जन्माष्टमी | छप्पन भोग वाली रसोई की याद

हमारे पर्व, त्योहार परम्परा सिर्फ़ मनोरंजन, सामजिकता, इतिहास की स्मृति ही नहीं हैं, सदियों से हमारे शिल्प, गीत, नृत्य, चित्रकला को सजाने-संवारने और पीढ़ी दर पीढ़ी उनको आगे ले जाने का माध्यम भी रहे हैं.

व्रत यानी उपवास रखना हमारी उसी परम्परा का हिस्सा रहा है. हफ़्ते के दिनों में हर दिन किसी देव-देवी के नाम, फिर प्रदोष व्रत, एकादशी व्रत नियमित व्रतों में आते हैं. चैत्र, अश्विन नवरात्र के नौ दिनों के व्रत हों या उतरा-चढी की परम्परा, साल में एक बार ही आते हैं. और हम उन्हें मनाते है. शिवरात्रि और जन्माष्टमी तो साल में एक बार ही आते हैं और जिनको लेकर बचपन की तमाम यादें अब भी ज्यों की त्यों बनी हुई है. उन दिनों जन्माष्टमी और शिवरात्रि के मौक़ों पर हम उल्लास और उत्साह से भरे होते थे, क्योंकि इन व्रतों में अम्मा की रसोई छप्पन भोग से भरी होती थी. यह प्रभु चढ़ाया जाने प्रसाद था, जिसे पाने के लिए हम सब बेताब रहते थे. ये दो त्योहार भारतीय पाक-कला के प्रदर्शन के नायाब उदाहरण है. अम्मा की रसोई के उन छप्पन भोगों में से कुछ की यादों को आपसे साझा करके ताजा कर रहा हूँ.

जन्माष्टमी का सबसे विशिष्ट व्यंजन खरबूज़े के बीज से बनने वाली बर्फी हुआ करती. उन दिनों आम तौर पर सभी घरों में गर्मी में घर आए खरबूज़े के अलग किए हुए बीज को हांडी या किसी बर्तन में रखकर कुछ दिनों तक यों ही छोड़ दिया जाता. फिर उन्हें धोकर सुखाने का अलग विधान था. यह रिवाज भी किसी अनुष्ठान से कम नहीं हुआ करता था. इसलिए भी कि लोग ख़ुद ये बीज फेंककर बाज़ार से ख़रीद लाने में यक़ीन नहीं करते थे.

जन्माष्टमी की तैयारी में इन सूखे हुए बीजों को छीलकर गिरी निकालने का उद्यम महीनों पहले से शुरू हो जाता. इन बीजों को छीलने के लिये नीम की डण्ठल से चिमटी बनाई जाती. सरसों के दाने गिनने या बीनने की तरह ही खरबूज़ के बीज छीलना ख़ासा श्रमसाध्य काम है. लेकिन दादी, नानी, अम्मा गर्मी की दोपहरी बिताने के लिए यह काम जिस ख़ूबसूरती और मन से करती थीं, बाद की पीढ़ी में उतना धैर्य बचा नहीं रह गया लगता है. आज जब यह सब याद कर रहा हूँ तो चमेला दादी की भी याद आ रही है, जो अपनी उम्र होने के बावजूद बीज छीलने बैठ जाया करती थीं.

चीनी के पाग में इन बीजों को मिलाकर बर्फ़ी बनती. कहीं-कहीं खरबूज़ के बीज की खीर या इसे सिर्फ़ तलकर नमकीन भी बनती. और यह स्वाद ऐसा आकर्षण था कि भादों की शुरुआत से ही घर भर के बच्चों को इसकी याद आ शुरू हो जाती. हम बार-बार अम्मा से जन्माष्टमी की तारीख़ पूछा करते. तब जन्माष्टमी दो दिन मनाई जाती थी.

इस बर्फ़ी के साथ ही पोस्ते की हलवे का बेहतरीन स्वाद भी याद आतात है. पोस्ते को बेहद धीमी आंच पर भूनने के बाद फिर दूध के साथ पकाया जाता था. और यह हलवा किसी नायाब ज़ाइक़े को चुनौती देने के लिए काफ़ी था. अब तो ख़ैर पोस्तादाना अपनी औकात से बाहर निकल गया है. क़ीमतों के चलते यह मध्यम श्रेणी के परिवारों की थाली से जाने कब का नदारद हुआ. रामदाना कमोबेश आज भी अपनी जगह बनाए हुए है. सस्ता, हल्का और सुपाच्य होने के नाते इसे भूनकर चीनी के शीरे के साथ लड्डू बनाने में, खीर बनाने में और व्रत में खाने के लिए आज भी बरता जाता है.

हरे या फिर सूखे सिघाड़े का इस्तेमाल हमारे यहाँ व्रत मे कई तरह के नमकीन-मीठे पकवान बनाने में ख़ूब होता है. सिघाड़े के आटे को आलू, अरूई के साथ सानकर इसकी रोटी, पराठा, पूड़ी तो अब भी बनते ही हैं. सिघाड़े के आटे को भूनकर इसकी पंजीरी का भोग भी चढ़ाया जाता है. सिघाड़े की लपसी, हलवा मीठे व्यंजन के लिहाज से बहुत मुफ़ीद है. इसी तरह साबूदाना भी अम्मा की रसोई में कई तरह से इस्तेमाल हुआ करता. साबूदाने के पापड़, साबूदाने का पोहा- खिचड़ी और कभी-कभी साबूदाने की खीर भी छप्पन भोगों मे शामिल रहती थी.

आलू और शकरकंद कभी भी बनाए-खाए जा सकने वाली श्रेणी में आते हैं. इन्हें उबाल कर कई तरह के मीठे या नमकीन पकवान बनते. चिप्स से लेकर दूध के साथ आलू का हलवा, काली मिर्च आलू वाला नमकीन आलू आमतौर पर हमेशा से उपयोग में लाए जाना वाला व्यंजन है. शकरकंद भूनकर या उबाल कर खाने के साथ ही इसका इस्तेमाल सूखे मेवों की खीर बनाने में होता, कभी-कभी नमकीन भी. मूँगफली और मखाना भी इसी श्रेणी मे आते हैं. अम्मा इन्हें झटपट नाश्ते के तौर पर या चाय के साथ देती थीं. तिल, गुड़, कूटू, सिघाड़ा, लौकी, पपीता सब्जी से लेकर खीर बनाने तक इस्तेमाल होते रहे हैं.

संगम में अब तक कितना ही पानी बह चुका है, वक़्त का पहिया बहुत आगे निकल गया है फिर भी अम्मा की रसोई की वह महक नहीं भूलती. जन्माष्टमी के रोज़ तो वह और तेज होकर स्मृतियों में झकोरे ले रही है. इतना कुछ बनाकर खाने के बाद भी आज हम कहते हैं – हमारा फास्ट हैं या सीधे-सीधे कहें तो यह कि आज हम भूखे हैं.

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