संस्मरण | जेठ भर हैप्पी बर्थ डे मनाने वाले ख़लीफ़ा

  • 1:19 pm
  • 31 May 2020

ख़लीफ़ा का जन्मदिन ज्येष्ठ माह में पड़ता था, उनकी मां उन्हें बताया करती थीं. तिथि और दिन उनकी मां को नहीं याद था तो ख़लीफ़ा को कहाँ से याद रहता. जेठ के महीने का वो लम्बे समय से इंतज़ार करते. मुझे भी जेठ के आगमन से पूर्व वह अकसर उकसाया करते थे. जेठ आते ही हम उनका जन्मदिन मनाने की तैयारी शुरू कर देते. कोई अच्छी सी ब्रांड की व्हिस्की की बोतल खोली जाती. मैं, ख़लीफ़ा और हम लोगों के ‘गैंग’ का कोई न कोई सदस्य. राकेश तो ख़ैर था ही पेशेवर हलवाई उसकी तो बात ही क्या, उनके बाक़ी चेलों में भी कोई न कोई गर्मागर्म पकौड़ियाँ तलना ज़रूर जानता. स्टोव जलाया जाता और ख़लीफ़ा की कोठरी कड़हिया के कच्ची घानी तेल की महक में सराबोर हो जाती. उनका स्वास्थ थोड़ा गड़बड़ रहता, इसलिए मेरी नज़र उनके गिलास पर रहती. मुझे चिंता रहती कि कहीं ज़्यादा न हो जाए. मैं थोड़ी बेइमानी करता और उन्हें 40-45 एमएल का ही पेग पानी मिलाकर दे देता. ‘हैप्पी बर्थ डे ख़लीफ़ा’ का नारा उछलता और ‘पार्टी’ शुरू हो जाती. ग्लूकोमिया की वजह से वह देख नहीं पाते थे लेकिन पहला ‘सिप’ चखते ही पूछते, “कहाँ से लाये हो? कुछ नक़ली सी दीखे?” मैं और पार्टी में मौजूद बाक़ी लोग असहमति जताते. “तुम्हारी जबान का टेस्ट आज ठीक नहीं है ख़लीफ़ा, बाक़ी माल तो चोखा है.” ख़लीफ़ा इस तरह कोई तीन-चार ‘पेग’ सटक लेते और तब थोड़ी मौज में आते. हम लोगों की फ़रमाइश शुरू होती और ख़लीफ़ा के जानदार गले से अद्भुत स्वर में कोई शानदार लोक रचना का गायन करते, महफ़िल ‘सयानी’ हो जाती.

पूरे ज्येष्ठ माह में मुझे ख़बर मिलती रहती (कभी दीपक से तो कभी मंदिर वाले पंडित जी से) ख़लीफ़ा आए दिन अपने किसी न किसी चेले से दारू मंगाकर अपना हैप्पी बर्थ डे मनाते रहते, कभी राजू बावरा तो कभी कोई और. कोई नहीं होता तो अपने भतीजे के हाथ में पैसे रखकर ‘अद्धा’ मंगाते और चाचा-भतीजे उसी में निबटान करते. मैं जब उनकी इस तरह की आए दिन शराबख़ोरी पर कृत्रिम ग़ुस्सा करता, वह सफ़ाई देते “अरे यार वो (फलांना) पीछे पड़ गया था. बिटचो (गाली देकर) मुझे कसम दिलाने लगा था. मजबूरी में थोड़ी चखनी पड़ गई.” वह जानते थे कि मैं जानता हूँ कि वह झूठ बोल रहे हैं. उनके भोले चेहरे पर फिस्स से मुस्कराहट उभरती. मैं कृत्रिम बड़बड़ाने का अभिनय करता. वह अपना कान पकड़ते “लो भाई, अब कल से नहीं.” एकाध दिन बाद फिर इसी ‘एकांकी’ की पुनरावृत्ति होती. पूरे ज्येष्ठ माह उनका ‘कल’ कभी नहीं आता.

