तंज़ से कहीं ज़्यादा अहमियत वाले हैं मंटो के ख़त
मंटो ने डेढ़ सौ से ज्यादा कहानियां लिखीं, व्यक्ति-चित्र, संस्मरण, फ़िल्मों की स्क्रिप्ट और डायलॉग, रेडियो के लिए ढेरों नाटक और एकांकी, पत्र, कई पत्र-पत्रिकाओं में कॉलम लिखे, पत्रकारिता की. कविता को छोड़ दें, तो उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं में लिखा है. उनकी तमाम रचनाओं पर ख़ूब बात हुई मगर उनके ख़तों पर बात कम ही हुई. ख़त जो उन्होंने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन और उसके बाद आइज़नहावर के नाम लिखे, जो पाकिस्तान के अख़बारों में सिलसिलेवार शाया हुए. अमेरिका और पाकिस्तान के उस दौर के रिश्तों को समझने के सूत्र उनके इन ख़तों में मिलते हैं. बेबाकी और तटस्थता से उन्होंने हुक्मरानों की जमकर ख़बर ली है. जो देखा, महसूस किया, वह लिखा.
इन ख़तों की बेबाकी एक छोटी सी मिसाल से समझी जा सकती है,‘‘अमरीकी लेखक लेसली फ्लेमिंग ने ‘जर्नल आफ़ साउथ एशियन लिटरेचर’ के मंटो विशेषांक में मंटो के मजामीन पर एक सफ्हा लिखा है. उसने एक-एक, दो-दो सतरों में अलग-अलग मजमून को छुआ है. क्या ये तअज्जुब की बात नहीं है, कि वह ‘चचा साम’ के नाम लिखे गए नौ ख़तों के बारे में एक जुमला तो क्या, एक लफ़्ज़ तक न लिख सकीं. क्यों ? वह इसलिए कि मंटो ने जब ये ख़ुतूत लिखे थे, तब अमेरिका में चचा आइज़नहावर की हुकूमत थी और जब अमरीकी स्कॉलर ने ‘लेटर टॉपिकल एसे‘ज़’ लिखा, तब अमेरिका में चचा रोनाल्ड रीगन की हुकूमत थी. यानी, दोनों ज़माने रिपब्लिकन राष्ट्रपतियों के ज़माने थे. बात समझ में आती है और लेसली फ्लेमिंग की ओढ़ी-ढांपी झेंप साफ़ नज़र आती है.’’ (पेज-366, अंतिम शब्द, सआदत हसन मंटो दस्तावेज-4)
मंटो के ख़तों को ठीक से समझने के लिए अमरीकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन की कार्यप्रणाली और उस दौर के पाकिस्तान के हालात से भी वाक़िफ़ होना ज़रूरी है. बीसवीं सदी के अमेरिका के बारे में कहा जाता है कि वह जंग के लिए हमेशा उतावला रहने वाला मुल्क था. (गोया कि, जंग के लिए उसका ये उतावलापन आज भी कम नहीं हुआ है.) अपने कार्यकाल में हैरी ट्रूमैन ने पूरी दुनिया में अमरीकी साम्राज्यवाद नीतियों को जमकर बढ़ावा दिया. जापान पर एटमी बम गिराने का फ़ैसला, यूरोप के पुनर्निर्माण के लिए मार्शल प्लान, साम्यवाद की घेरेबंदी का ट्रूमैन-सिद्धांत, शीत युद्ध की शुरुआत, नाटो का गठन और कोरिया के युद्ध में अमरीकी-हस्तक्षेप जैसे उनके फ़ैसले मिसाल के तौर पर गिनाए जा सकते हैं.
इन बातों की रौशनी में देखें, तो मंटो के ख़त बड़े मानीखेज हैं. अंकल सैम को ख़त लिखने के पीछे मंटो का ज़ाहिर मकसद साम्राज्यवाद की आलोचना पेश करना था. पाकिस्तान के उस वक्त एक नए राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान गढ़ने की कोशिश कर रहा था. पाक-अमरीकी आर्थिक-सामरिक संधि हो चुकी थी. दक्षिण-पूर्वी एशिया में बढ़ते साम्यवादी रुझान को रोकने के लिए, अमेरिका को इस इलाके में एक मोहरे की तलाश थी, जो उसे पाकिस्तान के रूप में मिल गया. मंटो के ख़तों के मजमून से गुजरकर, न सिर्फ़ अमेरिका और पाकिस्तान के सियासी-समाजी हालात समझे जा सकते हैं, बल्कि बाक़ी दुनिया के जानिब अमेरिका की नीति का भी कुछ-कुछ खुलासा होता है.
अमेरिकी राष्ट्रपति के नाम मंटो ने पहला ख़त दिसम्बर, 1951 में लिखा और आख़िरी ख़त अप्रैल, 1954 में. तीन साल के अरसे में कुल नौ ख़त. खत क्या, पाकिस्तान और अमेरिका दोनों ही मुल्कों के अंदरूनी हालात की बोलती तस्वीर ! पाकिस्तान की बदहाली और अमेरिका का दोगलापन. पाकिस्तान की बेचारगी और अमेरिका की कुटिल चालें. ख़त लिखे, आधी सदी से ज्यादा गुज़र गई, मगर दोनों ही मुल्कों की न तो तस्वीर बदली और न ही किरदार.
