वसंत | कुछ कविताएं
वसंत मौसम में बदलाव की ऋतु है. शिशिर की विदाई का मौसम. ऋतु चक्र में फ़सलों के फूलने का और नई ऊर्जा के संचार का मौक़ा. पंचमी सरस्वती के पूजन का दिन है. ऋतुराज की शान में कितनी ही कविताएं और नज़्में रची गई हैं. यहाँ कुछ चुनींदा कविताएं,
वसन्त की परी के प्रति
आओ, आओ फिर, मेरे बसन्त की परी
छवि-विभावरी
सिहरो, स्वर से भर भर, अम्बर की सुन्दरी
छबि-विभावरी
बहे फिर चपल ध्वनि-कलकल तरंग
तरल मुक्त नव नव छल के प्रसंग
पूरित-परिमल निर्मल सजल-अंग
शीतल-मुख मेरे तट की निस्तल निझरी
छबि-विभावरी
– निराला
बसंती तराना
लो फिर बसंत आई
फूलों पे रंग लाई
चलो बे-दरंग
लब-ए-आब-ए-गंग
बजे जल-तरंग
मन पर उमंग छाई
फूलों पे रंग लाई
लो फिर बसंत आई
आफ़त गई ख़िज़ाँ की
क़िस्मत फिरी जहाँ की
चले मय-गुसार
सू-ए-लाला-ज़ार
म-ए-पर्दा-दार
शीशे के दर से झाँकी
क़िस्मत फिरी जहाँ की
आफ़त गई ख़िज़ाँ की
खेतों का हर चरिंदा
बाग़ों का हर परिंदा
कोई गर्म-ख़ेज़
कोई नग़्मा-रेज़
सुबुक और तेज़
फिर हो गया है ज़िंदा
बाग़ों का हर परिंदा
खेतों का हर चरिंदा
धरती के बेल-बूटे
अंदाज़-ए-नौ से फूटे
हुआ बख़्त सब्ज़
मिला रख़्त सब्ज़
हैं दरख़्त सब्ज़
बन बन के सब्ज़ निकले
अनदाज़-ए-नौ से फूटे
धरती के बेल-बूटे
फूली हुई है सरसों
भूली हुई है सरसों
नहीं कुछ भी याद
यूँही बा-मुराद
यूँ ही शाद शाद
गोया रहेगी बरसों
भूली हुई है सरसों
फूली हुई है सरसों
लड़कों की जंग देखो
डोर और पतंग देखो
कोई मार खाए
कोई खिलखिलाए
कोई मुँह चिढ़ाए
तिफ़्ली के रंग देखो
डोर और पतंग देखो
लड़कों की जंग देखो
है इश्क़ भी जुनूँ भी
मस्ती भी जोश-ए-ख़ूँ भी
कहीं दिल में दर्द
कहीं आह-ए-सर्द
कहीं रंग-ए-ज़र्द
है यूँ भी और यूँ भी
मस्ती भी जोश-ए-ख़ूँ भी
है इश्क़ भी जुनूँ भी
इक नाज़नीं ने पहने
फूलों के ज़र्द गहने
है मगर उदास
नहीं पी के पास
ग़म-ओ-रंज-ओ-यास
दिल को पड़े हैं सहने
इक नाज़नीं ने पहने
फूलों के ज़र्द गहने
– हफ़ीज़ जालंधरी
बसंती हवा
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ.
न घर-बार मेरा,
न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की,
न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ.
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
जहाँ से चली मैं
जहाँ को गई मैं –
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत, निर्जन,
हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मैं.
झुमाती चली मैं!
हवा हूँ, हवा मै
बसंती हवा हूँ.
चढ़ी पेड़ महुआ,
थपाथप मचाया;
गिरी धम्म से फिर,
चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा,
किया कान में ‘कू’,
उतरकर भगी मैं,
हरे खेत पहुँची –
वहाँ, गेंहुँओं में
लहर खूब मारी.
पहर दो पहर क्या,
अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं!
खड़ी देख अलसी
लिए शीश कलसी,
मुझे खूब सूझी –
हिलाया-झुलाया
गिरी पर न कलसी!
इसी हार को पा,
हिलाई न सरसों,
झुलाई न सरसों,
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
मुझे देखते ही
अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया,
न मानी, न मानी;
उसे भी न छोड़ा –
पथिक आ रहा था,
उसी पर ढकेला;
हँसी ज़ोर से मैं,
हँसी सब दिशाएँ,
हँसे लहलहाते
हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी;
बसंती हवा में
हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
– केदारनाथ अग्रवाल
आया वसंत आया वसंत
आया वसंत आया वसंत
छाई जग में शोभा अनंत.
सरसों खेतों में उठी फूल
बौरें आमों में उठीं झूल
बेलों में फूले नये फूल
पल में पतझड़ का हुआ अंत
आया वसंत आया वसंत.
लेकर सुगंध बह रहा पवन
हरियाली छाई है बन बन,
सुंदर लगता है घर आँगन
है आज मधुर सब दिग दिगंत
आया वसंत आया वसंत.
भौरे गाते हैं नया गान,
कोकिला छेड़ती कुहू तान
हैं सब जीवों के सुखी प्राण,
इस सुख का हो अब नही अंत
घर-घर में छाये नित वसंत.
– सोहनलाल द्विवेदी
आभार | कविता कोश/ रेख़्ता
कवर | पिक्साबे
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