लॉक डाउन डायरी | महामारी में मौत

  • 2:16 pm
  • 17 April 2020

घंटे गिन-गिन खटना, दाने गिन-गिन पेट भरना और दिन गिन-गिन जीना. बीत गए दिन का मलाल नहीं और न ही आने वाले दिन की फिकर. दूसरे दिहाड़ी मजूरों की तरह ही बीत रही थी घूरपुर के दशरथ की ज़िंदगी.

बालू निकालने का काम बंद चल रहा था. पेट भरने के लिए रोज़ घंटों के मोल बिकने पर भी बूढ़ी मां-बाप, बीवी और दो बच्चों का पेट भरना मुश्किल हुआ तो मुंबई चला गया कमाने. वहां काम मिलने लगा तो रोज़ाना पाव भर दाल, एक पाव चावल, एक किलो आटा और एक बोतल मिट्टी का तेल  गांव में उसके कुनबे के लिए  भी जुटने लगा.

तीज-त्योहार पर लौटता तो बीवी-बच्चों के लिए दो-एक जोड़ी कपड़े भी होते. देखकर बीवी का हौसला बढ़ जाता. जब वह बच्चों के भविष्य का सोचने को कहती, दशरथ के मन का दर्द उमड़ पड़ता. झुंझलाकर कहता, दिहाड़ी मजूर की सोच एक दिन से बेसी नहीं हो सकती क्योंकि जिस कल के काम और कमाई का ठिकाना नहीं, उसकी सोचें भी तो कैसे? इस पर बीवी का मुंह फूल जाता और फिर इसी तनातनी में दशरथ परदेस लौट जाता. इस बार होली पर भी ऐसा ही हुआ.

मुंबई पहुंचने के चार दिन बाद दशरथ की तबियत बिगड़ी. फिर कोरोना का शोर और लॉकडाउन. दिहाड़ी बंद और तबियत बिगड़ती रही. हफ़्ता भर पहले दशरथ के मौत की ख़बर घर आई. एक दिन बाद साथी मजदूर किसी तरह मिट्टी लेकर आए. महामारी और लॉकडाउन को लेकर एहतियात बरत रहे हाकिम सजग हो गए. घर पर पहरा बैठा दिया गया. साथ आए रिश्तेदार आइसोलेट  कर दिए गए. सोशल डिस्टेंसिंग के पालन में घर वाले मुंह भी नहीं देख पाए. दशरथ की मिट्टी घर न आने देकर सीधे श्मशान घाट ले गए. पैनडेमिक, सोशल डिस्टेंसिंग, आइसोलेशन जैसे शब्दों से अनजान दशरथ की बीवी को मलाल रह गया कि उसके पति को न तो घर की ड्योढ़ी नसीब हुई, न ही चार लोगों का कंधा.

इहय तव समय हय, दुइ-चार रुपिया कमाए कै

खुल्दाबाद बैरिकेडिंग | सुबह करीब पांच बजे

– ट्राली रोको. क्या लादे हो?

– हरी सब्जियन हैं साहिब.

– कहां से ला रहे हो, कहां ले जा रहे.

– मुंडेरा मंडी से लाय रहेन, अतरसुइया, कल्यानीदेवी म बेचय जाय रहेन साहिब.

– मालूम नहीं लॉकडाउन है.

– मुला सब कहि रहे लाकडौन म सब्जी-फल बेचय कि छूट है साहिब.

– लेकिन ओवरलोडिंग की तो छूट नहीं है. किनारे खड़ी कर दो ट्राली.

– साहिब चाय-पानी क कुछ लय लेव. हरी सब्जी लइ जाव घरे ताईं।

– बहुत बोलते हो, अच्छा ठीक है जाओ.

सब्ज़ीवाला मोहल्ले में पहुचा तो रोज़ सब्जी लेने वाले मालवीय जी ने पूछा

-परवर कइसे दिहा.

– मालिक 60 रुपिया किलो.

– भिंडी का भाव.

– 50 म लइ लेव.

– एतना महंग काहे. अखबार म त दाम 40 अउर 25 रुपये छपा है.

– इहय त समय हय, दुइ-चार रुपिया हमहू क कमाय लेय देव मालिक. का करी, राहियव म त दुइ-तीन जगह देवय क परत है.

‘शांतिदूत’ भए कोतवाल तो डर…

मीडियावालों ने लॉकडाउन में पुलिसवालों को नई उपाधि बख्शी है – शातिदूत. कुछ इस उपाधि के काबिल होंगे भी.

लॉकडाउन में  ‘शातिदूत’ के मददगार संगठनों के सदस्यों और आम दिनों के मुहलगों की भी बन आई है. वे जगह-जगह बैरिकेडिंग पर दरोगा, दीवान और मुंशी जी के साथ खड़े दिख जाते हैं. कोई भी गुज़रे तो रोक लेते है. भले आवश्यक सेवाओं वाला ही हो.

नुरुल्ला रोड बैरिकेडिंग पर पीली हॉफ जैकेट पहने एक युवक ने एक मीडिया वाले को रोक लिया. सवाल दागा,

– कहां जाय रह्यो, मालूम नय हय रोक है?

– अख़बार वाले हैं.