इन दोनों मुल्कों पर मंटो का आंकलन अब भी पूरे सोलह आने खरा उतरता है. पाकिस्तान कल भी अमेरिकी खैरात के आसरे था, और आज भी उसकी अर्थव्यवस्था अमेरिकी डॉलरों के भरोसे चल रही है. मंटो अपने ख़तों में अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियों पर तंज करते हैं. 15 मार्च 1954 को तीसरे ख़त में वह लिखते हैं, ‘‘हमारे साथ फौजी इमदाद का मुआहदा (समझौता) बड़ी मार्के की चीज़ है. इस पर कायम रहिएगा. इधर हिंदुस्तान के साथ भी ऐसा ही रिश्ता उस्तुवार (मजबूत) कर लीजिए. दोनों को पुराने हथियार भेजिए, क्योंकि अब तो आपने वह तमाम हथियार कंडम कर दिए होंगे, जो आपने पिछली जंग में इस्तेमाल किए थे. आपके यह कंडम और फालतू असलह भी ठिकाने लग जाएंगे और आपके कारख़ाने भी बेकार नहीं रहेंगे.’’
मंटो की इस तहरीर में अमेरिका का साम्राज्यवादी चेहरा बेनकाब होता है. किस तरह वह दुनिया भर में अपने हथियारों की तिज़ारत करता है. जंग उसके लिए महज एक कारोबार है. जंग होगी तो उसके हथियार भी बिकेंगे. चाहे ईरान-इराक के बीच चली लंबी जंग हो, या फिर अफ्रीकी मुल्कों के बीच आपसी संघर्ष, इन जंग और संघर्षों में सबसे ज्यादा फ़ायदा अमेरिका का ही रहा है. फ़ौजी इमदाद के समझौते की आड़ में, वह आज भी अपने पुराने हथियारों को ठिकाने लगाता रहता है.
पाकिस्तान पर ‘अमेरिकी मेहरबानी’ की वजह भी बयान करते हैं – ‘‘हिंदुस्तान लाख टापा करे, आप पाकिस्तान से फ़ौजी इमदाद का मुआहदा (समझौता) ज़रूर करें, इसलिए कि आपको इस दुनिया की सबसे बड़ी इस्लामी सल्तनत के इस्तेहकाम (सुदृढ़ता)की बहुत ज्यादा फ़िक्र है, और क्यों न हो, इसलिए कि यहां का मुल्ला रूस के कम्युनिज्म का बेहतरीन तोड़ है.’’
इसी ख़त में उन्होंने लिखा है – ‘‘जब अमरीकी औजारों से कतरी हुई लबें होंगी, अमरीकी मशीनों से सिले हुए शरअई पाजामे होंगे, अमरीकी मिट्टी के अनटच्ड बाई हैंड ढेले होंगे, अमरीकी रहलें (लकड़ी का स्टैंड, जिस पर कुरान रखते हैं) और अमरीकी जायनमाजें होंगी, तब आप देखिएगा, चारों तरफ आप की के नाम के तस्बीह ख्वां होंगे.’’
अपने मुल्क के हालात का ज़िक्र करते हुए मंटो न तो पाकिस्तानी हुक्मरानों से डरते हैं और न ही मजहबी रहनुमाओं का मुलाहिजा करते हैं. पाकिस्तानियों के जो अंतर्विरोध हैं, उनका मजहब के प्रति जो अंधा झुकाव है, मंटो इसकी भी ख़ुर्दबीनी करने से बाज़ नहीं आते. कट्टरता और पोंगापंथी पर वह निर्ममता से अपनी कलम चलाते हैं. मंटो अपने ख़तों में अमरीकी पूंजीवाद और साम्राज्यवाद पर जमकर चुटकियां लेते हैं.
अमरीकी साम्राज्यवाद को ज़ाहिर करने के लिए वह बार-बार अमेरिका के राष्ट्रपति को सात आज़ादियों के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में मुख़ातिब करते हैं. व्यंग्य करने का उनकी तरीका बिल्कुल निराला है. मंटो के इन नौ ख़तों को पढ़कर बहुत हद तक पाकिस्तान और अमेरिका के हकीकी किरदारों को जाना जा सकता है. इन खतों में न सिर्फ उस दौर की अक्काशी है, बल्कि मुस्तक़बिल की भी तस्वीर है. आने वाले सालों में पाकिस्तान की नियति का अंदाज़ मंटो पहले ही लगा चुके थे.
समय की रेत पर वह सब कुछ साफ-साफ देख रहे थे. उन्होंने अपने ख़तों से पाकिस्तानी हुक्मरानों को हर मुमकिन आगाह भी किया. लेकिन उनकी आवाज़ नक्कारखाने में तूती की तरह बोलती रही. अमेरिकी हुक्मरानों और उनकी नीतियों के बारे में उन्होंने जो लिखा, वे बातें आज भी ज्यों के त्यों हैं.
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