स्मृतियों में कवि धूमिल | वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे

  • 10:14 pm
  • 9 November 2020

कविश्री धूमिल (1936-1975) ने कुल जमा 40 साल की उम्र भी नहीं पाई. उनके जीवन काल में उनका एकमात्र कविता-संग्रह “संसद से सड़क तक” 1972 में आया. निधन के बाद मित्रों-स्वजनों के प्रयत्न से “कल सुनना मुझे”, “सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र” नाम से दो संग्रह और आए. उनके पुत्र रत्नशंकर पाण्डेय ने “धूमिल समग्र” अरसा पहले दिल्ली के एक नामी प्रकाशक को दिया, मगर वह अभी तक छपकर नहीं आ सका.

धूमिल ने अपनी काव्य-यात्रा गीतों से शुरू की. उस दौर के “अकविता-आन्दोलन” की छाया भी उनकी कुछ कविताओं पर है. पर वे प्रयत्न करके इससे बाहर भी आए. आज़ादी के बाद की दमनकारी सत्ता-संस्कृति से तीखे मोहभंग के स्वर उनकी कविताओं में प्रमुखता से सुने गए.

धूमिल पहले कवि हैं, जो दूसरे प्रजातंत्र की तलाश करते हुए “मौनी संसद” से दलाल व्यवस्था के तीसरे आदमी के बारे में सीधा सवाल करते हैं.

बनारस के नवाबगंज मुहल्ले के मकान नम्बर 26/292 में धूमिल किराएदार रहे. उनके ठीक सामने रवीन्द्र नाथ मिश्र उर्फ नागानंद मुक्तिकंठ का आवास रहा. वे करीब एक दशक तक धूमिल के सहचर रहे. बाद में वे छत्तीसगढ़ क्षेत्र के जांजगीर महाविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक हुए. नागानंद को किसी का भी नाम विकृत करके सम्बोधित करने की आदत रही. वे बनारसी मसखरी के परम वाचाल व्यक्ति थे. धूमिल अपने अकारण विरोधियों से उन्हें भिड़ाकर खूब मौज लेते.

धूमिल अक्सर बीस किलोमीटर साइकिल चलाकर अपने गाँव खेवली चले जाते. बनारस में जब रुकते तब कोयले की अँगीठी पर दाल-भात-चोखा या खिचड़ी बनाते. आग सुलगाने के लिए निरर्थक किस्म की असाहित्यिक-साहित्यिक पत्रिकाओं का इस्तेमाल करते.

बनारस के गोदौलिया पर होटल में ठहरे अमेरिकी कवि एलेन गिन्सबर्ग से मिलाने कविवर त्रिलोचन अपने साथ धूमिल को ले गए. हिप्पी जीवन शैली के चर्चित कवि गिन्सबर्ग से धूमिल ने ठेठ भोजपुरी में ही बातचीत की. त्रिलोचन संक्षेप में उसका आशय बताते रहे.

बाँदा से शीर्ष प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल को बनारस बुलाकर धूमिल ने दिसम्बर 1972 में गंभीर साहित्यिक विमर्श के लिए “त्रिलोचन अध्ययन केन्द्र” का शानदार उद्घाटन कराया.

फरवरी, 1973 में बाँदा के अखिल भारतीय प्रगतिशील साहित्यकार सम्मेलन में धूमिल उत्साह से शरीक हुए.

नंदकिशोर नवल, शिवशंकर सिंह और ज्ञानेन्द्रपति की सक्रियता से दिसम्बर, 1970 में पटना युवा लेखक सम्मेलन आयोजित हुआ. तब भी धूमिल पूरे जोशोख़रोश से वहाँ मौजूद रहे. इन सभी आयोजनों में उनके साथ मुझे भी हिस्सेदारी का मौक़ा मिला. अपने शहर की नियमित साहित्यिक गोष्ठियों में सहभागी होकर धूमिल बराबर हस्तक्षेप करते रहे.

छायाकार एस.अतिबल ने धूमिल के तमाम ब्लैक एण्ड व्हाइट फ़ोटो खींचे, जिनका इस्तेमाल तमाम कलाकार उनको श्रेय दिए बिना ही करते रहे. काशी के घाटों, यूनीवर्सल बुक हाउस, दी रेस्त्रां पर साहित्यिक मित्रों-राजनेताओं के साथ धूमिल के फ़ोटोग्राफ़ अतिबल ने उतारे. ब्रेनट्यूमर से अतिबल के निधन के बाद उनके बनाई हुई तस्वीरों के संग्रह का अधिकांश हिस्सा नष्ट हो गया. यूनीवर्सल बुक हाउस के स्वामी त्रिलोकी नाथ और धूमिल भी ब्रेनट्यूमर से ही दिवंगत हुए. कविता का एक शानदार व्यक्तित्व तिरोहित हुआ, जिसका सांस्कृतिक राजधानी में कहीं कोई स्मृति-चिह्न तक नहीं है!

त्रिलोचन-धूमिल के संग-साथ की यादों में मुझे बराबर महाकवि जयशंकर प्रसाद की पंक्ति कौंधती है, “वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे!”

कवर| पीछे खड़े हैं – धूमिल, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, वाचस्पति, विजेंद्र. बैठे हुए प्रभु झिंगरन, योगेंद्र नारायण, वीरेंद्र शुक्ल, सुधेंदु पटेल, अवधेश प्रधान. 22 फ़रवरी 1973 की बांदा की इस तस्वीर की फ़ोटोग्राफ़र अतिबल हैं. वाचस्पति के सौजन्य से.

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