पुरानों से दिनेर कथा | प्रिज़्म से इंद्रधनुष तक
विज्ञान और विज्ञान पढ़ाने वालों को नीरस मानते हुए अक्सर कला-संस्कृति की दुनिया से अलग ही समझा जाता है. शिक्षण संस्थानों में यह भेद और साफ़ नज़र आता है, मगर इन दोनों दुनिया के बीच सामंजस्य की एक पहल ने न सिर्फ़ बंटवारे की रेखा धुंधली कर दी बल्कि विज्ञान पढ़ाने वालों की सांस्कृतिक प्रतिभा को देखने-समझने का मौक़ा भी दिया.
18 फरवरी 1999
फ़रवरी की हल्की गुनगुनी-सी सर्दी दिल्ली के वातावरण में पसरी हुई थी. ‘केंद्रीय तिब्बती विद्यालय प्रशासन’, जो भारतवर्ष में आए हुए तिब्बती शरणार्थियों की शिक्षा की व्यवस्था करता है, के 42 अध्यापक विज्ञान की पढ़ाई, प्रशिक्षण के लिए कोटला मार्ग के बाल भवन में इकट्ठा हुए. निदेशक श्री एस.पी. दत्ता के जाने के बाद विज्ञान के अध्यापकों का यह पहला प्रशिक्षण था. बदले हुए वातावरण और नवागत सचिव श्री एम.के. राव के सौम्य, मृदुल, अंतरंग, आत्मीय व्यवहार के कारण हम सभी माहौल में एक हल्कापन औऱ ताज़गी अनुभव कर रहे थे. प्रशिक्षण अपनी पूरी गति पर था, तभी एक दिन प्रशिक्षण कक्ष से बाहर निकलते हुए सचिव राव ने कहा – ‘विज्ञान के अध्यापक क्या विज्ञान के अतिरिक्त संगीत, नाटक, पेंटिंग आदि में भी रुचि लेते हैं. मुझे तो साइंस टीचरों का पूरा का पूरा कुनबा बहुत ही नीरस, ड्राई लगता है. (इसे आज शिक्षा में संस्कृति को समावेश करना के रूप में देखा जा सकता है.) अपने विषय के अलावा उन्हें किसी और विषय में रुचि ही नहीं.’
मुझे तो जैसे मन की मुराद ही मिल गई. लगा अचानक किसी ने मुझे आकाश में उड़ने का न्योता दे दिया हो. मैंने उनसे पूछ लिया – ‘सर, आप चाहते क्या हैं?’ उन्होंने जो कहा उसका लब्बोलुआब यह था कि विज्ञान के अध्यापकों को भी संगीत, नाटक, पेंटिंग, नृत्य, गीत आदि ललित कलाओं के प्रति अभिरुचि ही नहीं, प्रतिभाग करने की इच्छा शक्ति होनी चाहिए. ख़ैर, तय हुआ कि अगले दिन सभी अध्यापक बाल भवन के प्रेक्षागृह में एक सांस्कृतिक संध्या का आयोजन करेंगे, जिसमें सचिव श्री एम.के. राव मुख्य अतिथि होंगे. दोनों शिक्षा अधिकारी श्री आलम सिंह रावत और श्री धर्मन भी इस कार्यक्रम में रहेंगे.
फिर क्या था, कार्यक्रम की योजना बनने लगी. तय हुआ कि सभी राज्यों से आए हुए शिक्षक अपनी-अपनी मातृभाषा में ही प्रस्तुति देंगे. श्री सुवास राऊत, जिनको मेरे संग इस तरह के कार्यक्रमों में विशेष रूचि थी, योजना को रूप देने लगे. सभी अध्यापक इसमें प्रतिभाग करेंगे, यह भी तय हुआ. डॉ. श्री के.पी. वर्मा, श्री आई.जे.एस. यादव, श्री नोबेल सेबेस्टियन, श्री हरीश चंद्र गुप्त, श्री आर. पी. सिंह, मैडम धर्मन बसंता सभी साथी अध्यापकों का उत्साह देखने लायक था. बाल भवन के कला शिक्षक श्री आर. डी. शर्मा से मांग कर ढोल, तबला और हारमोनियम की व्यवस्था की गई. बाल भवन के प्राचार्य को भी इसमें शामिल करने का अनुरोध किया गया. लंबी जिरह, बहस, विमर्श के बाद कार्यक्रम तय हो गया. तय हुआ कि उद्घाटन सरस्वती वंदना के पारंपरिक तरीके से न करके विज्ञान गीत के द्वारा किया जाए. दीप जलाने के बजाय नारियल पर ग्लिसरीन और एसिड डालकर हवन की प्रक्रिया को दर्शाया जाए.
