केदार बाबू | केन में डूबी हुई एक निश्छल मुस्कान

  • 10:21 pm
  • 1 April 2020

केदारनाथ अग्रवाल के बारे में रामविलास शर्मा ने लिखा है कि वह ज़िंदगी भर बांदा में एक ही मकान में रहे. उनकी लाइब्रेरी का ज़िक्र करते हुए उन्होंने लिखा है कि मोटी ज़िल्द वाली ढेरों किताबें जिन्हें जाने कब से पढ़ा नहीं गया होगा मगर केदार उनकी धूल बराबर झाड़ते रहते हैं.

पहली बार जब केदार जी से बांदा में उनके घर में मिला था तो उनकी किताबों के साथ ही एक छोटी सी छड़ी में लगा झाड़न साथ रखा हुआ देखा था. और उन्होंने बताया था कि हर रोज़ सुबह किताबों की धूल झाड़ना भी उनकी दिनचर्या का हिस्सा है.

बांदा में अमर उजाला के ब्यूरो इंचार्ज परवेज़ अहमद के साथ उनसे मिलने गया था. हमारी मुलाक़ात उनकी लाइब्रेरी में ही हुई, जो शायद लाइब्रेरी और बैठक दोनों का काम करती थी. यह उन दिनों की बात है, जब उनके बेटा-बहू मद्रास में रहने लगे थे और पत्नी के गुज़र जाने के बाद घर में वह अकेले ही रहते थे.

हालांकि उनका घर एक बड़े अहाते में था, जिसमें उनके परिवार के लोग भी आबाद थे. उनके खाने-पीने का ख़्याल वे लोग ही रखते. लाइब्रेरी की दीवार पर कुछ तस्वीरें थीं, एक केदार जी की और कुछ सोवियत रूस और दूसरी पत्रिकाओं से निकालकर फ़्रेम किए हुए पन्ने.

बातचीत के बाद उन्होंने वह कमरा भी दिखाया, जिसके बारे में रामविलास शर्मा ने ‘मित्र संवाद’ में लिखा है कि अशोक त्रिपाठी के सिवाय कोई और उस कमरे में नहीं जा सकता है. अपनी पत्नी का कमरा दिखाते हुए कुछ भावुक हो गए थे, केदार जी. बोले, ‘मेरे साथ जीवन बिता दिया. वह तो बड़े घर की बेटी थीं. अतर्रा में चीनी मिल वालों के घर की थीं.’

उस कमरे की दीवारों पर फ़्रेम में जड़ी कई तस्वीरें थीं. इनमें केन नदी के किनारे उतारी गई केदार जी की एक मोनोक्रोम तस्वीर मुझे बहुत अच्छी लगी. मैंने जब उनसे यह बात कही तो उन्होंने कहा, ‘आपको अच्छी लग रही है तो आप ले लीजिए यह फ़ोटो.’

क्षण भर को मैं ललचाया भी मगर यह सोचकर ख़ुद को रोक लिया कि अगर मैंने तस्वीर ले ली तो वह जगह ख़ाली छूट जाएगी और फिर कभी जब वह उस कमरे में जाएंगे तो शायद ख़राब लगे. मैंने इसरार किया कि मैं केन के किनारे ख़ुद ही तस्वीर उतार लूंगा अगर उन्हें असुविधा न हो और वो हमारे साथ नदी तक चले चलें.

क्षण भर सोचकर उन्होंने जवाब दिया – ठीक है. कब चलेंगे? उस वक़्त बाहर तेज़ धूप थी. मैंने शाम का वक़्त तय करने के लिए उनकी इज़ाजत मांगी और वह राज़ी हो गए. परवेज़ ने केन पर केदार जी की कविता याद दिलाई, सुबह में डूबी मुसकान/ मुसकान में डूबी केन/ केन में डूबा मैं/ मुझमें डूबा सौंदर्य/ सौंदर्य में डूबी तुम/ तुम में डूबा दिग्गेश/ आदि से अंत तक/ यही है परिवेश.

