की रोशनी आपस में मिलकर एक अद्भुत सुख का एहसास कराते हैं. उस रात को मैं अफ़सरों का वह जुमला फिर याद कर रहा था, “कहां जाना चाहोगे, ललितपुर या उत्तरकाशी?”

ललितपुर मेरे लिए यादों में बसा एक शहर भर नहीं है, वर्षों तक एक-एक पल जिया हुआ शहर है. ललितपुर की याद को तीन हिन्दी फ़िल्मों के नामों के साथ सम्पुट करना चाहूंगा. अर्थ आप ख़ुद समझ जाएंगे – हम आपके हैं कौन? हम साथ साथ हैं. हम दिल दे चुके सनम.

(लेखक लोक कलाओं के अध्येता हैं. एनसीज़ेडसीसी और नेहरू युवा केंद्र से लंबे समय तक संबंद्ध रहे हैं.)

कवर| देवगढ़ का दशावतार मंदिर

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