बचपन के बसंत की याद में गुज़रता एक दिन
बसंत का उत्सव किसी ख़ास धर्म-संप्रदाय या जाति-बिरादरी से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि हर शख़्स के लिए यह बराबर की अहमियत रखता है. और ऐसा सिर्फ़ इसलिए कि यह ऋतु परिवर्तन का पर्व तो है ही, मन को भी इतनी ख़ुशी, उल्लास और जोश भर देता है कि हर किसी के लिए ख़ासे महत्व का हो जाता है. मुझे इसका एहसास यूँ भी है कि मेरे परिवार में बसंत मनाए जाने की एक अनूठी परंपरा है. नहीं मालूम कि यह रिवायत कब से चली आ रही है, लेकिन जब होश संभाला, बसंत के मौक़े पर अपने घर में कुछ ख़ास और अनोखा देखता आया. उन्हीं दिनों की कुछ भूली-बिसरी यादें साझा करने का मन हुआ…
याद आता है इलाहाबाद का वह ददिहाली घर, जो ज़ीरो रोड बस अड्डे के सामने पार्क से थोड़ा अंदर जाकर मोहल्ला चक में है, जहां हम रहा करते थे और जहाँ मेरी पैदाइश हुई. भरे-पूरे संयुक्त परिवार वाला यह कुनबा बहुत ख़ूबसूरत लोगों का था. सबके अपने-अपने हिस्से थे, लेकिन आंगन एक…और वहीं हर त्योहार इस ढंग से मनता कि यादगार बन जाता..
बसंत भी हमारे परिवार में कुछ इस तरह की गहमागहमी से मनाया जाता कि ईद से ज़रा भी कम न होता. तब मैं बहुत छोटा था. थोड़ा-थोड़ा होश संभाला तो अपने घर वालों के साथ मैं भी बसंत के उत्सव में शरीक हुआ. घर में दो-तीन दिन पहले से ही तैयारी शुरू हो गई थी. तब तक मैं नहीं समझ सका था कि बसंत क्या है, कैसे मनाया जाएगा. बस सब की ज़ुबान से बसंत.. बसंत.. सुने जा रहा था, ज़ोर-शोर से होती तैयारियाँ देखता रहता था. बाज़ार से रंग लाए गए थे, जिन्हें घर में ही पका कर दुपट्टे और कुर्ते बसंती रंग में रंगे जा रहे थे. हम लोगों के लिए कुर्ते-पाजामे ख़रीदकर लाए गए थे, कुछ के लिए घर में ही सिले गए. दादी, फुफियां और अम्मी अपने लिए कुर्तियां और दुपट्टे लेकर आईं. कुछ लोगों ने पहले से ही बसंती रंग के नए-नए कुर्ते सिलवा रखे थे. कुछ के कुर्ते लखनऊ से मंगाकर रखे गए थे, जिनको बसंत से दो दिन पहले ही घर में रंगा गया था.
बसंत वाले रोज़ घर के सारे लोग सुबह उठकर नहा लिए, हम सब बच्चों को भी नहलाया गया. मन में ख़ुशी और उत्साह इस बात की था कि नए कपड़े पहनने हैं. त्योहार का तो नहीं पता कि कैसे मनाना है, लेकिन कपड़े पहनने की उमंग बहुत थी. संयुक्त परिवार था, लिहाजा सभी लोग हटो-बचो और भाग-दौड़ के बीच तैयार हुए. पीला कुर्ता सफ़ेद पजामा पहना, बड़ों ने भी यही लिबास पहना. मेरे दादा हुज़ूर ने ऊपर से सफ़ेद और बसंती रंग का चेक वाला ख़ूबसूरत-सा अंगोछा डाला हुआ था. घर की औरतों ने बसंती कुर्ती पहना, दुपट्टा ओढ़ा और किसी-किसी ने सलवार भी बसंती रंग की ही पहनी. घर की सभी औरतों ने पीले रंग के फूल का गुफ्फा बनाकर अपने बालों में लगाया, किसी ने जूड़े और कलाई में बांधा, तो किसी ने पीले फूलों का पूरा ज़ेवर ही बना कर पहना. कुर्ते और दुपट्टे रंगने से फेर में उनके हाथ पहले ही बसंती हो चुके थे.
मुझे याद है मेरी अम्मी ने भी पीले फूलों का ज़ेवर पहना था. मेरी छोटी बहन तब गोद में थी, उसको भी बसंती रंग की फ़्रिल वाली एक ख़ूबसूरत फ़्रॉक पहनाई गई थी, बहुत प्यारी लग रही थी वह. घर की खिड़की और दरवाज़ों को पीले फूलों से सजाया गया था. पूरे आंगन पर बसंती रंग की झीनी चादरों को शामियाने की तरह तान दिया गया था, जिससे छनकर आ रही धूप का रंग भी बसंती हो गया था, और उस धूप का मज़ा सभी ले रहे थे. नियाज़ फ़ातिहा हुई और तबर्रुक बांटा गया. इस मौक़े पर सभी लोगों को मेरे वालिद की कमी बहुत खल रही थी. वह नौकरीपेशा थे, इसलिए अक्सर बाहर रहते थे और उन दिनों गोरखपुर में तैनात थे. कभी किसी तीज-त्योहार के मौक़े पर ही घर आते थे. इस बार बसंत पर भी वह नहीं थे. अलबत्ता, कुछ दिन पहले ही उनका ख़त ज़रूर आया था, जिसका सभी लोग ज़िक्र कर रहे थे. बस, हमारे चचाजान हर मौक़े पर हम लोगों के साथ होते.
