लॉक डाउन डायरी | पेट ख़ाली मगर ग़ैरत का क्या करें

  • 8:47 pm
  • 15 April 2020

रात का घुप्प अंधेरा. लॉक डाउन के सन्नाटे में कहीं कोई नज़र नहीं आता. आमतौर पर देर रात तक आबाद रहने वाली गलियों में ख़ामोशी छाई हुई थी. शहर की एक बस्ती का एक घर. इस घर में रात को एक शख़्स दाखिल हुआ है. दबे पांव. उसके कदम सीधे घर की रसोई की तरफ़ बढ़ते हैं. रसोई के बर्तन टटोलने पर कुछ बर्तनों में उसे खाने का सामान रखा हुआ मिल गया. ग़ालिबन रात को घर में जो खाना बना रहा होगा, उसमें से बचा हुआ उन बर्तनों में था.

घर में चोरी-चोरी दाख़िल हुआ वह शख़्स अपने साथ लाया एक टिफ़िन खोलता है. घर के बर्तनों में रखी खाने की चीज़ों को अपने टिफ़िन में रखता है. टिफ़िन भरने की हड़बड़ाहट में कुछ खटर-पटर की आवाज़ हुई है. इस आवाज़ से मकान मालिक की आंख खुल गई. ‘कौन है’, की आवाज़ गूंजती है, तो वह शख़्स टिफ़िन मौक़े पर ही छोड़कर जल्दी से बाहर निकल गया है. हालांकि टिफ़िन उसने पैक कर लिया था, लेकिन हड़बड़ाहट में वह उसे ले भी नहीं जा पाया.

कोई जवाब नहीं पाकर मकान का मालिक बिस्तर से उठकर सीधे रसोई में जा पहुंचा है. वहां उसे टिफ़िन नज़र आया. ‘यह टिफ़िन तो मेरे घर का नहीं है,’ उसने सोचा, ‘फिर यहां कैसे आया?’ इसी उधेड़बुन के बीच उसने टिफ़िन खोल लिया और फिर उसकी आँखें चौंधिया सी जाती हैं. उसके होश उड़ जाते हैं. टिफ़िन में तो वही सब कुछ रखा था, जो शाम को उसके घर में बना था. उस शख़्स के दिमाग़ में तमाम बातें दौड़ने लगीं. थोड़ी देर पहले ही वह चोर-चोर की आवाज़ लगाने ही वाला था, लेकिन उसके मुंह से अब मानो आवाज़ ही नहीं निकल रही थी. अब वह ख़ुदा का शुक्र अदा कर रहा था, कि अच्छा हुआ जो वह चोर-चोर या पकड़ो-पकड़ो का शोर बुलंद नहीं कर पाया, वरना आज कुछ भी हो सकता था. एक ऐसे शख़्स की इज़्ज़त तार-तार हो जाती, जो सिर्फ़ टिफ़िन भर खाने की ख़ातिर ‘चोर’ बन गया था.
मकान मालिक की आंखों में तमाम तरह के नज़ारे घूमने लगे. क्या उस शख़्स से अपने बच्चों की भूख देखी न जा सकी? क्या उसकी ग़ैरत ने किसी के सामने अपने और घर वालों के लिए एक वक़्त की रोटी मांगने के लिए हाथ फैलाने नहीं दिए? क्या उसने अपनी मुफ़लिसी के ऊपर ऐसी चादर ओढ़ रखी है, जिससे कोई उसका हाल जान न पाए. लॉक डाउन ने उसको इस हाल में ला दिया कि अपने बच्चों के पेट की आग बुझाने को वह ‘चोर’ बन गया?
इस एक घटना ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि लॉक डाउन एक बड़े तबके के लिए भूख लेकर आया है? क्या समाज में ऐसे लोग भी हैं, जिनके घरों पर लॉक डाउन में चूल्हा जलना मुश्किल हो गया है, लेकिन वे किसी को बता भी नहीं सकते? भूख से होने वाली तकलीफ़ चेहरे पर ज़ाहिर न हो जाए, इसलिए वे किसी के सामने आने से भी परहेज़ कर रहे हैं.
सुबह हुई, तो रात की यह घटना मोहल्ले के कुछ नौजवानों को मालूम हुई. आनन-फानन में उन लड़कों ने कुछ पैसे जमा किए, और फिर रात के अंधेरे में मोहल्ले के कुछ घरों के बाहर राशन के थैले चुपचाप रख दिए. ये वही घर थे, जिनमें ‘भूख’ की शिद्दत का अंदाज़ा उन लड़कों ने लगाया था.

हालाँकि इस शहर में लॉक डाउन के पहले रोज़ से गरीबों को राशन बांटने का काम शुरू हो गया था, लेकिन एकाध एनजीओ या कुछ मुख्लिस मददगारों को छोड़कर मदद के नाम पर चला सियासी शो ऑफ उन तमाम लोगों को यह सोचने को मजबूर करने लगा कि यह सियासी मदद वह कुबूल करें या न करें? वह मदद लें, यह उनकी जरूरत तो थी, लेकिन एक पैकेट चावल या आटा लेते वक्त उतारी गई उनकी तस्वीर, जब मददगार के व्हाट्सएप और फ़ेसबुक पन्नों की ज़ीनत बनकर तैरने लगी, तो उनकी ग़ैरत ने यह मदद लेना मुनासिब नहीं समझा. 5-7 किलो चावल का एक थैला मंजूर करना रुसवाई का सबब बनेगा? उसकी ग़ुरबत जग जाहिर हो जाएगी? ऐसा तो उसने सोचा न था. उसने अपनी गरीबी को ढंक रखा था. बेटी का ब्याह उसे रचाना था. रिश्ते वह खोज रहा था, और इसके लिए उसको अपनी खाली हांडी तो किसी को हरगिज़ नहीं दिखानी थी.

