रंगमंच इब्राहिम अल-क़ाज़ी की बेमिसाल शख़्सियत का बस एक पहलू

इब्राहिम अल-क़ाज़ी भारतीय रंगमंच में उस किंवदंती की तरह है जो हमारी पीढ़ी तक दंतकथाओं के रास्ते पहुंचे हैं. ठीक वैसे ही जैसे भारतीय मिथकों और महाकाव्यों का पारायण किए बिना हम उनका अधिकांश जानते हैं या जानने का दावा करते हैं. इसी तरह हमारी पीढ़ी के लोगों तक अल-क़ाज़ी साहब अनेक स्रोतों से पहुंचे थे. हमारे पास उनकी प्रस्तुति को जीवंत रूप में तो क्या दस्तावेज़ी रूप में भी देखने की सुविधा नहीं थी. रंगकर्म से वो विरत हो चुके थे. रंगकर्म से 1977 में ही वो अलग हुए थे पहली बार. इससे पहले 1962 से 1977 तक वो लगातार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के निदेशक रहे. सात साल पहले उस संस्थान का निदेशक बनने का प्रस्ताव उन्होंने ठुकरा दिया था क्योंकि उनकी उम्र महज 29 साल थी. यह पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की दृष्टि थी जो उन्होंने उनकी प्रतिभा को पहचान लिया था.

इब्राहिम अल-क़ाज़ी लंदन के प्रतिष्ठित रॉयल एकेडमी आफ ड्रामेटिक आर्ट्स (राडा) से प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके थे. बंबई को ही उन्होंने अपनी रंगमंचीय गतिविधियों का केंद्र बनाया था, जिसमें प्रदर्शन और प्रशिक्षण दोनों ही शामिल था. वस्तुत: मुम्बई के प्रयोगशील रंगमंच की शुरूआत भी अल-क़ाज़ी और उनके द्वारा स्थापित रंगकर्म से होती है. 1961 में एनएसडी का निदेशक बनने का उनको दुबारा प्रस्ताव मिला, इस बार वो राजी हो गए. क्योंकि अब उन्होंने ख़ुद को तैयार पाया था. वो राष्ट्रीय स्तर पर और राष्ट्रीय भाषा में काम करना चाहते थे. इब्राहिम अल-क़ाज़ी के एनएसडी का निदेशक बनने के बाद भारतीय रंगमंच फिर वैसा ही नहीं रहा. इसमें एक गुणात्मक परिवर्तन आया.

एनएसडी को उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुकूल गढ़ा और ऐसी प्रस्तुतियां की और ऐसे स्नातक तैयार किए, जिन पर संसार का कोई भी रंगमंच गर्व कर सकता है. 1977 में उन्होंने एनएसडी के निदेशक पद से त्यागपत्र दे दिया और रंगमंच से भी अलग हो गए. त्रिवेणी आर्ट गैलरी में कला संग्रह पर उनका ध्यान गया और इस क्षेत्र में भी उनका काम महत्त्वपूर्ण है. वह बंबई में प्रगतिशील कलाकारों के संघ से जुड़े थे. भारतीय रंगमंच में उनकी कमी महसूस निरंतर की गई और ऐसी कमी जिसकी भरपाई वो अपनी वापसी पर भी नहीं कर सके थे. नब्बे के दशक में उन्होंने रंगमंच पर वापसी की, निर्देशन और प्रशिक्षण का कार्यक्रम फिर शुरू किया लेकिन सबने महसूस किया कि इस बार वो बात नहीं थी.

इब्राहिम अल-क़ाज़ी की प्रस्तुतियों की रेंज बहुत व्यापक है. एक तरफ उन्होंने नए भारतीय नाटककारों को रंगमंच पर भव्य पैमाने पर प्रस्तुत किया जैसे धर्मवीर भारती का ‘अंधा युग’, मोहन राकेश का ‘आषाढ़ का एक दिन’, गिरीश कारनाड का ‘तुगलक़’. दूसरी तरफ उन्हों विश्व क्लासिक नाटकों ‘कंजूस’(मौलियर), ‘लुक बैक इन एंगर’(जॉन ऑसबार्न), ‘जूलियस सीज़र’(शेक्सपीयर), हाउस ऑफ बर्नार्ड अल्बा(लोर्का) और संस्कृत नाटक ‘मृच्छकटिकम्’ की भी प्रस्तुति की. अल-क़ाज़ी रंग स्थल को प्रोसेनियम से बाहर निकालकर पुराना क़िला, फिरोजशाह कोटला का क़िला, कैलाश कालोनी जैसे वैकल्पिक स्पेस में लेकर आए. संगीत नाटक अकादमी में स्थित मेघदूत थियेटर की परिकल्पना की, जिसका कुछ साल पहले अकादमी ने अल-क़ाज़ी रंगपीठ नामकरण किया, उन्होंने दर्शकों को रंगमंच तक ले आने की पहल की.

