लोग-बाग | थारुओं के गांव में

  • 9:33 pm
  • 23 June 2020

दुनिया बदली है, थारू भी बदल गए हैं. सदियों से जो कुछ उनकी पहचान बना रहा, पिछले दो-ढाई दशकों में वह सब बदल चुका है. थारू तो हैं मगर उनका थारूपन जाता रहा. यों पक्के घरों से दूर भागने वाले थारू अब मिट्टी के घरों से बचने लगे हैं. जहां कच्चे घर हैं वहां भी खपरैल गायब हैं, छावन अब एसबेस्टस शीट की हैं. फसलों की बुवाई-कटाई या उत्सव के मौके पर बलि देने वाले अब भगत हो चले हैं. वे सत्यनारायण की कथा सुनते हैं, जिनकी सामर्थ्य है, वे भागवत का पाठ कराते हैं. बनकटी सरीखे गांव में राधा स्वामी सत्संग में शरीक होते हैं, शिव और विष्णु को पूजते हैं, साथ ही नगालैण्ड के तिया जमीर के साथ ढोल पर प्रभु यीशु के भजन भी गाते हैं. औरतें पात्र में चावल या दूसरा अनाज लेकर कथा में भी जाती हैं और ऐसे भजन में भी. महिलाओं का पहनावा भी बदल गया है. परंपरागत घाघरा-चोली की जगह अब धोती या फिर सलवार-कुर्ता पहनने लगी हैं. वजह – घाघरा पहनकर पलिया के बाज़ार में जाती हैं तो लोग फिकरे कसते हैं तो शर्म आती है. फिर उस पोशाक में पूरा बदन भी नहीं ढंकता सो धोती पहनना ही ठीक लगता है अब. पूरे मसान खम्भ गांव में खोजने पर चार पोशाकें मिल पाती हैं और गहने सिर्फ़ एक घर में. दस बरस पहले जून में ही दुधवा के आसपास बसे थारुओं के गांव गया तो पिछली मुलाक़ातों के मुक़ाबले बहुत सारा बदला हुआ पाया – जीने का सलीक़ा और उनकी तमाम मान्यताएं भी.

गोल बोझी और सूरमा जैसे गांव को छोड़ दें तो इलाक़े के सारे गांवों में बिजली हैं, सड़कें हैं, टीवी है और फ़ोन तो ख़ैर है ही. यों जब उनके गांवों को राजस्व ग्राम नहीं, वन्य ग्राम का दर्ज़ा था, और बिजली वहां दी नहीं जा सकती थी, टेलीविज़न और फ़िल्में तो तब भी ख़ूब प्रचलित थीं. बैटरी काम आती थी, उनके कच्चे घरों के ऊपर उस दौर की विशालकाय छतरी जमी हुई मिलती और टीवी के सामने के सामने मर्दों की महफ़िल. बदले हुए दौर में टीवी की डिश छोटी हो गई है, सिग्नल भी ढंग से आते हैं. जंगल में मोबाइल में अलबत्ता सिग्नल नहीं मिलते, तो लड़के अपने फ़ोन का इस्तेमाल गाने सुनने के लिए करते मिल जाते हैं. बाहर की दुनिया से उनके बढ़ते रिश्तों का फ़ायदा पढ़ाई में खूब मिला है. गोल बोझी में और मुश्किलें अपनी जगह मगर ठक्कर बप्पा के पालनाघर में पांच वर्ष की उम्र के तमाम बच्चे कविता-गिनती पढ़ने जुटते हैं. गांव से बाहर जाकर पढ़ रहे हैं लोग. बसंत लाल के बेटे हैं राजेश. लखीमपुर से समाज शास्त्र में एम.ए. कर रहे हैं, उनकी पत्नी गोंडा में एक हॉस्टल में नौकरी करती हैं. 33 घरों वाले इस गांव के पांच लड़के और एक लड़की नौकरी में हैं. मसान खम्भ में चौथी में पढ़ने वाले करन सिंह को अंग्रेजी-हिन्दी के मुक़ाबले नैतिक शिक्षा पढ़ना ज्यादा प्रिय है. करन बगीचे में लगने वाले ऐसे स्कूल में पढ़ने जाता है, जिसे गांव का एक ग्रेजुएट युवक चलाता है.

बदली मान्यताओं के चलते ही अब गांव-बिरादरी के बुजुर्गों के भरोसे ही ब्याह नहीं हो जाते. पढ़-लिख गए लोग अब पंडित से मुहूर्त निकलवाकर शादी की तारीख़ पक्की करते हैं. बक़ौल बसंतलाल पहले के ज़माने में लड़के वालों की ओर के बुजुर्ग दिवाली मनाके लड़की वालों के घर जाते रिश्ते की बात करने और ब्याह की तारीख़ पक्की करने. कठरिया थारुओं में ब्याह अगहन में और डंगोरा थारुओं में फागुन में ही होते. डंगोरा बिरादरी में तो पूरे गांव की शादियां एक ही रोज़ होतीं. मगर अब तो सब बदल गया. पहले दूल्हा घोड़े पर जाता और दुल्हन डोली में. अब तो लोग मार्शल मंगाते हैं. घोड़े की जगह मोटर आ गई है.