ख़लीफ़ा आगरा की 400 साल पुरानी मृतप्राय होती लोक नाट्य कला ‘भगत’ के ‘अख़ाड़ा दुर्गदास’ के ख़लीफ़ा (प्रशिक्षक) थे. बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक गायकी की इस लोक नाट्यकला की प्रस्तुति तीन दिन से सप्ताह तक (सारे-सारे दिन और पूरी-पूरी रात) चलती रहती थी. ‘भगत’ के कथानक कभी सामाजिक समस्याओं से जुड़े होते तो कभी ऐतिहासिक कार्यकलाप से. कभी इनके ‘प्लॉट’ की पृष्ठभूमि में मिथकीय कथाएं भी होतीं. ‘अखाड़ा’ एक प्रकार की कमेटी को कहते हैं जो शहर में अपने निर्धारित क्षेत्र की सीमा के भीतर ही ‘भगत’ की प्रस्तुतियां करती थी. बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक आगरा में ‘भगत’ के 18 अखाड़े हुआ करते थे.

1960 के दशक के बाद यह लोक नाट्यकला विलुप्त हो गई. लगभग पचास साल बाद, जब सन् 2007 में नाट्य संस्था ‘रंगलीला’ ने आगरा में इसके पुनरुद्धार के लिए एक व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन छेड़ा तो ख़लीफ़ा इसमें शरीक हुए और आगे चलकर 86 वर्ष की उम्र में वह इस आंदोलन के ‘सुप्रीम कमांडर’ के रूप में उभरे. अपनी 94 वर्ष की उम्र तक वह भगत ‘खेलते’ रहे. अपने जीवन काल का ‘पर्दा गिरने’ से ठीक दो महीने पहले उन्होंने ‘भगत’ के मंच का पर्दा आख़िरी बार उठाया था.

आजीवन कुंवारे ख़लीफ़ा की अंतिम यात्रा में उनके सात सौ से ज़्यादा मुरीदों और चाहने वालों ने जब हारमोनियम के सुर और ढोलक की ताल पर भगत के ‘चौबोले’ और ‘बहर-ए-तबील’ गाते हुए शहर की सड़कों को एक कोने से दूसरे कोने तक नाप दिया था तो दूर-दूर तक ट्रैफिक थम गया था. आगरा के ताजगंज श्मशान घाट तक पहुँचते-पहुँचते लोगों की भीड़ कुछ हज़ार तक पहुँच गई थी. लोक कला के सम्राट को अग्नि को समर्पित करने से पहले श्मशान घाट पर भी घंटों तक गायन चला. घाट पर मौजूद दूसरे लोग इस ‘वीवीआईपी’ को देखकर हैरान थे और यह सुनकर तो और कि वह एक लोक कलाकार हैं. उन्हें इस बात का यक़ीन नहीं हो रहा था कि गर्व और गौरव का एक शिखर यह भी हो सकता है. अगली सुबह आगरा के तीनों प्रमुख अख़बारों ने ख़लीफ़ा के अंतिम संस्कार का विवरण कुछ इस तरह से दिया- न भूतो न भविष्यति!

मूल रूप से आगरा से 16 मील दूर अछनेरा के सेंता गाँव के थे ख़लीफ़ा. यूं सेंता मिश्रित जातियों की आबादी वाला बड़ा गांव था लेकिन बाभनों के बाद सबसे बड़ी आबादी अहीरों की थी. बीसवीं सदी की शुरुआत में यहां की अहीर आबादी का व्यापक हिस्सा ग़रीबी से जूझने वाला था. छोटी कास्त में सक्षम कुछ परिवारों को छोड़कर ज्यादातर या तो कृषि-मजदूर थे या फिर पड़ोसी कस्बे अछनेरा में जाकर मेहनत-मजूरी से पेट पालते थे. इन्हीं में से एक परिवार में ख़लीफ़ा का जन्म हुआ था. नाम रखा गया – फूलसिंह. माता-पिता और घर-गांव के बुजुर्ग फूली के नाम से बुलाते थे. सात वर्ष की उम्र में वह आगरा शहर के अहीरपाड़ा मोहल्ले में अपनी ननिहाल भेज दिए गए. यहां भी वह फूली के नाम से ही पुकारे जाते थे और यही वजह है कि सात वर्ष की उम्र (जब एक बाल कलाकार के रूप में उन्होंने ‘भगत’ में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई) से लेकर, 18 वर्ष की आयु तक जबकि लोक नाटकों की परंपरा ‘भगत’ के अखाड़े में उन्हें ख़लीफ़ा की पगड़ी पहनाई गई, वह पूरे आगरा में फूली ख़लीफ़ा के नाम से पुकारे गए. वैसे तो शहर में पचासों ख़लीफ़ा थे. ख़ुद उनके अखाड़े में उन्हें छोड़ चार ख़लीफ़ा और भी थे लेकिन योग्यता, संगीत और गायकी पर उनकी ज़बरदस्त पकड़ और ‘भगत’ के प्रति उनके जूनून ने उनके नामकरण से फूलसिंह या फूली हटाकर मूल नाम ही ‘खलीपा’ कर दिया. औरों की बात तो दरकिनार, आने वाले सालों में वह ख़ुद भी अपना नाम भूल गए. सारा शहर उन्हें ‘खलीपा’ के नाम से जानता और पुकारता. वह स्वयं भी कभी ख़ुद को प्रथम वचन में संबोधित नहीं करते, सदा तृतीय वचन में बुलाते- “आज तो ख़लीफ़ा अरहर की दाल और रोटी खाएगा.” या कि “आज ख़लीफ़ा का चोला सई नईं ए भाई.”