इब्राहिम अल-क़ाज़ी के व्यक्तित्व में प्रशिक्षक का व्यक्तित्व अधिक हावी रहा है, ऐसा लगता है. उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि उम्दा क़िस्म का रंगमंच तैयार और अनुशासित अभिनेताओं के बिना संभव नहीं है. इसलिए उन्होंने अभिनेताओं के सर्वांगीण प्रशिक्षण की नींव डाली- आवाज़, रंग भाषण, शरीर, दिमाग़, सोच आदि सब कुछ को प्रशिक्षित करने का पाठ्यक्रम विकसित किया. उनके छात्र याद करते हैं कि वो सर्द सुबह में भी अपने छात्रों को उनके कमरे से अभ्यास के लिए जगाते थे तो यह भी नज़र रखते कि छात्र कौन-सी किताब पढ़ रहे हैं, कौन-सी फ़िल्म देख रहे हैं.

इब्राहिम अल-क़ाज़ी अरबी मां-बाप की संतान थे, जन्म पुणे में हुआ और कार्यक्षेत्र बंबई और दिल्ली रहा. उनके घर में सिर्फ़ अरबी ही बोलने का नियम था लेकिन इनकी मां उर्दू, हिन्दी, मराठी, गुजराती और पिता अरबी और टूटी-फूटी हिंदुस्तानी जानते थे. बचपन और किशोरावस्था बंबई के विविधतापूर्ण सामाजिक सरंचना में गुजरा था और वे ख़ुद स्वीकार करते थे कि उनके बनने में विभिन्न अस्मिताओं का योगदान है. वे विश्व की सभी रंग परंपराओं से अवगत थे और उनके उदाहरण भी वही से आते थे. वे बराबर यह ज़ोर देते कि आधुनिक समय में कला वह स्थल है जहां देश की सीमायें धुंधली हो जाती है और कला की कोई भी प्रगति किसी देश की प्रगति न होकर समूची मानवता की प्रगति है और आधुनिक समय की मांग है कि एक अंतरराष्ट्रीय शैली विकसित हो, जो एक ही समय में उतनी ही देशी हो जितना अंतरराष्ष्ट्रीय.

अल-क़ाज़ी रंगमंच की किसी एक स्थिति को भारतीय स्थिति नहीं मान सकते थे. उन्हें पता था कि भारत में रंगमंच की तीन परंपराएं हैं – एक संस्कृत की है जिसका संपर्क टूट गया है, और उसका जीवित साक्ष्य नाटकों के अतिरिक्त नहीं मिलता शैली और स्थापत्य के रूप में. दूसरा समकालीन रंगमंच जिसकी प्रेरणा पश्चिमी रंगमंच है और इन दोनों (संस्कृत और आधुनिक) के बीच इतनी चौड़ी खाई है कि जिसे पाटा नहीं जा सकता. उनके बारे में रूढ़ मान्यता है कि वो पाश्चात्यवादी थे लेकिन सत्य यह है कि उन्होंने शांता गाँधी को ‘जस्मा ओडन’ की प्रस्तुति के लिए प्रोत्साहित किया और शिवराम कारंथ को एनएसडी में आमंत्रित कर रंगकर्मियों को ‘यक्षगान’ का भी प्रशिक्षण दिया. भारतीय रंग प्रशिक्षण से उन्होंने कार्ल वेबर, फ्रिट्‍ज बेनेविट्ज और रिचर्ड शेखनर जैसी विश्व रंग जगत की हस्तियों को जोड़ा.

हिन्दी को राष्ट्रीय रंगमंच की भाषा या रंगमंच की केन्द्रीय भाषा बनाने में भी इब्राहिम अल-क़ाज़ी का अहम योगदान है. उन्होंने अपने दिल्ली आने के बाद और एनएसडी की स्थापना के बाद हिन्दी भाषा की उम्दा प्रस्तुतियों से लगभग यह तय कर दिया कि हिन्दी ही दिल्ली रंगमंच की केंद्रीय भाषा होगी. इब्राहिम अल-क़ाज़ी दिल्ली जब आए तो यह उनको “एक परम सांस्कृतिक रेगिस्तान” लगी जहां उनको सब कुछ शून्य से शुरू करना था.

