पंजाब | उफ़ नहीं की उजड़ गए, लोग सचमुच ग़रीब हैं

  • 8:22 pm
  • 12 May 2020

दुष्यंत का एक शेर है कि ‘न हो कमीज तो पांवों से पेट ढंक लेंगे/ ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए..’ कभी हिजरत करके मजदूरी करने पंजाब चले आए उन लोगों के हाल पर यह शेर बहुत सटीक लगता है, जो अब या तो अपने घरों को लौट चुके हैं या फिर लौटने की कोशिश में हैं. कोरोना के संक्रमण का ख़ौफ़ है. लॉकडाउन है. कर्फ्यू है. इससे बेपरवाह भीड़ सूबे के छोटे-बड़े शहरों की सड़कों पर क़तार बनाकर ख़ामोशी से चलते हुए मिल जाती है. लोग जिनके सिरों पर गठरियां. बगल में पोटलियां. हाथों में बच्चों की नन्हीं उंगलियां. किसी-किसी के सिर पर कृशकाय बुज़ुर्ग़ भी. पूछिए कि कहां जाना है तो हर जगह एक ही जवाब मिलेगा – रेलवे स्टेशन! इससे आगे कोई और सवाल आप क्या पूछ सकते हैं? ज़ाहिर है कि घर लौटने के लिए. बल्कि कहना चाहिए कि घर वापस जाना मजबूरी हो गया है. और विडंबना देखिए कि न तो सरकारें उन्हें रोक पा रही है, न ही दशकों से उन्हें रोजगार देने वाले किसान और सरमाएदार. और वे ख़ुद रुकने की सोचें, ऐसे तो हालात नहीं.

हालात के हर पहलू से सारे ही वाकिफ़ हैं फिर भी आश्वासनों-वायदों की कच्ची डोर के बूते कल को फिर वापस आने का ताना-बाना बुनते जा रहे हैं. रोकने वाले रोक रहे हैं लेकिन जाने वाले जा रहे हैं. जो जाने की सामर्थ्य नहीं जुटा पाए, वे इसके लिए कोशिश में जुटे हैं. उनका नाम किसी तरह जाने वालों की लिस्ट में शुमार हो जाए, इसके लिए वे भरपूर कोशिश में हैं. कोई दलालों के हत्थे चढ़ जाता है तो किसी को ठेकेदार बरगला रहे हैं. एक ने तो नौ मई की रात लुधियाना में इसलिए खुदकुशी कर ली कि घर लौटने की राह हर रोज़ मुश्किल हुई जाती थी और भुखमरी की नौबत आ पड़ी थी. यूपी के इस 38  साल के नौजवान अजीत राय को फिर कुछ और सूझा ही नहीं. जाने वाले की पत्नी कहती हैं कि वह और उनके बेसहारा बच्चे अब न ज़िंदा हैं और न ही मरे हुए. एक अजीत राय का मामला दुनिया के सामने आ गया लेकिन ऐसे कितने ही अजीत और हो सकते हैं, जिनके बारे में ज़माने को ख़बर ही नहीं.

एक अंदाज़ है कि पंजाब में बाहर से आकर मजदूरी करने वाले बारह लाख लोग रहते हैं. इनमें से आठ लाख ने घर जाने के लिए सरकार को अर्ज़ी दी है. उनकी अर्ज़ी के क्रम में अफ़सर मंज़ूरी देकर रेलगाड़ियों से उन्हें बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश रवाना कर रहे हैं. प्रतीक्षा-सूची के बारे में मोबाइल पर भेजे जाने वाले संदेश जो पढ़ नहीं सकते, वे रोज़ रेलवे स्टेशनों की ओर जाते हैं. पुलिस के हाथों फजीहत करा के, लुट-पिट कर लौट आते हैं. मायूसी के साए में घर वापसी की ख्वाहिश और इन गाढ़े दिनों में बेचने लायक पास में जो कुछ भी था, वह सब अब तक बिक चुका है. यहां तक कि मोबाइल फ़ोन भी. ज्यादातर प्रवासियों के पास मोबाइल फ़ोन सबसे ‘महंगी चीज़’ है और पंजाब में इन दिनों वे इसे कौड़ियों के दाम बेच रहे हैं.

इनके लिए पंजाब कभी ‘दूसरा देस’ होता था. तमाम तो अपना ‘देस’ हमेशा के लिए छोड़कर यहीं के हो चुके थे. यहां रोजगार था, बेहतर रोजी-रोटी और सपने देखने के ख़ूब सारे मौक़े भी. कोरोना, ‘काल’ बन गया और एक झटके में सब कुछ भरभरा के गिर पड़ा. अब यह देस बेगाना है. लौट कर नहीं आना है.

दुष्यंत ही तो कह गए हैं कि ‘हम कहीं के नहीं रहे, घाट औ’ घर करीब हैं/ आपने लौ छुई नहीं, आप कैसे अदीब हैं/ उफ़ नहीं की उजड़ गए, लोग सचमुच ग़रीब हैं.’

आवरण|अनन्त की पेंटिंग.

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