18 फरवरी 1991 को शाम पाँच बजे सभी प्रतिभागियों और मुख्य अतिथि की उपस्थिति में विज्ञान के अध्यापकों का सांस्कृतिक आयोजन शुरू हो गया. उद्घाटन की भव्यता और उसकी लीक से हटकर प्रस्तुतियों को देखकर राव साहब बहुत प्रभावित हुए. सभी ने अपने-अपने राज्य की भाषा, लोकगीत, नृत्य आदि को चुना. मलयालम, तेलुगू, कन्नड़, बांग्ला, उड़िया, हिन्दी, भोजपुरी, तमिल, तिब्बती आदि भाषाओं का समावेश इस कार्यक्रम में था. भारत माता की आत्मा विभिन्न भाषाओँ से अलंकृत हो उठी थी. संचालन का दायित्व मेरे हिस्से में था.
ज्ञान-विज्ञान, कला-संगीत का यह संगम श्री राव साहब को बहुत गहरे तक छू गया. जब उनके उद्बोधन की बारी आई तो वह बहुत भावुक हो गए. बोले – ‘मैंने तो ऐसे ही कहा था, आप सब सच में बहुत ही प्रतिभाशाली हैं.’ जिस तरह से विज्ञान गीत और नारियल रिएक्शन से कार्यक्रम को शुरू किया गया, यह वही संदेश है जिसे हर विज्ञान शिक्षक को साइंटिफिक टेंपरामेंट विकसित करने के लिए करना चाहिए. मेरे संचालन से वह इतने प्रभावित हुए कि उनके शब्द आज भी मेरे कानों में ज्यों के त्यों सुनाई पड़ते हैं – ‘वी आर फ़ॉर्चुनेट दैट अतुल द्विवेदी इज़ विद अस बट ही इज़ अनफ़ॉर्चुनेट दैट ही इज़ इन सीटीएसए.’
दूर दार्जिलिंग में शिवालिक की पहाड़ियों के बीच जिला शासक के कमरे में बैठा कोई व्यक्ति इस दैवीय वाणी को सुन रहा था. भविष्य अपने द्वार खोलेगा, तब इसकी चर्चा आगे करूंगा.
स्वागत के साथ विदा की तैयारी
राव साहब की भविष्यवाणी सच होने के आसार नज़र आने लगे थे. नवंबर 1999 में जब मैं दार्जिलिंग के जिला शासक, जिल्लापाल, जिला शासक, डी.एम. श्री नवीन प्रकाश के कमरे में बैठा था. मैं उड़ीसा से ट्रांसफर होकर दार्जिलिंग आ गया था. सामान्यत: दिसंबर में हमारा ‘विंटर ब्रेक’ होता था. एक दिन मैं उनसे मिलने उनके ऑफिस गया. अक्सर यह होता था कि हम इलाहाबाद वाले आपस में मिलकर आते थे.
उस समय दार्जिलिंग प्रशासन में इलाहाबाद और उत्तर प्रदेश के अधिकारियों का जमघट था. एस.एस.पी. श्री वागीश मिश्रा, एडिशनल एस.पी. श्री कुलदीप सिंह, ए.डी.एम. और बाद में डी.एम. हुए श्री नवीन प्रकाश के साथ ही ए.डी.एम. श्री हेम पांडे, ए.डी.एम. श्री पवन अग्रवाल, ए.डी.एम. श्री इंदीवर पांडे, सी.ई.ओ श्री प्रशांत, एडिशनल एस.पी. श्री राकेश गुप्ता, एडिशनल एस.पी. श्री आर.के. टमटा आदि वहां कार्यरत थे. नवीन प्रकाश जी ने बताया कि संभवत वह इलाहाबाद जा रहे हैं. उन्होंने विभाग और कार्यालय का नाम नहीं बताया.