इस तथ्य को वह रेखांकित भी करते हैं कि दिल्ली में रंगमंच उच्चायोगों से शुरू हुआ है मुख्यत: अंग्रेज़ी में. यहां के अंग्रेज़ी रंगमंच से वह बहुत प्रभावित नहीं थे. उनका स्पष्ट विचार था कि रंगमंच की भाषा अंग्रेज़ी रखने से इसका व्यापक दर्शक वर्ग कभी तैयार नहीं होगा. अंग्रेज़ी क्योंकि एक छोटे से वर्ग की भाषा है और रंगमंच की निरंतरता के लिये इसे मध्य और निम्न वर्ग तक पहुँचना होगा, जिसकी भाषा हिन्दी या कोई भी क्षेत्रिय भाषा ही होगी. ग़ौर करने वाली बात यह है कि अल-क़ाज़ी बंबई से दिल्ली आते हैं जहां वह लगभग एक दशक तक मुख्यतः अंग्रेज़ी थिएटर करते रहे थे. वे स्वीकारते भी हैं कि अंग्रेज़ी का उपयोगितावादी इस्तेमाल वह करेंगे ताकि दुनिया से जुड़े रह सकें लेकिन रंगकर्म की भाषा अंग्रेज़ी नहीं होगी.

एलिया कजान और ब्रेख़्त के योगदान की चर्चा करते हुए अल-क़ाज़ी कहते हैं, “एलिया कज़ान और ब्रेख़्त की महानता इस तथ्य में है कि उन्होंने चीज़ों को कहने का जो तरीका खोजा वह समय के तालमेल में था. उनका युग एक नई रंग-भाषा की मांग रहा था उन्होंने वह रंग-भाषा खोजी. यह ऐसे प्रतिभाएं है जो एक ऐसी कला शैली निर्मित करते हैं, जो एक ही समय में निजी और राष्ट्रीय दोनों होती है”. अल-क़ाज़ी का यह कथन उनके काम के परिभाषित करने के लिए भी सटीक है.

उनका संघर्ष भी एक ऐसी भाषा, ऐसी शैली, ऐसी भारतीयता खोजने का है, जो उनके समय की हो. उनके चिंतन में यह दबाव दिखता है. वह रंगमंच के हर घटक को अपने समय से जोड़ कर परिभाषित करते हैं और एक नई दृष्टि निर्मित करने की कोशिश करते हैं, जिसमें विविधता के लिये भी पर्याप्त लचीलापन है. तैयारी, अनुशासन, सफ़ाई, बारीकी, ब्यौरा, इत्यादि उनकी शैली की विशिष्ट पहचान है जो उनकी चिंतन में भी परिलक्षित होता है. उनके चिंतन के रंगमंच में कला के प्रति उतनी ही सजगता है जितनी कला के सामाजिक सरोकार के प्रति वह ऐसे रंग-चिंतक नज़र आते हैं, जो भारतीय रंगमंच की भारतीय पहचान के साथ एक अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति चाहते हैं.

जैसा कि पहले कहा कि मुझे उनकी प्रस्तुति देखने का अवसर नहीं मिला लेकिन प्रस्तुति की तैयारी के अंश की झलक उनके रंगकर्म पर लगी प्रदर्शनी में देखने को मिली थी. ये झलकियाँ उन नाटकों के रिहर्सल की हैं, जब वह राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल में तीन प्रस्तुतियां ‘जूलियस सीज़र’, ‘रक्त कल्याण’ और ‘दिन के अंधेरे में’ निर्देशित करने आए थे. परफ़ेक्शन की उनकी माँग को इन झलकियों में महसूस किया जा सकता है. समीक्षक और छात्र बताते हैं कि उनकी प्रस्तुति मंच पर जाने से पहले मस्तिष्क में कैसे पूरी तरह से नियोजित होती थी, मंच कलाकृति की तरह कुछ भी अनावश्यक नहीं – न एक रंग और न एक रेखा, अभिनेता एकदम तैयार. पेशेवर प्रस्तुति का अनुशासन भी आधुनिक रंगमंच को उन्होंने सिखाया.

अल-क़ाज़ी साहब आज नहीं हैं लेकिन भारतीय रंगमंच को सच्चे मायनों में आधुनिक बनाने वाले रंगकर्मी की विरासत उनकी कृतियों और सबसे अधिक उनके छात्रों में सुरक्षित है. आज़ादी के बाद भारतीय रंगमंच के इतिहास का बड़ा हिस्सा अल-क़ाज़ी और उनके छात्रों के रंगकर्म का इतिहास है. इब्राहिम अल-क़ाज़ी भले रंगमंच से अलग हो गए थे, रंगमंच ने उनको कभी अलग नहीं किया और रंगमंच इब्राहिम अल-क़ाज़ी की बेमिसाल शख़्सियत का बस एक पहलू था.

फ़ोटो | न्यूज़डी से साभार

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