गहरा सांवला रंग, 6 फुट से ऊपर की देह और छरहरे बदन वाले ख़लीफ़ा की नज़रें भले ही चली गई हों, सुनने की शक्ति जितनी प्रबल थी, उससे ज्यादा तेज़ थी उनकी याददाश्त. लड़कपन और जवानी के ‘दंगलों’ और स्टेज पर गाए दोहे, गीत, चौपाई, चौबोला, रसिया, लावनी, ग़ज़ल, कव्वाली, होली और ख़याल के एक-एक मिसरे और लफ़्ज़, 86 साल से ऊपर की उम्र हो जाने के बावजूद उनकी ज़बान पर दौड़ पड़ने को तैयार रहते. निरक्षर होने की वजह वह बहुत से शब्दों का ग़लत उच्चारण करते लेकिन उर्दू और हिन्दी के जिन सैकड़ों शब्दों को वह बिलकुल सही उच्चारण के साथ बोलते थे उनमें एक शब्द ‘ख़लीफ़ा’ भी था. उन्हें ‘खलीपा’ कहकर पुकारे जाने वाले सैकड़ों “गंवारों” की तुलना में वह उन्हें ही 24 कैरेट वाला “पढ़ा-लिखा” मानते जो बिलकुल सही उच्चारण के साथ उन्हें ‘ख़लीफ़ा’ कहकर सम्बोधित करता था. साक्षरता के नाम पर भले ही वह ज़ीरो बटा निल थे लेकिन सयाने होते ही गुरू, उस्तादों, कवियों और शायरों के चरणों में बैठकर ज्ञान प्राप्ति की उनकी ललक ने उन्हें काव्यशास्त्र का अच्छा-ख़ासा ज्ञाता बना दिया. किसी गन्धर्व विद्यालय में गए बिना ही राग-रागिनियों को गा-बजा पाने की अद्भुत और विलक्षण क्षमता थी ख़लीफ़ा के पास. यही वजह है कि भैया और भाभियां भले ही उनकी इन ‘ऊटपटांग हरकतों’ के लिए उन्हेँ दिन भर लानतें भेजते रहे हों, गाने-बजाने के तमाम शौक़ीनों और लौंडे-लपाड़ों का घर में ताँता लगा रहता था.

मेरा बचपन लोहामंडी मोहल्ले में गुज़रा था, जो ख़लीफ़ा के इलाके से चिपटा हुआ था. मैंने अपने लड़कपन में जो ‘भगत’ देखीं, उनमें कुछ फूली ख़लीफ़ा द्वारा लिखित और निर्देशित भी थीं. तब मैं ख़लीफ़ा को नाम से नहीं जानता था लेकिन उन प्रस्तुतियों के भव्य कलात्मक स्वरुप मेरे ज़ेहन में अब भी ज़िंदा थे. उनसे परिचय होने के बाद उनके ‘रंग’ और उनकी पृष्ठभूमि परत-दर-परत खुलते चले गए. अब जबकि मुद्दत हुई, संगीत छूटा, अखाड़ा छूटा, रियाज़ और तालीमों के दिन लद गए, पर लोग कहते हैं कि इस उम्र में भी उनके गले में सरस्वती का वास है. मंदिर में तीज-त्यौहार और ख़ास मौकों पर जब कभी वह ‘बाजा’ लेकर भजन की तान छेड़ते तो तमाशबीन मर्द-औरतों की भीड़ जुट जाती.

