गुरुदत्त की एक झलक से खुल गई दादाजी की यादों की गठरी

  • 11:26 am
  • 6 August 2020

दादाजी की पैदाइश यही कोई आज़ादी के दो-तीन साल पहले की रही होगी. उन्होंने बताया कि वह अब पचहत्तर पार हो चुके हैं, हिम्मत जवाब दे रही है. हमने उन्हें टोकते हुए कहा कि अभी तो आपको अस्सी पार करना है, आप पूरी तरह फ़िट हैं. दादाजी दरअसल हमारे मकान मालिक के पिताजी हैं. यों थोड़ा ऊंचा सुनते हैं, लेकिन उनका ऑब्ज़रवेशन तेज़ है. शाम को टहलने के लिए निकलते समय दादाजी बाहर की ओर के कमरे में देख लेते हैं. हमारे इस घर में आने के पहले यही कमरा उनका ठिकाना हुआ करता था, कई साल यहीं गुज़ारे थे उन्होंने. मेरी तेज़ आवाज़ उनके ऊंचा सुनने के लिहाज़ से बड़ी मुफ़ीद है. आजकल वृद्ध लोगों के पास कहने को बहुत कुछ होता है, उन्हें सुनने वाले कम हो रहे हैं, उनके पास बैठने वाले भी.

ख़ैर, बातचीत जब हालचाल से आगे बढ़ी तो उनकी निगाह कमरे में रखी गुरुदत्त की किताब और उनकी तस्वीर पर गई. गुरुदत्त को देख उनकी निगाहों में जैसे नई रौशनी और आवाज़ में जैसी पुरानी खनक वापस सी आ गई हो. वे अतीत में खोते चले गए, उन्होंने फ़ौरन उस आख़िरी फ़िल्म का नाम लिया, जिस पर गुरुदत्त काम कर रहे थे – ‘बहारें फिर भी आएंगी (1966)’. वह कहते हैं- कितना बड़ा नायक था, और कितनी कम उम्र नसीब हुई. इस फ़िल्म का वह गीत दादाजी कैसे भूल सकते थे, जो उनके जवानी के दिनों में मोहब्बत में डूबे हर शख़्स के होंठों पर था.

रफ़ी साहब की आवाज में वह गीत जिसमें हसीं रुख़ पर छाए हुए नूर को दिल मचलने का सबब कहा गया था, वैसे इस गीत में दर्शकों की निगाहें कभी तनूजा पर तो कभी माला सिन्हा पर जा टिकती थीं, दोनों के चेहरे की भाव भंगिमा और जुल्फ़ों-लटों की शरारत कैमरे में बराबर दर्ज हो रही थी. गीत के बोल थे- ‘आप के हसीन रुख़ में आज नया नूर है, मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या क़ुसूर है’. दादाजी के भीतर बहुत कुछ उमड़ रहा था.वह बोलना बहुत कुछ चाह रहे थे, लेकिन शब्द गले से बाहर नहीं आ रहे थे. उनके चेहरे के हाव-भाव हज़ारों शब्दों में भी बयाँ करना मुश्किल है. एक तस्वीर उनके भीतर कितना कुछ गुदगुदा गई थी, भूली-बिसरी यादों की कितनी ही गठरियों को उन्होंने अपनी याददाश्त पर ज़ोर डालकर खोला था. यह सब बता पाना मुमकिन नहीं है. काश कि उनके मन को पढ़ा और पढ़कर आपसे साझा किया जा सकता…!

वे सामने रखी एक दूसरी किताब पर नज़र डालते हैं. इस बार उनके सामने बलराज साहनी की तस्वीर थी, परीक्षित साहनी द्वारा लिखी किताब के कवर पर बलराज की तस्वीर ने कैसी हरकत उनके भीतर की, उसका बयान आप आगे देखिए. वे अपनी सबसे पसंदीदा फ़िल्म ‘भाभी’ (1957) का ज़िक्र करते हैं, तुरंत ही भाभी फ़िल्म का गीत ‘चल उड़ जा रे पंछी, कि अब ये देश हुआ बेगान..’ को मोबाइल पर बजाने की फ़रमाइश करते हैं. हमने गीत बजाया लेकिन वे ठीक से सुन नहीं पाए, फिर वे भाभी फ़िल्म की कहानी हमें बताने लगते हैं. इस दौरान वे कई बार भावुक हुए, उनके गले से कौल फूट नहीं रहा था. वे कम बोलकर भी ज्यादा व्यक्त कर रहे थे. एक परिवार को पहले बनाने, फिर टूटने से बचाने के लिए किया गया बलराज साहनी का संघर्ष दादाजी को याद आता है.

