कुंभ का मेला और बब्बन मामू की याद

  • 11:37 am
  • 27 February 2025

कोई पांच दशक पुरानी बात होगी, इलाहाबाद में हमेशा की तरह कुंभ पड़ा था. मैं कीडगंज में अपनी ननिहाल आया हुआ था. ननिहाल में रहना मुझे बहुत भाता था. हर उसे मौक़े पर जब छुट्टी हो, मैं वहीं चला जाता. ख़ासतौर से कुंभ मेला हो, हर साल पड़ने वाला माघ मेला हो या दधिकांदो का जुलूस… मेले का कोई मौक़ा हो, मैं वहीं होता था तो उस कुंभ मेले के वक़्त में भी मैं अपने ननिहाल में था.

उस बार ठंड बहुत थी, बेपनाह ठिठुरन थी. हम लोग हीटर से अपने-अपने कमरों को गर्म करने के बाद सोए हुए थे. रात में अचानक शोर-शराबे की हल्की आवाज़ कानों में पड़ी. आंख खुली, घड़ी पर नज़र गई, एक बजे से ऊपर का वक्त था. नानी जान बिस्तर से उठ कर बारजे की तरफ़ जा रही थीं. मैं भी उनके पीछे-पीछे चल दिया. उन्होंने बारजे पर पड़े पर्दे की आड़ से झांक कर देखा. देखा तो लोग ठंड से परेशान थे. काफ़ी लोग हमारे घर के बाहर चबूतरे पर इकट्ठा थे. सब के सब किसी तरह ख़ुद को ठंड से बचाने की कोशिश कर रहे थे. और इस कोशिश में पस्तहाल भी दिख रहे थे. कई-कई लोग एक ही कंबल से ख़ुद को ढांकने की कोशिश कर रहे थे. यह सब कुछ मैं भी देख रहा था.

यह मंज़र देखकर नानी से रहा नहीं गया, बोलीं- बेचारे कहां से आए होंगे. फिर अचानक उन्होंने ग़ौर किया कि कितने ही लोगों के पास कंबल भी नहीं है और वे सिर्फ़ चादर लपेटे हुए हैं. इस बात का एहसास होते ही उन्होंने नाना जान को भी जगाते हुए उनसे कहा- माफ़ करना मैं सोते से उठाती नहीं मगर मुझसे रहा नहीं गया. यह जो नहनिए (श्रद्धालु) आए हुए हैं, वे ठंड से परेशान दिखते हैं. कुछ के पास तो कंबल भी नहीं है, सिर्फ़ चादर है. कहिए तो घर में मेहमानों के लिए जो कंबल रखे हुए हैं, उन्हें पहुंचवा दें.

नाना ने उनकी तरफ़ देखा, और कहा कि ठीक है. फिर, ज़रा रुको, कहते हुए वह बिस्तर से बाहर आए और उन्होंने घर में काम के लिए रहने वाले बब्बन को जगाया. घर के हर काम की सारी ज़िम्मेदारी बब्बन पर ही थी. तो उन्होंने बब्बन को ताक़ीद की कि वह जाकर काम करने वाले सारे लोगों को बुला लाएं.

मेरे नाना का नाम सज्जाद हुसैन था. उन्होंने बब्बन (जिन्हें हम लोग मामू कहते थे) से आसपास के रहने वाले सभी नौकरों को बुलवाया और खेत से सब्ज़ी लाने वाली बैलगाड़ी और घर की सवारी लाने-ले जाने वाले के इक्के के साथ आने को कहा. दूसरे नौकरों को भी बुलवा लिया.

सब से पहले तो उन्होंने पास की ही टाल से कुछ लकड़ियां मंगाई और बाहर चबूतरे पर दो-तीन अलाव जलवा दिए. घर के नीचे का हिस्सा खुलवाकर काफ़ी लोगों को बुलाकर बैठक में ले आए. वहां का आतिशदान भी जलवाया गया. श्रद्धालु ज्यादा आए तो उन्होंने घर के नीचे का पूरा हिस्सा उनके हवाले कर दिया. वैसे भी आमतौर पर नीचे का हिस्सा मेहमानों के रहने के लिए ही था, और इस हिस्से में नहाने-धोने, टॉयलेट-बाथरूम का मुकम्मल इंतज़ाम भी था.

अब तक उनके बुलवाये हुए काम करने वाले दूसरे लोग भी आ गए थे तो उन्हें कंबल लेने भेज दिया. पास ही में कंबल बेचने वाली तीन-चार दुकानें थीं. रात में दुकानें खुलवाई गईं और वहीं से बैलगाड़ी और इक्के में भरकर कंबल ले आए गए और तमाम लोगों को दे दिए गए.
इधर इसी बीच नाना ने घर के खानसामा को चाय बनाने के लिए कह दिया. खानसामा ने नीचे के आंगन में चाय बनाई और ठंड से पस्त उन सारे लोगों को चाय पिलवाई.

सवेरा होने पर घर और बाहर ठहरे हुए सारे लोगों को चाय और उसके साथ नाश्ता भी कराया गया. इसके बाद तमाम लोग रवाना हो गए. जो लोग बाक़ी रह गए या आते-जाते रहे, उनके लिए उड़द की खिचड़ी बनवाकर उन्हें खाने का न्योता दिया. सबने बड़े मन से खाई. फिर तो यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा. लोग आते रहे-जाते रहे. किसी वक्त पूड़ी-सब्ज़ी तो कभी ताहेरी भी बनती रही.