मेरी ख़लीफ़ा के साथ पहली मुलाक़ात बड़ी दिलचस्प और अविस्मरणीय है. गठन के एक साल बाद सन् 2007 में, ‘रंगलीला’ में हम लोगों ने फ़ैसला लिया कि ‘भगत’ के पुनरुद्धार के लिए एक बड़े सांस्कृतिक आंदोलन की शुरूआत की जाए. ‘भगत’ अखाड़ों के कुछ ख़लीफ़ा तब तक मौजूद थे और कलाकार भी लेकिन भगत के विलुप्त हो जाने से वे भी इधर-उधर बिखर गए थे. 45-50 साल का वक़्त, एक लम्बा अंतराल छोड़ जाता है लिहाज़ा वे या तो दीगर काम-धंधों में लग गए थे या उम्र ज़्यादा हो जाने के चलते घर में रिटायर्ड जीवन गुज़ार रहे थे. मैंने इन लोगों से मिलना जुलना शुरू किया और उनके सामने ‘भगत’ को दोबारा शुरू करने का प्रस्ताव रखा. ये सब ‘होस्टाइल’ लोक कलाकारों की ऐसी जमात थी जो इस बात पर बिलकुल यक़ीन करने को तैयार नहीं थी कि “मर-खप” चुकी ‘भगत’ को दोबारा शुरू किया जा सकता है. मेरे पास उम्मीदों से लबालब भरे तालाब में छपाछप तैरते अपने तर्क थे और उनके पास नाउम्मीदी के समंदर में गहरे डूब चुकी अपनी दलीलें. बहरहाल हम मिलते रहे. बार-बार, नए और पुराने सभी लोगों से. मेल मुलाक़ात की इसी श्रंखला में मैं फूली ख़लीफ़ा से मिलने पहुंचा. मैंने पता कर लिया था कि वह अपना पैतृक मकान छोड़ कर 27 वर्ष से पुनियापाड़ा मोहल्ले के ‘बाल भैरों मंदिर’ में रहते हैं.

आगरा-दिल्ली जोड़ने वाली रेल लाइन की पटरी पर बने फाटक को लांघता-कूदता मैं पुनियापाड़ा मोहल्ले में दाख़िल हुआ. वहां से गुज़रते एक नवयुवक से मैंने ‘बाल भैरों मंदिर’ का पता पूछा. लड़के ने अपने दाहिने हाथ के इशारे से मंदिर की दिशा समझा दी. अचानक उसने पलट कर पूछा “मंदिर में किस्से मिलना है?” जवाब में मैंने फूली ख़लीफ़ा का ज़िक्र किया. उसने बांए हाथ पर दूर एक झुण्ड की तरफ इशारा किया. मैंने आंखों को ‘ज़ूम इन’ किया. शोर मचाते बच्चों के झुण्ड के बीचों-बीच एक बुज़ुर्ग हाथ-पाँव चलाता दिखा. नज़दीक पहुंचा तो देखा “खलीफा तुम्हारा नाड़ा लटक रेया है” का उद्घोष करते कोई आधा दर्जन बच्चे हैं और सामने सेंडो बनियान और घुटन्ने में बच्चों से जूझते भद्दी-भद्दी गलियां बकते, हाथ-पाँव चलाते फूली ख़लीफ़ा. मुझे देख बच्चे शांत हुए. मैंने ख़लीफ़ा को नमस्ते कहा और बताया कि मैं ख़ास तौर पर उनसे मिलने आया हूँ. ख़लीफ़ा अभी भी उद्विग्न थे. “परेशान करते है मादर…….” उनके मुंह से झाग और गालियां दोनों बदस्तूर जारी थीं. बच्चे खिसकने शुरू हो गए थे. मेरी उम्मीद से काफी कम समय में ख़लीफ़ा शांत हो गए. “क्या बात है?” अपने दाहिने हाथ से मुंह के झाग पोंछते उन्होंने पूछा. मैंने उन्हें अपना नाम बताया और कहा कि आपसे ज़रूरी बात करना चाहता हूँ. कब आ जाऊं? ख़लीफ़ा कुछ देर मुझे ताकते रहे. (मुझे यह बाद में मालूम हुआ कि ग्लूकोमा के चलते वह बिलकुल नहीं देख पाते हैं.) “तुम वही तो नहीं जो भगत फिरकत्ती शुरू करने डोल रये हो?” मैंने मुस्करा कर कहा – हाँ. कुछ ही क्षण उन्होंने लगाए होंगे, फिर इन्कार की मुद्रा में अपने विशालकाय दाहिने हाथ के पंजे को हवा में लहराते हुए बोले “फालतू टैम ख़राब कर रहे हो अपना. भगत तो ख़तम हो चुकी. अब उसकी बात करना, फिजूल टैम बर्बाद करना है.” मेरे यह कहने पर कि क्या हम कहीं बैठ कर बातें कर सकते हैं, वह बोले “यहीं मंदिर में हमारी बैठक है. वहीँ चलते हैं.”