राजेश मानते हैं कि पढ़ने-लिखने से फ़ायदा यह है कि बेकार के रीति-रिवाज और अंधविश्वासों में पीछा छुड़ाने में मदद मिलती है. इन अंधविश्वासों में वह भर्रा (गांव का धार्मिक प्रमुख) के तंत्र-मंत्र से इलाज के भरोसे को बेहद ख़तरनाक मानते हैं. अलबत्ता मसान खम्भ के भर्रा छुट्टन ने तो बाकायदा कई छोटी-छोटी झोपड़ियां बना रखी हैं, जिसमें उनके मरीज़ आकर रहते हैं. अस्पताल के वार्ड की तरह सिर्फ़ ये झोपड़ियां भर नहीं हैं. मरीज़ों के खाना बनाने की अलग से जगह हैं, साथ ही एक बड़ा कमरा जहां छुट्टन अपने मरीज़ों की झाड़-फूंक करते हैं. तमाम देवी-देवताओं, सिख गुरुओं, मक्का के पोस्टरों वाले उनके इस कक्ष में तुलसी नाम की किशोरी का इलाज करते मिले. बताया कि वह बड़ी सरकार और छोटी सरकार से मरीज को व्याधि से छुटकारा दिलाने की अर्जी लगाते हैं, फिर हनुमान चालीसा पढ़ते हैं. इससे लोग ठीक हो जाते हैं.

अपनी बनाई चावल की शराब पीनी भी थारुओं ने छोड़ ही दी है. कम से कम कहते तो ऐसा ही हैं. उनका तर्क है कि अब तो पुलिस आकर पकड़ लेती है, परेशान करती है सो त्योहार के मौकों पर ही जांड बनाते हैं. फिर क्या थारुओं में नशाबंदी भी हो गई है. बकौल प्रधान विकी कपूर पूरा इलाक़ा नए क़िस्म के नशे की चपेट में है. यह है मुनक्का. यानी भांग का नशा. मुनक्का इलाके की हर छोटी-बड़ी दुकान में मिल जाता है – तमाम नामों से. इससे नशा पूरा और फायदा यह कि महक हरगिज नहीं आती.

दुधवा में बसे थारु अपने मनोरंजन के लिए बिजली पर आश्रित तो पहले भी नहीं थे और अब तो बाज़ार में बेहतरीन क़िस्म की बैटरी भी हैं. इलाक़े के दो गांवों गोल बोझी और सूरमा को अभी राजस्व गांवों का दर्ज़ा नहीं मिला है सो बिजली के तार वहां पहुंच नहीं पाए हैं. मगर घर रोशन करने के लिए सोलर पैनल्स तमाम घरों के बाहर धूप में सिंकते-से मिल जाते हैं. टेलीविज़न देखने के लिए बैटरी हैं और रेडियो तो हर किसी को किसी के मोबाइल में है ही. चूंकि दूर-दूर तक मोबाइल टॉवर हैं नहीं सो तमाम लड़के मोबाइल लेकर गांव के इस-उस कोने पर खड़े मिल जाएंगे, इसके रेडियो पर गाने सुनते हुए.

थारुओं के जीवन में आ रहे बदलावों के नफ़ा-नुकसान के बारे में राय बनाना मानव विज्ञानियों या समाजशास्त्रियों के काम का हिस्सा है. मगर जो चीज़ साफ़ है, वह यह कि उनके बीच जो भी पुराना है, तेजी से छूट रहा है फिर चाहे रस्म-रिवाज़ हों, गहने-कपड़े हों या जिंदगी को लेकर उनका नज़रिया.

यों भी दुधवा इलाके के थारू गोंडा या बलरामपुर के जंगलों में रह रहे अपने बिरादरों से अलग और आधुनिक पहचाने ही जाते रहे हैं. इतने कि 1963 में आगरा विश्वविद्यालय से थारुओं पर पहला प्रामाणिक शोध करने वाले डॉ.एस.के. श्रीवास्तव दुधवा के गांवों में आ जाएं तो उन्हें अपनी किताब में छपे लोग ढूंढे नहीं मिलेंगे.

मसान खम्भ गांव के प्रधान रामकिशन की पहल पर ढूंढना शुरू किया तो डेहरी, ढेंकी, मथनी की कौन कहे, नकबेसर भी पूरे गांव में एक ही मिली. बल्कि परंपरागत गहने भी एक ही घर में मिले- खुद रामकिशन के घर में. ऐसी पोशाकें जो कभी थारू महिलाओं की पहचान थी, चार ही मिल पाईं- चांदनी, रामकुमारी, सिट्ठा देवी और रुकमा देवी की. गोल बोझी की श्यामा देवी कहती हैं कि पहले समय होता था, औरतें अपने लिए कपड़े खुद बना लेती थीं. तब गन्ने की बुवाई कहां होती थी. अब तो टाइम ही नहीं मिलता. बनकटी में खोजने पर दो बुजुर्ग महिलाएं ही मिलीं, जो अपना पुराना पहनावा नहीं छोड़ पाईं थीं. परागो देवी ने कहा कि वह देसी लत्ता नहीं पहनतीं मगर उनकी बहुओं को कपड़े बनाना नहीं आता सो वे लोग धोती-ओती पहनती हैं. टाइम की कमी का यह तर्क इसलिए समझ नहीं आता क्योंकि एक दशक पहले तक तो पुरुष जांड पीने, फ़िल्में देखने के सिवाय बहुत कुछ करते ही नहीं थे. घर के काम, खेती की जिम्मेदारी, मछली मारने का काम सब महिलाओं के ही हिस्से में होता था. अब तो मर्द बाकायदा काम करने लगे हैं, लड़के पढ़ रहे हैं, नौकरियां कर रहे हैं और इसका नतीजा यह है कि सदियों से जंगल और खेती को ही अपनी जिंदगी का आधार मानते आए थारुओं का खेती से भी मोह भंग हो रहा है.

कवर | प्रभात


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