मुझे याद है कि इसके बाद भी नाना ने यह सिलसिला कई सालों तक बनाए रखा. माघ मेले के दिनों में उस रहगुज़र से आने-जाने वाले तीर्थयात्री सुस्ताने-आराम करने के लिए अक्सर चबूतरे पर ठहर जाते तो उनकी सहूलियत के लिए बैठक खोल दी जाती थी. उनके लिए नाश्ते-चाय और खिचड़ी का इंतज़ाम किया जाता. सारे ही लोग घर वालों को अपनी-अपनी तरह से दुआओं से नवाज़ते और फिर रुख़सत हो जाते. यह सारा इंतज़ाम नाना ख़ुद खड़े होकर देखा करते थे.

इस बंदोबस्त से नानी जान हमेशा बहुत ख़ुश होतीं. इधऱ-उधर झांक-देखकर लौटतीं तो वह अपना पानदान खोलतीं और पान का अपना बीड़ा बनाकर खातीं. मैं उनके चेहरे पर तसल्ली और ख़ुशी झलकती हुई देखता. वह कहतीं कि ख़ुदा का शुक्र है कि हम लोग उनके बंदों के लिए थोड़ा बहुत कुछ कर पाए. अल्लाह यह तौफ़ीक सबको दे, फिर यह भी कहतीं कि ये सारे लोग जो अपना अक़ीदा (श्रद्धा) लेकर यहां आए हैं, उन्हें उसका सिला (फल) मिले. सब साथ ख़ैरियत के वापस अपने घर पहुंचें. माघ के दिनों में नाना की व्यस्तता और नानी के संतोष का यह भाव स्थायी बन गया था.

… नानी और मेरी अम्मी बताती थीं कि तीर्थयात्रियों की सहूलियत के लिहाज़ से यह सब कुछ पहले से भी होता रहा है. हालांकि नाना और मामुओं के इंतक़ाल के बाद मेरी ननिहाल के घर में यह सिलसिला टूट गया. अलबत्ता ख़ानदान के जिन लोगों यह सब कुछ देखा है, उनके दिलों में आज भी वही जज़्बा है. वे जहां भी हैं, जिस जगह पर भी हैं, जब भी मौक़ा मिलता है, लोगों के साथ खड़े होने और भरसक मदद के लिए आगे बढ़ जाते हैं.

इन यादों में एक नाम बब्बन का आया है. बब्बन हमारे यहां काम करने वाले वालों के मुखिया थे और हमारे ननिहाल में उनकी ख़ूब चलती थी. मामू, मेरी अम्मी या मेरी ख़ालाएं सब पर उनका रुआब रहता. सारे ही उनको बब्बन भाई कहते, सीधे कोई उनका नाम नहीं लेता था. यही वजह है कि मैं और मेरे सारे हमउम्र उनको बब्बन मामू ही कहकर बुलाते थे. मेरे नानी-नाना को वह अम्मा और अब्बा कहा करते थे. बड़े मामू साहब को वह भाई कहकर संबोधित करते थे. जबकि मामू साहब ख़ुद भी उन्हें भाई कहकर बुलाते थे. छोटे मामू साहब का बब्बन मामू नाम लेते थे. इसी तरीक़े से हमारी अम्मी को बाज़ी कहा करते थे और बाक़ी सारी ख़ालाओं को का नाम लिया करते थे, मगर संबोधन बिटिया होता था.

यहां बब्बन मामू को इसलिए भी याद कर रहा हूं कि उनके कंधे पर बैठकर माघ मेला और कुंभ का मेला घूमने का एहसास आज भी बाक़ी है. दरअसल एक बार मैं और मेरी मौसी का बड़ा बेटा दोनों लोग यह ज़िद कर बैठे कि ये जो लोग यहां नहाने आते हैं, वे लोग कहां जाते हैं, हमें भी वहां जाना है. घर के लोगों में किसी की हिम्मत नहीं थी कि हमें लेकर उस भीड़ में जाता तो इस जिद पर हम लोगों को कई बार डांट भी पड़ी, मगर बब्बन मामू ने हम लोगों को मेला घुमाने का वादा कर लिया और नानी-नाना को भी इस बात के लिए राज़ी कर लिया.

हम लोग घर की बग्घी से जहां तक जा सकते थे, वहां तक जा पहुंचे. उसके बाद बब्बन मामू ने बग्घी से उतरकर अपने कंधे पर एक तरफ़ मुझे और दूसरी तरफ़ मौसी के बेटे को बिठा लिया और हम दोनों को पूरा मेला घुमा ले आए. रास्ते में कितनी भी भीड़, कितना भी रेला आया, संतों व बाबाओं की सवारी निकली, मगर उनके कंधे पर बैठकर एक बार भी एहसास नहीं हुआ कि हम कहीं गिर न जाएं. यहां तक कि संगम की धारा में उतरकर उन्होंने हम दोनों लोगों को डुबकी भी लगवाई. ऐसा मौक़ा दो बार आया, जब हम माघ मेला घूमने गए, और वह स्मृति कभी भुलाई नहीं जा सकती.

ऐसे एहसास और यादों को भूल पाना शायद मुमकिन भी नहीं. अब तो अगर सौ बार भी ऐसे मेलों में घूम आए तो वह मज़ा नहीं आ सकता. तो जब कभी भी कुंभ आता है तो बब्बन मामू की याद ज़रूर आती है.

(लंबे समय से अख़बारनवीसी की दुनिया में सक्रिय महबूब आलम पुराने इलाहाबादी हैं. संवाद न्यूज़ से वाबस्ता हैं.)

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