वे कहते हैं कि आज अपने परिवार के लिए कोई कहाँ इतना करता है. आज तो रिश्ते स्वार्थ से तय होते हैं. दादाजी के दिल के क़रीब बलराज साहनी का क़िरदार इसलिए भी था क्योंकि बलराज इस फ़िल्म में कपड़ा व्यवसायी थे, और दादाजी भी अपने ज़माने में गाज़ीपुर जिले के पुराने व्यवसायी थे. इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई किए हुए, हाथ में आई सरकारी नौकरी को पुश्तैनी बिज़नेस के लिए छोड़ने वाले दादाजी ने गाज़ीपुर से बनारस की यात्रा के दौरान बनारस में कई फ़िल्में देखी थीं.

उन दिनों (साठ के दशक की बात है) गाज़ीपुर का अधिकांश व्यापार बनारस से होता था. गाज़ीपुर के व्यवसायी थोक में सामान लेने के लिए बनारस आते थे. दादाजी बताते हैं कि बनारस के लिए उस समय एक ही ट्रेन हुआ करती थी, जो सुबह निकलती थी, और बनारस से रात आठ बजे उसकी वापसी थी,.बनारस में खरीदारी के बाद जो समय बचता था, उसमें दादाजी एकाध फ़िल्में देख डालते थे. चूंकि उस ज़माने में फ़िल्में देखना किसी गुनाह से कम न था (कहीं-कहीं तो आज भी), तो दादाजी तुरंत यह भी कहते हैं कि ‘वैसे तो मुझमें और कोई अवगुण नहीं है, न मैं गुटखा-तम्बाकू खाता हूं, न ही शराब पीता हूँ, लेकिन फ़िल्में देख लिया करता था’. आप सोचिए की दादाजी ने अपने ज़माने में कितने साहस का काम किया था.

बात घूमकर इलाहाबाद भी आती है. वह भी बेसबब नहीं. बलराज साहनी के ठीक बगल में दिलीप कुमार की आत्मकथा रखी थी. दादाजी की निगाहें दिलीप कुमार की तस्वीर से टकराती हैं, और फिर उमड़ती है उनसे जुड़ी वह याद जो आप से मैं साझा करने जा रहा हूँ. दादाजी कहते हैं कि “इनकी ‘मुग़ले आज़म’ तो हमने इसी इलाहाबाद में देखी थी.” उन्हें याद है कि उन्होंने दर्जा दस की परीक्षा पास की थी, 1962 या 1963 का साल था. जुलाई के महीने में वे इलाहाबाद आए हुए थे. बताते हैं कि उन दिनों दर्जा पांच की नई किताबें आईं थी, जो गाज़ीपुर में या बनारस में नहीं मिल रही थीं, इसलिए उन्हें इलाहाबाद आना पड़ा था.

मीरगंज के किसी थोक पुस्तक विक्रेता के यहां वह ठहरे हुए थे. बताया कि ‘मुग़ले आज़म’ फ़िल्म का टिकट उन्हें मीरगंज के उसी दुकानदार ने दिया था, जिसके यहां वे पुस्तकों की ख़रीदारी करने गए थे. फिर क्या था – दादाजी कहते हैं कि दो या तीन रुपए के टिकट पर मानसरोवर टाकीज़ में बालकनी में बैठकर उन्होंने मुग़ले आज़म देखी थी. दिलीप कुमार के साथ ही साथ उन्होंने पृथ्वीराज कपूर और मधुबाला के अभिनय की तारीफ़ भी की. बीच में ही मैंने उन्हें याद दिलाया कि इसी हफ़्ते ‘मुग़ले आज़म’ ने अपनी रिलीज़ के साठ साल पूरे किए थे. फिर तो उन्हें ऐसा लगा जैसे उनकी उम्र इस फ़िल्म के साथ-साथ ही पूरी हो रही हो.

दादाजी के पास क़िस्से और भी होंगे. किताबों की फ़ेहरिस्त में अभी राजकपूर थे, तो नसीरुद्दीन भी, और न जाने कितने. इन पर दादाजी की निगाहों के पड़ते जाने से उनकी पचहत्तर पार होती उम्र में से एक से बढ़कर एक क़िस्से निकल रहे थे, शायद अभी कुछ निकलने बाकी भी हैं. लेकिन फ़िलहाल इतना ही.

सिनेप्रेमी और सिने अध्येता होने के नाते हमारा इतना तो सरोकार बनता ही है कि हम हिन्दी सिनेमा के पचास, साठ और सत्तर के दशक की कहानियाँ सुनाने वाले लोगों के संस्मरणों को दर्ज करें. इन मौखिक स्रोतों से शायद हिन्दी सिनेमा के लिए कुछ विशेष हासिल हो सके. आज दादाजी के बहाने इतना ही, हां इसी तरह और भी बुजुर्गों की तलाश जारी है.

(‘भारतीय राज्य और हिन्दी सिनेमा’ पर शोध पूरा करने के बाद अंकित फ़िलहाल इलाहाबाद में पढ़ा रहे हैं.)

फ़ोटो | अंकित पाठक

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