थोड़ी देर बैठकर हम लोग शाम को पांच बजे का वायदा करके चलने लगे तो केदार बाबू ने पूछा कि क्या पहनकर चलना ठीक होगा? मैंने कहा, जो भी आपको पसंद हो. बोले, हमें तो यह कुर्ता-पजामा ही ठीक लगता है.

हम बाहर आए तो मैंने परवेज़ को सबसे पहले मोटर का इंतज़ाम करने के लिए कहा. हम दोनों तो परवेज़ की मोटरसाइकिल से बांदा घूम रहे थे. परवेज़ ने किसी परिचित से बात करके शाम को थोड़ी देर के लिए उनकी मोटर मांग ली मगर मोटर थोड़ी देर से आई.

हम दोनों जब केदार बाबू के घर पहुंचे तो देखा कि अपने घर के दरवाज़े की कुंडी का ताला खोल रहे थे. वायदे के मुताबिक़ शाम को पांच बजे वह बिल्कुल तैयार थे और जब हम नहीं पहुंचे तो उन्होंने मान लिया कि शायद अब हम नहीं आएंगे. हमने उसे माफ़ी मांगी, उनके हाथ से ताला-चाभी लेकर कुंडी में ताला लगाया और मोटर में बैठकर केन की तरफ़ रवाना हो गए.

शहर से निकलकर हाई वे पर आए तो पास से सन्न-सन्न गुज़रती मोटरें, ट्रकों के हॉर्न मिले. उन्होंने कहा – बाप रे! सड़क पर ऐतनी भीड़! जब बांदा में इत्ती भीड़ है तो दिल्ली में कितनी भीड़ होगी. हम उनकी इस हैरानी पर हैरान थे. साथ ही यह भी सोच रहे थे कि न मालूम कितने दिनों बाद वह घर से निकलकर इतनी दूर जा रहे हैं. यों उम्र भर वकालत के सिलसिले में तो वह जाने कहां-कहां के सफ़र में रहा करते थे.

सूरज नीचे की तरफ़ आ गया था और मेरे पास वक़्त कम था. पत्थर पर एक जगह रुमाल बिछाकर केदार बाबू से बैठने का आग्रह किया. सूरज डूबने से पहले कुछ तस्वीरें बना लीं. हां, वह फ़िल्म का दौर था, इसलिए अपनी लियाक़त पर भरोसा करके ख़ुद को यक़ीन दिलाया था कि दो-चार तस्वीरें तो ठीक बन ही गई हैं.

केदार जी की तरफ़ देखा तो उन्हें मुस्कराते हुए पाया. वह हाथ के इशारे से किसी को बुला रहे थे. घूमकर देखा तो चट्टान के पीछे से एक नंग-धड़ंग बच्चा शर्माता हुआ झांक रहा था. उसे आवाज़ दी तो धीरे-धीरे चलता हुआ आया.

उन्होंने बच्चे से पूछा – कहां रहते हो? वह कुछ बोला नहीं. हाथ से दूर निषादों के घर की तरफ़ इशारा किया. फिर पूछा – पढ़ने जाते हो? उसने इन्कार में सिर हिला दिया. केदार बाबू ने थोड़ा ज़ोर से कहा – क्यों? पढ़ने क्यों नहीं जाते? बड़े होकर चोर-डाकू बनना है क्या? फिर पास जाकर उसे सिर पर हाथ फेरकर नसीहत देने लगे.

अंधेरा होने लगा था. हमें लगा कि उनको जल्दी से घर पहुंचा देना चाहिए. मगर रास्ते में उनकी बातचीत से मालूम हुआ था कि हम लोगों के तय वक़्त पर तैयार होने के चक्कर में उन्होंने शाम की चाय भी नहीं पी थी. परवेज़ से किसी क़ायदे के चायख़ाने के बारे में पूछा. वह पहले ही तजवीज़ कर चुके थे.

