संस्मरण | कोपाई, तुम बहती रहना
‘अमी जतो दूर जाई, आमार संगे जाए एकटा नदीर नाम’, किसी कवि की यह कल्पना तब जैसे साकार होती हुई लगी, जब प्रयागराज के पिछले कुंभ में संस्कार भारती के गंगा मनुहार कार्यक्रम की संकल्पना के बारे में जाना. हमारे लोक जीवन में भी कहा गया है, ‘कोस-कोस पर बदले पानी, पाँच कोस पर बदले बानी’. नदियों में बहने वाली सदानीरा जलराशि हो या महानद विराट प्रवाहमान जल नदियों का प्रवाह – हमारी परंपरा, सभ्यता, लोकजीवन, संस्कृति, कविता, कहानी, साहित्य, मेले-ठेले, फ़सल, भूमि, वन्यजीव, खानपान, उपज, रीति-रिवाज़, इतिहास, भूगोल, कथा, कहानी का अनवरत क्रम चलता है. नदियों से हम कब दूर जा सकते हैं, नाम भले ही बदल जाए पर नदियां तो हमारे जीवन का आधार हैं.
जब-जब नदियों को बहते हुए देखता हूं, उसकी चमकदार धारा को निहारता हूं तो मन हिलोरे लेने लगता है. पश्चिम बंगाल में अपनी कर्मभूमि बनी तो महानंदा, रंगीत, तीस्ता, पद्मा, रूपनारायण, सुवर्णरेखा कितने ही नाम जुड़ते चले गए. शांतिनिकेतन, रविंद्रनाथ ठाकुर, बोलपुर, बाउल, कोपाई जैसे एक ही शहर की काया के पंचभूत हो गए हैं. ये एक दूसरे के बिना अपूर्ण, अधूरे, अनमने ही रहेंगे. कोपाई की कथा कई बार पढ़ी थी, सुनी थी. कवि गुरु का कोपाई के प्रति अगाध लगाव उनकी कविताओं में झलकता है.
कोपाई कभी लोकगीतों में, कभी बाउल के स्वरों में, कभी मादल की आवाज़ में, कभी प्रकृति के पुत्र संथालों की काया में दिखाई पड़ती है. इस बार मन की यह साध कोपाई को देखकर पूरी हो गई. कोपाई पश्चिम बंगाल के 110 किलोमीटर के इलाक़े में बीरभूम ज़िले के बोलपुर, शांतिनिकेतन, किरनाहर, कंकालताली, लाभपुरी से बहती हुई मयूराक्षी नदी में जाकर उसकी सहायक नदी बन जाती है.
धान के खेतों के बीच सूखी दुबली-सी कोपाई गर्मियों में इस तरह ही दिखाई पड़ती है, जैसे प्रकृति की कठोरता से वह सूख गई हो, वहीं बरसात के आते ही कोपाई प्रकृति के वरदान से भरपूर बलशाली हो जाती है. तब कोपाई अपने दोनों तटों के बीच लबालब बहती है. शांतिनिकेतन से कुछ ही दूर होने के कारण रविंद्रनाथ कोपाई को अपना पड़ोसी मानते हुए लिखते हैं-
एखन अमर प्रतिवेशेनी कोपाई नदी
प्राचीन गोत्र गरिमा नोई तार
अनार्य तार नाम
ग्राम संगे तार गोला गोली
स्थल संगे जले नोई विरोध
तार ए पारे संगे वह पारे कथा चले सहज.
अपनी लंबाई में कोपाई झारखंड के जामताड़ा ज़िले के खजूरी गांव से चलकर बोलपुर शांतिनिकेतन में हसुली की तरह वक्राकार होकर बहती है. यह लाभपुर के पास बकरेश्वर नदी में मिलकर उसकी सहायक नदी बन जाती है. कोपाई के इसी वृत्ताकार रूप पर मोहित होकर उपन्यासकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय ने ‘हसुली बेन्केर उपकथा’ नाम से उपन्यास लिखा, जिस पर मशहूर फ़िल्मकार तपन सिन्हा ने फ़िल्म भी बनाई –
अमादेर छोटो नदी चोले बेके
वैशाख मासे तार हाटू जल थाके.