मंदिर में घुस कर उन्होंने एक दरवाज़े का टटोल कर ताला खोला. मैं दरवाज़े के बाहर ही खड़ा रहा इस उम्मीद से कि वह अभी अपनी बैठक में ले चलेंगे. “भीतर आ जाओ,” उन्होंने अंदर से कहा. मैं बाहर जूता उतार कर अंदर घुसा. “जूते भीतर ही ले आओ, नहीं तो बन्दर ले जाएंगे.” फिर हँसते हुए बोल- “हमारे मोहल्ले के भैंचो बन्दर और बच्चे दोनों हरामी हैं.” वह ठहाका लगाकर हँसे. उनकी इस निर्मल हंसी से कुछ क्षण पहले बाहर उन्हें रौद्र रूप में देखने का मेरा तनाव एक झटके में जाता रहा.

यह एक 8 x 6 फ़ीट की कोठरी थी. कहने को यहां कोई’ ज्यास्ती’ सामान नहीं था लेकिन तब भी, रोजमर्रा की उनकी तमाम चीजों से अटी पड़ी थी यह कोठरी. पश्चिम में फर्श के कोने में छोटी सी लोहे की तिपाही पर हारमोनियम रखा था. हारमोनियम के ठीक बगल में चून (आटे) का कनस्तर था, जिसके पेंदे के ठीक एक इंच ऊपर हो चुका सुराख़ चूहों की भरपेट सेवा में तब भी मददगार साबित हो रहा था. दोनों के बीच दीवाल पर ठीक एक फुट ऊपर ठुकी लंबी कील पर ‘चंग’ लटकी थी. आटे के कनस्तर के किनारे-किनारे चकला-बेलन, भगोना, छोटा सा कुकर, फ्राईंग पेन, कलछुन जैसे ज़रूरी बारदाने और बारदानों से सटकर थालियां, कटोरियां, चमचे और गिलास रखे थे. पूर्व में प्रवेश द्वार से सटे लकड़ी के स्टूल पर मिट्टी के तेल वाला स्टोव रखा था. मुझे लगा यहां से अभी वह (जैसा कि उन्होंने कुछ ही देर पहले कहा भी था) मुझे अपनी बैठक में ले चलेंगे. उन्होंने लेकिन मुझे वहीँ नीचे बिछी दरी पर बैठने को कहा. आगे की मुलाक़ातों में साफ़ हुआ कि वह अपनी इसी कोठरी को ही ‘बैठक’ कहा करते थे.

मैंने उनसे उनकी ‘भगत’ के दौर के कुछ क़िस्से उगलवाने की कोशिश की. काफी देर वह शून्य में भटकते रहे. मैं नहीं समझ पा रहा था कि वह कुछ सोच रहे हैं या कि अभी अगले क्षण इंकार करने की भूमिका साध रहे हैं. काफी देर की उहापोह के बाद उन्होंने गला खंखारा और शुरू हो गए. उन्होंने क़िस्से शुरू किए. वह क़िस्से सुनाते रहे. अपने, अपनी भगत के, अपने चेलों के, अपनी भगत की कामयाबियों के, अपनी नाकामयाबियों के, आगरा के दूसरे अखाड़ों और उनकी भगत के, उनके ख़लीफ़ाओं के, उनके ‘ज्ञानी’ और ‘अज्ञानी’ होने के. उनके चेहरे पर भाव आते-जाते रहे. वह डूबते रहे-उतराते रहे. इस बीच वह अगल-बगल से किसी लड़के को बुलाकर दो बार अपने स्टोव पर चाय बनवाकर पेश कर चुके थे. हर क़िस्से का उनका तोड़ होता – अरे सुकला जी, क्या-क्या बताएं तुम्हें? हार (थक ) जाओगे. हक़ीक़त यह है कि न वो ‘हारे’ न मैं. हमने दोपहर में शुरू किया था, अब शाम ढलने लगी थी. वह जैसे पुराने दिनों के कला संसार के ग्लैमर में पहुँच गए थे और जम कर उसका रस भोग रहे थे. एक-डेढ़ घंटे की उनकी क़वायद के बाद मैंने उनसे पूछा “आपको नहीं लगता, ऐसी शानदार दुनिया फिर से वापस लौटनी चाहिए?” मेरे सवाल पर जैसे उन्हें करंट लगा. वह चौंके. उन्होंने मेरी तरफ घूर कर देखा, जैसे शिकायत कर रहे हों कि मैंने उन्हें उनके सपनों के संसार से वापस क्यों घसीट लिया?