अभी सुबह ही थी कि सभी लोग जल्दी-जल्दी ख़ानक़ाह जाने की तैयारी करने लगे, यह ख़ानक़ाह अब्दुल वलाई बराबर में ही थी. ज़रा-सी देर में हम सारे ख़ानक़ाह पहुंच भी गए. थोड़ी देर के बाद वहाँ महफ़िल-ए-बसंत सजने वाली थी. ख़ानदान के सारे लोग जमा थे. अक़ीदतमंद और मुरीद भी थोड़ी देर में पहुंचने लगे. धीरे धीरे-धीरे ख़ानक़ाह भर गई. लोग समाखाने में दोनों तरफ़ सफ़ बना कर बैठने लगे. ज्यादातर लोग बसंती कुर्ते और बसंती दस्तार में थे. कव्वालों ने अपनी जगह संभाल रखी थी. थोड़ी देर में इज़ाज़त मिलने के बाद कव्वाल ने हम्द और नात का नज़राना पेश किया. इसके बाद सूफ़ियाना कलाम की झड़ी लगा दी. इसी बीच ख़ानकाह के तत्कालीन साहिब-ए-सज्जादा अपनी मसनद पर तशरीफ़ लाए. हम सब बच्चे उन्हें मियां दादा कहते. उनके तन पर बसंती अंगरखा, सफ़ेद पाजामा, गले में मुर्रेदार बसंती पटका और सर पर बसंती साफ़ा था. चेहरे पर नूर की बारिश रूहानी मंज़र में और इजाफ़ा कर गई. समांखाने में मौजूद सभी लोगों ने खड़े होकर उनका एहतराम के साथ ख़ैर मकदम किया. उन्होंने हाथ से सभी को अदबन बैठने का इशारा किया और ख़ुद भी मसनद पर बैठ गए. मियां दादा ने मुझे बुलाकर अपने बराबर में ही बैठा लिया.
महफिल उरूज पर पहुंचने लगी. कव्वाली का सिलसिला चलता रहा. रूहानी कलाम के साथ कव्वाल ने ख़ास तौर से हज़रत अमीर ख़ुसरो के लिखे कलाम पढ़ना शुरू किया. अब तक सभी झूमने लगे थे. कुछ बसंती गीत भी कव्वालों ने पेश किए. हर कलाम में कव्वालों पर रूपयों की बारिश होती रही. दोपहर तक चली महफ़िल के बाद फ़ातिहा-ख़्वानी हुई. इसके बाद ख़ानकाही रिवायत के मुताबिक केसर और इलायची की सुगंधित जायकेदार चाय अक़ीदतमंदों के बीच तक़सीम की गई. बाद में ख़ास तौर से बताशे व नकुल बतौर तबर्रुक लोगों को बांटा गया. इसके बाद सभी लोग एक-दूसरे को मुबारकबाद देते हुए अपने-अपने घरों को रुख़सत हुए.
घर आए तो मिट्टी की बड़ी-सी हांडी में पूरे घर के लिए खिचड़ी बनाई गई. सभी ने एक साथ चाव से दही, सलाद और चटनी के साथ भर पेट खिचड़ी खाई. इसके बाद फिर घर में संगीत की महफ़िल सजी. ढोलक की थाप पर गीत के साथ कुछ ने कव्वालों की तर्ज पर कलाम पढ़े तो किसी ने बसंत के गीत गए. अब तक दिन ढलने लगा था. शाम होते ही सबने घूमने का कार्यक्रम बनाया. तय हुआ कि फ़िल्म देखने चला जाए. पास के ही मोती महल सिनेमा हॉल में हम सब फ़िल्म देखने गए. दो लोगों को टिकट ख़रीदने के लिए पहले ही भेज दिया गया था. उन्होंने मैनेजर से कह कर बालकनी में पूरी की पूरी क़तार ही बुक कर ली थी. दादा-दादियों को छोड़कर मेरे घर और पड़ोस के रिश्तेदार भी साथ थे. करीब पच्चीस लोग. रात को लौटे तो कुछ घर में खाना बना, कुछ बाज़ार से आया और सभी ने मिल-बैठ कर खाया. देर रात तक बातों का दौर चला और सो गए. इस तरह पूरा दिन ख़ुशियों और बसंत के उल्लास भरे माहौल में गुजर गया. यह सिलसिला आज भी थोड़ा बहुत क़ायम है. बसंत के इस पूरे जश्न में मोहल्ले के कुछ हिंदू और ईसाई परिवार भी हम लोगों के साथ शामिल हुआ करते थे.
बचपन का वो मंज़र, वो ख़ूबसूरत यादें आज भी ज़हन में तरोताज़ा हैं. बरेली में रहकर हर साल बसंत आने पर वह मंज़र आंखों में घूम जाता है और उसी माहौल को तलाशते दिन गुज़र जाता है… बस वो एक सुनहरा बसंत था.
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