नवंबर 2000, जिला शासक यानी जिलाधिकारी कार्यालय का कक्ष. श्री नवीन प्रकाश ने कहा कि अब मैं कोलकाता जा रहा हूं. किसी नए स्थान पर नियुक्ति हो गई है. दिसंबर 2000 में शीत अवकाश में इलाहाबाद आया तो एक सुबह-सुबह नाटककार और मेरे पड़ोसी भाई जगदीप वर्मा का फ़ोन आया. अरे, नवीन प्रकाश जी एनसीज़ेडसीसी में निदेशक बन के आ गए हैं. मेरे आश्चर्य मिश्रित हर्ष का ठिकाना नहीं था. संयोग से उसी दिन दार्जिलिंग के एसपी और मेरे पड़ोसी वागीश मिश्र भी इलाहाबाद में थे. उनसे बात हुई और हम लोग दोपहर में लल्लू का पान खाने के बहाने एनसीज़ेडसीसी पहुंच गए. तभी नवीन प्रकाश जी ने चलते-चलते पूछा, क्या यहां आना चाहोगे. मैंने स्वीकृति में अपना सिर हिला दिया. इस तरह से एनसीज़ेडसीसी में आने की पूर्व पीठिका बनी.
केंद्रीय तिब्बती विद्यालय, दार्जिलिंग से निकलकर मैं सांस्कृतिक केंद्र में अपना योगदान देने आ गया. तारीख़ थी – 14 जनवरी 2001. पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार मुझे आज एनसीज़ेडसीसी में कार्यक्रम अधिकारी के रूप में ज्वाइन करना था. मैं ठीक 11 बजे ऑफ़िस पहुंच गया. औपचारिकताओं के बाद निदेशक ने बताया कि आज से शताब्दी के पहले कुंभ मेला के कार्यक्रमों का आग़ाज़ होना है. “चलो मन गंगा यमुना तीर” का नाम और उसके कार्यक्रमों को तो 1989 के कुंभ में भी देखा था लेकिन आज उसी “गंगा यमुना तीर” कार्यक्रम के उद्घाटन के दिन मुझे आयोजक के रूप में मंच पर होना था.
मन में अजीब-अजीब भाव उमड़ रहे थे. इसी शहर में पला-बढ़ा, थोड़ा-बहुत पढ़ने-लिखने का जो कुछ भी शऊर सीखा वह सब इसी इलाहाबाद की देन थी. आकाशवाणी, दूरदर्शन, संगीत समिति में नाटक, पी.डी.टंडन मार्ग पर एनसीज़ेडसीसी के कार्यक्रम, शहर के नामचीन कलाकार, कविता, कवि सम्मेलन सभी याद आ रहे थे. याद आ रहा था कि अब मुझे भी इस शहर में अपनी मुख्य भूमिका अदा करनी है. शाम को कार्यक्रम स्थान के पंडाल में जाने के पूर्व जब प्रशासनिक अधिकारी डॉ.ए.के. पांडे के कक्ष में पहुंचा तो उन्होंने पहला ही प्रश्न गूगली फेंकते हुए पूछ डाला – काहे आए हो? सेंटर तो बंद होने वाला है? तनख़्वाह देने के लिए पैसा नहीं है. देखो कब तक चलता है. डॉ. पाण्डेय बहुत ही ख़ुशमिज़ाज, मिलनसार, अनुभवी व्यक्ति थे. गंभीर से गंभीर समस्या का निराकरण बड़े ही सहज भाव से कर देते थे. हर बात को सही किन्तु प्रेम से वे अपने ही शैली में कहते थे. हँसते-हँसते भी वे बड़ी से बड़ी बात कहने में माहिर थे.
उसी दिन मुझे अहसास हो गया कि यह आग का दरिया है और तैर के जाना है. आने वाले दिनों की हर चुनौती मेरे लिए परीक्षा की घड़ी होगी. पांडे जी ने जिस सहजता से केंद्र की आर्थिक स्थितियों को एक लाइन में बता दिया था, उसका आकलन हम आगे करेंगे. पहला दिन बहुत सी गतिविधियों से भरा रहा. कार्यक्रम, प्रस्तुति, कलाकार, दर्शक, वीआइपी, भुगतान और अगले दिन की तैयारी और आज के कार्यक्रमों की समीक्षा के साथ एनसीज़ेडसीसी में ‘चलो मन गंगा यमुना तीर’ कार्यक्रम का आग़ाज़ हो गया. कार्यक्रम से लौटकर डायरी में यूँ ही दर्ज किया –
क्या हुआ जो युग हमारे आगमन पर मौन
सूर्य की पहली किरण पहचानता है कौन
अर्थ देंगे कल हमारे आज के संकेत…
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