एक ठिकाने पर गाड़ी रोककर उन्होंने चाय बनाने के लिए कहा और ख़ुद एक दुकान में बिस्कुट ख़रीदने चले गए. उस जगमगाती दुकान की तरफ़ कुछ देर देखते रहने के बाद उन्होंने फिर हैरानी से कहा – एक दुकान में इतना सामान! मैं ख़ामोशी से चाय लाने के लिए गाड़ी से उतर पड़ा.

वापस आकर हमने उनके दरवाज़े पर लगा ताला खोला. और वह धम्म से अपनी कुर्सी से बैठ गए. क्षण भर को मुझे मलाल भी हुआ कि अपनी ख़्वाहिश पूरी करने की वजह से मैंने उन्हें ज्यादा थका डाला. मगर दूसरे क्षण वह मुस्कराये थे. उनकी जैसी निश्छल हंसी मैंने अपनी मां के चेहरे के सिवाय कहीं और नहीं देखी.

केदार बाबू के चले जाने के बाद उनके घर पर कब्ज़े के बारे में तमाम ख़बरें पढ़ता रहा था. अपने साथियों से इस बाबत पूछा भी तो मालूम हुआ कि डीएम ने दख़ल देकर ऐसी कोशिशें नाक़ाम करा दीं. यह भी कि उनकी बहू ने एलान किया है कि उनकी किताबों और दूसरी चीज़ों को जुटाकर उनके नाम से संग्रहालय बनाया जाएगा.

उनकी बहू के फ़ैसले के बारे में जानकर कुछ तसल्ली हुई थी. फिर पिछले बरस कई दिनों के लिए बांदा गया तो संग्रहालय देखने और उनकी स्मृति को प्रणाम करने के इरादे से उस अहाते में चला गया था.

बांदा में केदार जी का घर-अहाता, 2019

और जो देखा था, वह फ़ेसबुक पोस्ट में इस तरह दर्ज हुआ किया था –
पिछली बार जब उस परिसर में गया था, इस बरगद के पीछे ईंटों की इस इमारत की जगह पुराने ढब की जो रिहाइश थी, उसमें केदार बाबू, उनकी किताबें, कुछ तस्वीरें और ढेर सारी स्मृतियां रहा करती थीं. केदार बाबू यानी केदारनाथ अग्रवाल. कविताओं से कहीं ज्यादा सरल-सहज उनके व्यक्तिव में खास क़िस्म का अपनापा भी था. अपनी संगिनी के गुज़र जाने के बाद उन्होंने वह कमरा जस का तस सहेज रखा था और अपनी चारपाई किताबों वाले हाल में लगा रखी थी. बेटे का भेजा हुआ वेस्टन का टीवी चादर में गठिया के किताबों की आलमारी के ऊपर रख छोड़ा था. केन तक के रास्ते में मोटरों की भीड़भाड़ और तमाम सामान से भरी दुकानों को देखकर उनकी प्रतिक्रिया किसी कविता सरीखी ही थी. उनके निधन के बाद उनके बेटे के निधन और फिर बहू के उनका घर बेचने, ख़रीदार के कब्ज़े और उसके विरोध की ख़बरें भी अब पुरानी बात हैं. मेरे लिए यह जानना तकलीफ़देह है कि उनकी किताबें, उनका सामान ट्राली में फेंककर लादा गया और फिर न जाने कहाँ बिला गया? बहू की तरफ़ से उनकी स्मृतियों को सहेजने और संग्रहालय बनाने का वायदा भी उन तमाम लोगों की हमदर्दी की तरह झूठा निकला, जो केदार बाबू की स्मृति को सहेजने का संकल्प जताते रहे, और भी जाने क्या-क्या?
आज का सच ईंटों की यह अधबनी इमारत है, बस..बरगद पुराना है, मगर उसमें केदार जी की छाप नहीं मिलती.

कवर | प्रभात.

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