– कारड देखाव.

– तुम कौन हो, पहले अपना आई कार्ड दिखाओ.

इतने में दीवान जी पलट पड़े. बोले,

– ईगो काहे दिखा रहे हो. आई कार्ड दिखाओ और जाओ.

तब तक एक लड़का गुटखा और चाय लेकर आ गया. इस बीच अख़बार वाले भाई ने कार्ड दिखाया तो दीवान जी बोले – जाओ का कहे, हर दूसरा तो ख़ुद को प्रेस वाला बताता है और फिर चाय-पानी में मशगूल भये.

संगमनगरी, शांतिदूत और शराब की त्रिवेणी

संगमनगरी के पियक्कड़ों की परेशानी इन दिनों थोड़ी बढ़ गई है. हालांकि बंदी के अंदेशे में उन्होंने स्टॉक किया पर यह नहीं पता था कि मामला इतना खिंचेगा. देसी वालों के लिए तो कछार से दरिया के रास्ते खेप आ-जा रही पर अंग्रेजी वालों को अधिक मशक्कत करनी पड़ रही. सारी दुकानें सड़क पर हैं. और सड़क पर पुलिस का पहरा है.

ख़ुशामद का मौक़ा लगते ही चार-छह पेटी निकल आती है. लेकिन किसी ने होशियारी दिखाई तो मामला बिगड़ जाता है. सिविल लाइंस में एक दुकान वाले ने दिखा दी होशियारी. अकेले ही कमाने की सोच ली. भरी दुपहरी में मोटर लेकर दुकान पहुंच गया, जितनी और जितने तरह की चार पेटियों में भर पाया, भरकर कर लाद लीं. निकलने ही वाला था कि पुलिस ने धर लिया. मामला फंस तब गया, जब मौक़े की एक तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हो गई. दरअसल तस्वीर में वह बोतल भी दिखाई दे रही थी, जिसका जिक्र पुलिस के ब्योरे में दर्ज ही नहीं था.

तब से मामले की जांच चल रही. दिन-रात मेहनत कर रहे शांतिदूतों को ज़रूरतमंद मानने के लिए जाने क्यों कोई तैयार ही नहीं है?

सोरांव के शांतिदूत तो दो कदम आगे निकले. थाने के मालख़ाने में पिछले साल से ही बेकार पड़ी पेटियों में से 116 पेटियां लॉकडाउन के दौरान कम हो गईं. मामले की नज़ाकत समझ आने के पहले एक पुराना प्रधान पुलिस के हत्थे चढ़ा तो पता चला कि उसके पास जो मिला है दरअसल थाने का ही माल है. सिपाही और दीवान मालख़ाने से निकालकर उसे दे देते हैं. तो अब सिपाही गिरफ़्तार और दीवान फ़रार है.

और सच्चे हमसुख़न भी…

शहर में एक तबका ऐसा भी है ,जो समाजशास्त्र की भाषा में सीमांत मानव (मार्जिनल मैन) कहा जा सकता है. ये लोग इंतज़ामिया की ओर से तय ग़रीबी के दायरे में आते नहीं और ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी चीज़ें बाबा के मोल ख़रीद नहीं सकते. हाथ फैलाने में हेठी होती है और न फैलाएं तो जान पर बन आती है.

हनुमानगंज इलाक़े के एक पंडित जी की व्यथा कुछ ऐसी ही थी.  और  दिनों में ध्यान-धर्म की नगरी में दान-दक्षिणा से दिन कट रहे थे पर इधर घर से निकलना बंद हुआ तो दान-दक्षिणा भी बंद. कुछ दिनों में फाक़ाकशी की नौबत आ गई. एक रोज़ कुछ लोग ग़रीबों को भोजन और राशन के पैकेट देने आए तो बच्चों का भूखा चेहरा याद करके पंडित जी ने घर से बाहर निकलकर पैकेट हासिल करने का विचार किया. बांटने वाले ग़रीबों की बस्ती की तरफ़ जा रहे थे और मांगने वाले घेरे हुए थे. पंडित जी को लगा कि ग़रीबों का हिस्सा लेना ठीक नहीं और ख़ामोश होकर बैठ गए. कुछ देर बाद ही बेटे को मां से खाने के लिए मचलते देखा तो बाहर निकल पड़े. अनाज बांटने वाले लौट रहे थे. पंडित जी ने सकुचाते हुए अपनी व्यथा बताई तो उन लोगों ने कहा कि अनाज का एक ही पैकेट बचा है, वह भी फट जाने के कारण. आटा, दाल, चावल सब मिल गया है. पंडित जी ने कहा वही दे दीजिए, पका लेंगे. बच्चे की भूख तो मिटेगी और फटा पैकेट गमछे में सहेजते घर आ गए.

उन लोगों ने अब ऐसे लोगों की पहचान भी शुरू कर दी है जो ज़रूरतमंद तो हैं, मगर क़तार में खड़े नहीं हो सकते. ग़रीबों की तो मदद कई लोग कर हे पर इस तरह ऐसे लोग भी नज़र आए जिन्होंने संकोची लोगों का भी सोचा. ग़ालिब ने इन्हें ही शायद हमसुख़न (हमदर्द) कहा है.

 

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