“मेरा मतलब है कि….ऐसे शानदार दिनों की वापसी तो होनी चाहिए.” कुछ अचकचाते हुए मैंने कहा.

“कैसी बातें करते हो? वो क्या दिन थे, ये क्या दिन हैं. वो भगत आज कैसे हो सकती है? कौन देखेगा उसे?” एक लंबी सांस छोड़ कर वह बोले.

“यही तो मेरा कहना है. उन दिनों जैसी भगत आज नहीं हो सकती लेकिन आज के दिन जैसी भगत तो आज हो सकती है?”

कुछ देर रुक कर उन्होंने पूछा “मतबल?”

और फिर मैंने उन्हें ‘भगत’ के पुनरुद्धार की अपनी परिकल्पना के बारे में विस्तार से बताया. मैंने उनसे कहा कि बेशक परंपरागत भगत गायकी हो लेकिन क़िस्से आज के दौर के हों, आज की समस्याओं से जुड़े हों. वो आज के लड़के-लड़कियों के सवालों को उठाने वाले हों, वो आज की औरत की, आज के पुरुष की बात करने वाली हो, वो आज की इंसानियत के मसलों को सम्बोधित करती हो.

मैंने उन्हें बताया कि ‘भगत’ के मूल ढाँचे को छेड़े बिना कैसे इसमें बहुत सारे नए प्रयोग हो सकते हैं. कैसे उनकी पाड़ (स्टेज क्राफ्ट) को आज के संदर्भों से जोड़ा जा सकता है, कैसे उनकी वेशभूषा, उनकी रूपसज्जा और उनके आभूषणों को आज के युग के इंसान से जोड़कर बनाया जा सकता है.“ मैंने कहा कि ”इनमें से कोई कलाकार हाथ में कागज़ लेकर ‘जवाब’ नहीं गाएगा बल्कि ये सभी गा-गाकर अभिनय भी करेंगे, जो कि ‘भगत’ की पुरानी परंपरा है और जिसे बंद होने के आख़िरी 20-30 सालों में भुला दिया गया था. कोई घंटे भर से ज़्यादा मैं बोलता रहा और वह बिलकुल ख़ामोश होकर मुझे सुनते रहे. जब मैं बोल चुका तो उन्होंने बेहद आहिस्ता से कहा “पता नहीं भाई, हमने इसे कभी इस तरह से नहीं सोचा.

“तो सोचिये” मैंने कहा. मेरा यह बयान भी ख़ासा लम्बा चला. अब तक बाहर घना अँधेरा पसर आया था. मेरी बात ख़त्म होने पर ख़लीफ़ा ने आहिस्ता से कहा “बाह भाई सुक्ला जी बाह! जे तुमने खूब कई.“ वह जैसे स्वीकार्यता के भाव से मुस्कराते हुए आहिस्ता-आहिस्ता गर्दन हिला रहे थे. “क्या बज गया?” कुछ देर बाद उन्होंने पूछा. मैंने घड़ी देखकर टाइम बताया. ‘जल्द ही मिलेंगे’ के हम दोनों के संकल्प के साथ मीटिंग ख़त्म हुई.

बाहर निकला तो मैं ‘एक्साइटेड’ था. मुझे इस बात की बेहद ख़ुशी थी कि कम से कम एक ख़लीफ़ा तो मिला जिसने ‘नए दौर की नयी भगत’ की हमारी संस्थापनाओं के प्रति ज़ाहिरा असहमति नहीं दर्शाई. रेलवे लाइन पार करते ही मैंने फ़ोन करके चुन्नू (योगेंद्र) की ख़ोज-ख़बर ली. ‘रंगलीला’ में ‘भगत के पुनरुद्धार’ की मेरी स्थापनाओं को सबसे बेहतर तरीके से जानने-समझने वालों में वह थे. कुछ ही देर बाद हम आमने-सामने थे. मैंने उन्हें ख़लीफ़ा से हुई बातचीत का ब्योरा तफ़सील से दिया साथ ही कहा कि अगली बैठक में उन्हें भी साथ होना है.

