बक्से वाली ख़बर और तख़्तापलट के बहाने बाबा ब.व.कारंत की याद

मृच्छकटिकम् के हिंदी अनुवाद का नाम नीलाभ ‘तख़्तापलट दो’ रखना चाहते थे. हमने नाम बदलने का आग्रह किया तो लेखकीय अस्मिता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देकर वह अड़ गए. अंकुर जी ने सुझाया कि हम बाबा से बात कर लें. जब बाबा से बात की तो उन्होंने कहा – आप लोग परेशान न हों. मैं इस नाटक का डायरेक्टर हूं. मैं नाम बदल सकता हूं. फिर उन्होंने ‘सत्ता का खेल’ नाम से नाटक किया.

उत्तर-मध्य सांस्कृतिक केंद्र में शिल्प हाट बनने की कहानी भी दिलचस्प है. निदेशक नवीन प्रकाश ने केंद्र के परिसर में पीछे की तरफ़ ख़ाली पड़ी ज़मीन पर हाट बनवाने के बारे में तय किया था ताकि देश भर के शिल्पियों को अपना हुनर दिखाने और अपने उत्पाद बेचने का स्थायी ठिकाना मिल सके. केंद्र की वित्तीय स्थिति उन दिनों ऐसी नहीं थी कि हाट बनाने पर होने वाला ख़र्च ख़ुद उठा सके. इस सिलसिले में डी.सी. हैंडीक्रॉफ़्ट्स से हुई बातचीत किसी नतीजे तक नहीं पहुंच सकी.

सदी का पहला कुंभ मेला जुटने को था. उन्हीं दिनों संस्कृति मंत्रालय के सचिव श्री अय्यर के इलाहाबाद आने का कार्यक्रम बना. तय किया गया कि दफ़्तर के निरीक्षण के बाद उन्हें हाट के लिए प्रस्तावित ज़मीन भी दिखा दी जाए. अय्यर साहब के इलाहाबाद आने से एक उम्मीद तो बंध रही थी कि संस्कृति मंत्रालय से थोड़े-बहुत फ़ंड का इंतज़ाम हो जाएगा. अय्यर साहब को शिल्पहाट मैदान दिखाने का प्रस्ताव ख़ुद निदेशक ने किया.

जब यह मौक़ा तो ख़ाली ज़मीन देख लेने के बाद अय्यर साहब ने पूछा, “आप इसमें क्या करना चाहते हैं?” नवीन प्रकाश ने उन्हें वहाँ शिल्पहाट बनाने के प्रस्ताव के बारे में बताया. तब श्री अय्यर ने पूछा, ‘क्या आपके पास बजट है?’ फिर उन्होंने ख़ुद ही कहा, ‘हमारे मंत्रालय में दो शिल्पहाट बनाने के लिए एक-एक करोड़ रुपए के फ़ंड का प्रावधान किया गया है. अगर आपका काम एक करोड़ रुपये में हो जाए तो मैं यह फ़ंड तुरंत आपको ट्रांसफर कर सकता हूं.’

हमारे लिए तो यह एक वरदान ही था. ख़ैर, अय्यर साहब ने दिल्ली जाकर शिल्पहाट बनाने के लिए बजट की मंज़ूरी दे दी. फ़ंड मिलने के साथ ही शिल्पहाट बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई. नक्शा, स्वीकृति, अनुमोदन और आवश्यक कार्यवाही होने लगी. डॉ.मुरली मनोहर जोशी प्रयाग के सांसद और मंत्री भी थे. यह कोशिश उन्होंने ही शुरू की थी. इसलिए निदेशक के कहने पर मैं उनके सहयोगी डॉक्टर उत्तम से मिलकर यह बताने गया कि शिल्पहाट के लिए फ़ंड आ गया है और जल्दी ही इसे बनाने का काम भी शुरू हो जाएगा. अगले शिल्प मेला यानी दिसंबर 2001 में इसका उद्घाटन हो जाएगा.