लॉक डाउन के दो हफ़्ते गुज़रते-गुज़रते और पहले दिन से बंट रही ‘मदद’ के बीच आया ‘टिफ़िन’ बहुत कुछ सोचने को मजबूर करने वाला है. उन लोगों को ख़ासकर जो गरीबों की मदद तो कर रहे हैं, लेकिन ऐसी भावना के साथ कि जिससे उसको समाज में अपनी ‘पगड़ी’ उछलती हुई नज़र आ रही है. वह पगड़ी, जो उसने झूठे ही सही, मगर दुनिया को दिखाने के लिए संभाल रखी है. उसके ज़रिए वह अपनी भूख छिपाए हुए है.

क्या यह सबों के लिए ग़ौर करने का वक़्त नहीं? लॉक डाउन 19 रोज़ और बढ़ गया है. ऐसे लोगों की फ़िक्र की जानी चाहिए, जो एक वक़्त का खाना हासिल करने को रात के अंधेरे में किसी के घर में चोरी से घुसने जैसा काम करने को मजबूर हो जा रहे हैं. दौलतमंदों की ग़ैरत का तकाजा यह है कि बिना किसी दिखावे के ऐसे लोगों की मदद करें, जितनी उनकी कुव्वत है. सियासतदां इस मुश्किल घड़ी में थोड़ी देर के लिए सियासी फ़ायदा छोड़ दें, यह सोचकर कि वह सब कुछ फिर सही, तो अच्छा रहेगा.

फ़रिश्ते सी तमन्ना

मोहल्ला मदारनगर की एक बच्ची पड़ोस के घर के बच्चों के साथ खेलने के इरादे से गई. मगर जल्दी ही घर लौट आई. छह साल की वह बच्ची लॉक डाउन या नए हालात के बारे में तो कुछ नहीं जानती, मगर उसे ख़ूब मालूम है कि रोना अच्छी बात नहीं. तमन्ना ने घर लौटकर फ़ौरन ही अपनी मां बताया कि वहां सब लोग रो रहे हैं. और वजह दरयाफ़्त करने जब उसकी माँ पड़ोसी के घर गई, तो ख़ुद भी रो पड़ीं जब उनको पता चला कि वे लोग दो वक़्त से फ़ाका कर रहे हैं. फ़ौरन ही घर आकर उन्होंने खाने का बंदोबस्त किया, और यह भी कि कह आए कि सूरते-हाल संभलने तक उन लोगों को यह मौक़ा दें, भूखे न रहें. दरअसल बारातों में काम करके गुज़र करने वाले लोगों के उस घर में जो कुछ था, इतने दिनों की बंदी के बीच काम आ गया. राशन खत्म को फ़ाके के सिवाय रास्ता ही क्या था. इज़्ज़त की ख़ातिर उन लोगों ने अपने घर की हालत किसी को बताई ही नहीं.

चूना-कत्था और अमरूद का पत्ता

जिन घरों में ऐसी कोई दिक़्क़त नहीं, वहां के लोग दूसरे क़िस्म की परेशानियां झेल रहे हैं. पान खाने की आदी ग़रीब महिलाओं के लिए यह मुश्किल का वक़्त है. शहर में पान का पत्ता दस रुपये में बिक रहा है. और एक पत्ते की क़ीमत यहां तक पहुंचने की भी एक कहानी है, थोड़ी दिलचस्प सी. शेखूपुर मोहल्ले में पान के एक कारोबारी के यहां पान की गाड़ी आई तो एक शख़्स वहां आ धमका. उसने वीडियो बनाई और फिर ख़ुद को मीडिया वाला बताकर उस कारोबारी को धमकाया और उससे दस हज़ार रुपये झटक ले गया. फिर दो पुलिस वाले भी आए और चार हज़ार वे भी ले गए. अब कारोबारी तो ठहरा कारोबारी, उसने ख़र्च हुई सारी रक़म लागत में जोड़ ली, और फिर उसने पान के एक पत्ते की क़ीमत जो निकाली, वह दस रुपये आई. जो गरीब हैं और आदी भी, वे क़ीमत में पान कहाँ खरीद पातीं. सो उन्होंने अमरूद के पत्ते में विकल्प तलाश कर लिया है.

इन्हें भी ज़रूरत और उन्हें भी

हजामत बनाने वालों ने रोज़ी चालू रखने की जुगत यह निकाली है कि अपने ग्राहकों से फ़ोन पर राब्ता किया, और इन दिनों वे घर-घर जाकर सर्विस देने लगे हैं. लोगों को भी उनकी ज़रूरत है ही. बंदी को इतना अर्सा हुआ और दाढ़ी और बाल बढ़ने पर तो कोई पाबंदी है नहीं.

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