इसके बाद ख़लीफ़ा के साथ हम लोगों की निरंतर बैठकें होती रहीं. मनोज सिंह, तलत, मनोज शर्मा और दूसरे हमारे कई युवा सहयोगी, जब-जब मैं किसी नए साथी के साथ उनके यहाँ पहुँचता, पहली मुलाक़ात के ‘बच्चा कांड’ की धमक मेरे भीतर गड़गड़ाती रहती, ऊपर वाले की दुआ से ऐसा कुछ घटा नहीं. ख़लीफ़ा बड़ी गर्म जोशी से हम लोगों का स्वागत करते. हर बार उनके पास बहुत सारे सवाल होते. हम जवाब देते. अगली मीटिंग में फिर नए सवालों की झड़ी होती. मैं समझ रहा था कि बहुत कुछ है जो उनके अंदर उमड़-घुमड़ रहा है. न जाने क्यों, मुझे यह सब कुछ ‘पॉज़िटिव’ लग रहा था.

वह हममें से किसी को ‘हुक्म’ देते कि उनके कनस्तर को खोला जाए. कनस्तर खोला जाता तो कभी मिठाई, कभी ख़स्ता, कभी कुछ और…. ख़लीफ़ा खाने के बहुत शौक़ीन थे (उनकी अपनी ज़बान में “बड़ा चट्टो हूँ”), तब वह कैसे हम लोगों के लिए यह सब कुछ सहेज कर रख पाते होंगे, यह हमारे लिए हमेशा गुत्थी बना रहा. मुझे अंदाज़ हो रहा था कि हमारी एंट्री, कला की उनकी ‘अकालग्रस्त’ ज़िंदगी में हरे-भरे उपवन की मानिंद उभर रही थी, जिसके सामने वह अपना सर्वश्रेष्ठ ‘हाज़िर-नाज़िर’ कर डालना चाहते थे.

उन्होंने हमें ‘गुरु पूर्णिमा’ के दिन का न्यौता दिया. इस दिन को वह अपने लिए बहुत ‘शुभ’ मानते थे. इस दिन वह अपने ‘गुरु’ का आराध्य करते थे. (बाद के बहुत से साल हम लोग हर गुरु पूर्णिमा पर उनके पास जाते रहे लेकिन उन्होंने यह कभी नहीं बताया कि उनका गुरु कौन है.) हम जब पहुंचे तो मंदिर के मुख्य सभा कक्ष में हारमोनियम के साथ उनका गायन चल रहा था. मंदिर में स्त्री-पुरुषों का भारी जमावड़ा था. गायन की समाप्ति पर वह उठे. हम लोग उनके साथ-साथ उनकी ‘बैठक’ में आये. वह ठीक से बैठ भी नहीं पाए थे कि उन्होंने सवाल दाग़ा “अच्छा चलो जे बताओ कि जे सब होगा कैसे? इसके लिए तो भौत से लोग चइये? भौत सा पैसा चइये?” गहरी सांस छोड़ते हुए उन्होंने पूछा.

“यक़ीनन! इसके लिए एक बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन छेड़ना होगा ख़लीफ़ा. बहुत से लोग चाहिए. बहुत से कलाकार- पुराने या नए, बहुत से साजिंदे, बहुत से कवि, बहुत से लेखक, पत्रकार, कहानीकार, बहुत से दर्शक-युवा, अधेड़, छात्र, बस्तियों के रसूखदार लोग, मीडिया, सरकारी कर्मचारी और अफ़सर. इस सबसे पहले लेकिन आप और हम लोग चाहिए जो इसे समझें, समझ कर सकें और करके बाकियों को समझा सकें. जब यह सब होने लगेगा तो यक़ीन मानिये पैसा भी जमा होने लगेगा.“ जवाब में मैंने कहा.
“अच्छा तो चलो, आज का दिन बड़ा सुभ है. आज से अपने इस आंदोलन में हमें भी सामिल समझो.” मुस्कराकर उन्होंने कहा.

(ख़लीफ़ा और ‘भगत’ की वापसी का क़िस्सा कल पढ़िए)

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