तो बक्सा लग जाए अब
शिल्पहाट बनने के बारे में अब दफ़्तर के बाहर शहर में भी चर्चा होने लगी थी. हालांकि अभी तक इसके बारे में किसी औपचारिक ऐलान से बचा जा रहा था. सोचा गया कि किसी उचित अवसर पर डॉ.जोशी से ही इसकी घोषणा कराई जाए तो ज़्यादा बढ़िया होगा. जेड.सी.सी, ख़ासकर एनसीज़ेडसीसी की आर्थिक स्थिति उन दिनों बहुत अच्छी नहीं थी. लगातार कम होती ब्याज़ की दरें और दूसरी तरफ़ वेतन और कर्मचारियों के ख़र्च का दबाव बढ़ता जा रहा था. इस बीच शिल्प हाट बनाने को लेकर कुछ सहयोगियों औऱ कर्मचारियों के मन में यह भ्रांति बन रही थी कि जब केंद्र के पास तनख़्वाह देने तो पैसा नहीं है, तब शिल्पहाट बनाने पर ख़र्च सिवाय फिज़ूलख़र्ची के और क्या कहा जा सकता है!

इन्हीं आशंकाओं और दुश्चिंताओं के लेकर लोकल अख़बार के एक संवाददाता से चर्चा कर आए. उन्हें लगा कि यह तो बढ़िया ख़बर है. दो रोज़ बाद उनके अख़बार में चार क़लम के बॉक्स में बड़ी-सी ख़बर लगी, शीर्षक था – ‘घर में नहीं दाने अम्मा चली भुनाने’. वह अक्सर कहा भी करते थे, ‘ई खबर’ है तो बॉक्स में लग ही जाएगी. वह ख़बर छपने का तो कोई मलाल नहीं हुआ क्योंकि वह तो कहना चाहते थे कि कर्मचारियों की तनख़्वाह के लिए धन नहीं है और यहां करोड़ नहीं करोड़ों रुपए ख़र्च करके शिल्पहाट बनाई जा रही है.

ख़बर छपने के बाद जब एक रोज़ दफ़्तर के गलियारे में वह बंधु मिल गए तो मैंने एक्सक्लूसिव ख़बर के लिए बधाई देते हुए उन्हें धन्यवाद कहा. उन्होंने पूछा – आप बधाई क्यों दे रहे हैं? मैंने जवाब दिया कि बिना विज्ञापन के ही शिल्पहाट बनने की सूचना शहर भर में प्रचारित करने के लिए हम उनका ह्रदय से आभार मानते हैं. वह मन के सच्चे थे, पूछा – क्या कुछ गलत चला गया क्या? आपको दुःख हो रहा है क्या?

मैं उन्हें अपने साथ कमरे में ले आया. मैंने उनसे कहा कि भाई ख़बर छपने का कोई मलाल नहीं है, लेकिन इस बात का दुःख ज़रूर है कि तथ्य जांचे बग़ैर और इस बारे में डायरेक्टर का पक्ष जाने आपने ख़बर छाप दी. यह फ़ंड केवल हाट बनाने के लिए ही मिला है और जिस मद में रक़म मिली है, उसमें ख़र्च करने के बजाय किसी और मद का अधिकार संभवतः डायरेक्टर को भी नहीं है. इस फ़ंड से हम कर्मचारियों की तनख़्वाह नहीं बांट सकते. दूसरी बात यह कि पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांत मानते हुए भी आपको कम से कम हमारा पक्ष भी जान लेना चाहिए था.

उनको लगा कि कहीं चूक हो गई है. ‘आगे से ऐसा नहीं होगा’ के आश्वासन के बाद बात वहीं ख़त्म हो गई. बाद में जब भी किसी कार्यक्रम में उनसे भेंट होती तो अक्सर उनसे यही पूछता था, ‘ई खबर बक्सा में लग जाई कि नहीं?’