कोपाई, जिसे साल नदी के नाम से भी जाना जाता है, प्रकृति, मानव और नदी के समन्वय का सुन्दर उदहारण भी है लेकिन जिस तरह से जनसंख्या का दबाव बढ़ रहा है, सैलानियों की बढ़ती हुई तादाद देखते हुए नए-नए रिज़ॉर्ट और होटल खेतों के बीच खड़े होते जा रहे हैं, जिस तरह वन सम्पदा सिकुड़ती जा रही है, वह रवीन्द्रनाथ की प्रिय नदी कोपाई के भविष्य के लिए चेतावनी भी है. खेतों में जगह-जगह ईंट के भट्ठे दिखाई पड़ रहे है. नदी भले ही सूख रही हो लेकिन उसकी तलहटी से बालू खनन का अवैध कारोबार चल रहा है.
नदी पर बनाए गए बांध भी नदी का प्रवाह रोक ही रहे है. बढ़ता हुआ पर्यटन, पर्यटकों की दिनोंदिन बढ़ती संख्या, एडवेंचर के चक्कर में जल-थल-नभ तक मानव की अचिन्तनशील सोच कोपाई की इस सुंदरता पर लगातार ख़तरे की तरह डोल रही है. नदी तुम बहती रहना, तुम बहोगी तो तुम्हारे साथ बहेंगे विरासत, परंपरा, साहित्य, कविता, लोकगीत, बाउल मादल के सुर. नदी तुम बहो, अपने तटों को समृद्ध करो शस्य श्यामला उर्वरा भूमि से प्राणवंत करो इस धरा को, महुआ, बांस, सोनाछुरी के वृक्षों से, तुम बहो तो तुम्हारे संग बहेगा शांति निकेतन का ज्ञान, जगेगी कवि गुरु की कविता, साक्षात हो जाएंगी राम किंकर की मूर्तियां, तुम बहो ताकि रांगा, माटी के इस देश में लाखों लाख पर्यटक अपनी सौन्दर्य चेतना को जागृत करने के लिये तुमको निहारते रहे.
कोपाई परंपरा से लेकर पर्यटन तक हमारी नसों में प्रवाहित हो रही है. इस प्रवाह को प्रदूषणमुक्त, पॉलीथिन मुक्त, कचरा मुक्त बनाने की बहुत ज़रूरत लगती है. शुभेंदु मैती के गाये कोपाई के इस गीत में वहां की साँसों की धड़कन सुनाई पड़ती है, आप भी अनुभव कर सकते हैं –
मन खोपा, सोनाछुरी छाड़ा मनाए ना,
सोनाछुरी, कोपाई नदी छाड़ा मनाए ना,
कोपाई नदी, जल छप छप छाड़ा मनाए ना,
तैमून जले, चाँदें आलो छाड़ा मनाए ना,
महुल फूल , महुआ गाछ छाड़ा मनाए ना,
महुआ गाछ, लाल पहाड़ी छाड़ा मनाए ना,
लाल पहाड़ी, मादल ताल छाड़ा मनाए ना,
मादल ताल , माटी सुर छाड़ा मनाए ना,
माटी गान , माटीर मे छाड़ा मनाए ना,
माटीर मे, कालो मरद छाड़ा मनाए ना,
सोनाछुरी, कोपाई नदी छाड़ा मनाए ना
(मेः लड़की)
कवर | Biswarup Ganguly/ wikimedia commons
सम्बंधित
विद्रोहे बंगाली | एक बंगाली के संस्मरण
एनसीजेड़सीसी के दिन | सेनानी करो प्रयाण अभय
अपनी राय हमें इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.
अपना मुल्क
-
हालात की कोख से जन्मी समझ से ही मज़बूत होगा अवामः कैफ़ी आज़मी
-
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
-
सहारनपुर शराब कांडः कुछ गिनतियां, कुछ चेहरे
-
अलीगढ़ः जाने किसकी लगी नज़र
-
वास्तु जौनपुरी के बहाने शर्की इमारतों की याद
-
हुक़्क़ाः शाही ईजाद मगर मिज़ाज फ़क़ीराना
-
बारह बरस बाद बेगुनाह मगर जो खोया उसकी भरपाई कहां
-
जो ‘उठो लाल अब आंखें खोलो’... तक पढ़े हैं, जो क़यामत का भी संपूर्णता में स्वागत करते हैं