सत्ता का खेल बनाम तख़्ता पलट दो
हर साल गर्मियों में एनसीज़ेडसीसी बच्चों के लिए विभिन्न कार्यशालाएं आयोजित करता था. बच्चों के लिए नाटक की कार्यशाला इसमें ख़ास थी क्योंकि समय-समय पर बड़े, नामी-गिरामी नाट्य निर्देशक इसमें आकर बच्चों को ही नहीं, बड़ों को भी अपनी सिखाते-प्रेरित करते थे. सन् 2001 देवेंद्र राज अंकुर ने एनएसडी के निदेशक का पद संभाला था. उन्होंने प्रस्ताव रखा कि एनसीज़ेडसीसी बच्चों के लिए ब.व.कारंत की एक महीने की एक वर्कशॉप करे. इस वर्कशॉप में नीलाभ के ‘मृच्छकटिकम्’ का हिंदी अनुवाद कार्यशाला में प्रस्तुति के लिए तैयार किया जाएगा. स्थानीय व्यवस्थाएं और नाटक की प्रस्तुति के सामान्य ख़र्च एनसीज़ेडसीसी के ज़िम्मे थे, और निर्देशक और लेखक का मानदेय एनएसडी के. सम्भवतः अनिल रंजन भौमिक इस नाटक की तैयारी में कारंत जी के साथ सहायक निर्देशक थे.

इस कार्यशाला से जुड़ी तीन घटनाएं हैं, जो हमेशा के लिए इतिहास में दर्ज हो गई. पहली तो यही कि यह ब.व.कारंत की अंतिम प्रस्तुति परक कार्यशाला थी. इसके बाद बाबा किसी नाटक का निर्देशन नहीं कर सके. सबसे बड़ी बात बाबा एक महीने तक इलाहाबाद में रहे. पात्रों के चयन से लेकर प्रस्तुति तक हर शाम वह ख़ुद मौजूद रहते. बेहद तन्मयता और सहजता से समय-समय पर प्रतिभागियों को गाइड करते, ज़रूरी निर्देश देते. मुझे ख़ुशी इस बात की है कि मै भी इस काम में थोड़ा-सा योगदान कर सका.

दूसरा बाबा का आग्रह था कि अपनी अस्वस्थता के कारण वह किसी होटल में नहीं रहना चाहेंगे. इसलिए मैंने सीडीए (पेंशन) के चित्रकूट गेस्ट हाउस के नीचे का सुईट बाबा के लिए एक महीने के लिए आरक्षित करा दिया. वहां के केयरटेकर ने ख़ूब मन लगाकर बाबा की सेवा की. उनकी पसंद की नीबू की चाय या खिचड़ी आदि की व्यवस्था करता. चित्रकूट गेस्ट हाउस के माहौल और उस केयरटेकर की सेवा से बाबा बहुत प्रभावित हुए और अंत तक उसकी तारीफ़ करते रहे.

तीसरा प्रसंग थोड़ा-सा मनमुटाव वाला हो गया. मृच्छकटिकम् के अनुवाद वाले नाटक का नाम नीलाभ ‘तख्तापलट दो’ रखना चाहते थे. यह जानने के बाद हम लोगों ने आग्रह किया कि इसके नाम में संशोधन करके कुछ और नाम रख दें. नीलाभ जी लेखक की अस्मिता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देकर नाम बदलने को हरगिज़ राज़ी नहीं हुए. बात अंकुर जी के पास पहुंची तो उन्होंने बड़ी निश्चिंतता से कहा – आप लोग बाबा से बात कर लीजिए. वह इसका समाधान निकाल देंगे. मैंने जब बाबा से बात की तो उन्होंने कहा – आप लोग परेशान न हों. मैं इस नाटक का डायरेक्टर हूं. मैं नाम बदल सकता हूं. फिर उन्होंने ‘सत्ता का खेल’ नाम से नाटक किया.

बाबा के कारण जो मनमुटाव था, ख़त्म हुआ और प्रस्तुति वाले दिन सभी लोग ‘सत्ता का खेल’ देखने आए. उनकी सूझबूझ और मेहनत के अब तक हम सभी कायल हो चुके थे. अफ़सोस कि यह बाबा की अंतिम प्रस्तुति रही.

कवर फ़ोटो | एनसीज़े़डसीसी के फ़ेसबुक पेज से साभार.

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