डायरियां – एक लेखक का अपना रेगिस्तान

  • 3:10 pm
  • 3 January 2020

राकेश की ज़िंदगी एक खुली किताब रही है. उसने जो कुछ लिखा और किया – वह दुनिया को मालूम है. लेकिन उसने जो कुछ जिया – यह सिर्फ़ उसे मालूम था ! अपनी सांसों की कहानी उसने डायरियों में दर्ज की है.

और कितना तकलीफ़देह है यह एहसास कि राकेश जैसा लेखक अपने अनुभवों की कहानियां दुनिया के लिए लिख जाए और अपने व्यक्तिगत संताप, सुख और दुख के क्षणों को जानने और पहचानने के लिए अपने दस्तावेज़ दोस्तों के पास छोड़ जाए…

डायरियां, लेखक का अपना और अपने हाथ से किया हुआ पोस्ट-मार्टम होती हैं !… एक लेखक कैसे तिल-तिल जीता और मरता है – अपने समय को सार्थक बनाते हुए खुद को कितना निरर्थक पाता जाता है और अपनी निरर्थकता में से कैसे वह अर्थ पैदा करता है – इसी रचनात्मक आत्म-संघर्ष को डायरियां उजागर करती हैं. राकेश की डायरियां इसी आत्म-संघर्ष के सघन एकांतिक क्षणों का लेखा-जोखा हैं, जो वह किसी के साथ बांट नहीं पाया या उसने बांटना मंजूर नहीं किया… आदमी के अकेलेपन की यह यात्रा तब और भी त्रासद हो जाती है, जब उसकी यात्रा में कुछ ठण्डी और शीतल छायाएं आती हैं… वे ठण्डी शीतल छायाएं जीवन के मरुस्थल को और बड़ा कर देती हैं और मन के सन्नाटे और सूनेपन को और अधिक गहरा!

मुझे कच्छ के रण का एक अनुभव याद है…समांतर लेखक सम्मेलन के सिलसिले में हम माण्डवी और अंझार गए थे. सम्मेलन समाप्त होने पर हम कच्छ के रण में गए – उस असीम फैले रेगिस्तान में मैं काफी दूर तक अकेला चला गया और दिशाओं का ज्ञान तक भूल गया. कच्छ के रेगिस्तान का सन्नाटा इतना भयानक था कि मुझे घबराहट होने लगी..अपनी सांसों की आवाज़ सुनने के लिए मैं छटपटाने लगा…अगर कुछ देर और उस रेगिस्तान में मैं खड़ा रहता तो शायद वहां का सन्नाटा और दिशाभ्रम मुझे बेहोश या क्षणिक रूप से पागल कर देता…तब मैंने वहां के लोगों से पूछा था कि सन्नाटे से भरे इस रेगिस्तान को लोग कैसे पार करते हैं? पूछने पर पता चला कि रेगिस्तान पार करने वाले लोग अपने मुंह में चूड़ी की तरह का एक छोटा-सा गोल यन्त्र रखते हैं, जिसमें एक पतला तार बंधा रहता है. उस स्वर-यंत्र को वे चंग कहते हैं…जब यात्री रेगिस्तान का सफर करता है तो मुंह में वह चंग को बजाता रहता है – जिसकी आवाज़ सिर्फ भीतर शरीर में हलके-हलके गूंजती रहती है और बाहर के रेगिस्तानी सन्नाटे को तोड़ती रहती है… और यात्री अपना रेगिस्तानी सफ़र पूरा कर लेता है.

लेकिन लेखक का यह रेगिस्तानी सफर तो कभी पूरा नहीं होता ! जिस लेखक ने अपने रेगिस्तान को नहीं जिया है, वह अधूरा ही रहा है ! राकेश ने अपने भीतर ये डायरियों के चंग बजा-बजा कर अपने सन्नाटे को तोड़ा और अपने रेगिस्तान को जिया है !

हालांकि मेरा और राकेश का साथ एक बहुत लम्बे अर्से तक रहा है, लेकिन मैंने उसे कभी डायरियां लिखते नहीं देखा, उन दिनों में भी जब मां और राकेश अकेले थे और हम एक ही मकान में रहते थे. मां का ज्यादा समय गायत्री और मानू के साथ गुज़रता था, और राकेश का मेरे साथ. शामें कुछ चहल-पहल से भर जाती थीं – जवाहर चौधरी, मन्नू (भण्डारी), राजेन्द्र (यादव), सुरेश अवस्थी, ओम और सुधा शिवपुरी, राजेंद्रनाथ, अलकाजी, नेमिचंद्र जैन, राजेंद्र अवस्थी, इंदर मलहोत्रा, चमन, मदन, राज़ और उज्जला बेदी (बम्बई से ), रेखा और शील और कभी-कभी विश्वनाथ, शीला संधू और ओंप्रकाश भी आते रहते थे… सभी समकालीन नये कहानीकारों से भी मुलाकातें होती रहती थीं, ये वर्ष ज़बरदस्त हलचलों और साहित्यिक आंदोलनों के वर्ष थे!…सब आते थे, ठहाके लगते थे, कॉफी या रम के दौर चलते थे और जब सब चले जाते थे, तो राकेश के पास जालंधर, अमृतसर, शिमला, कुफ्री, चम्बा और डलहौजी की यादें आती थीं. उस समय हम अपने-अपने रेगिस्तानों में भटक जाया करते थे… बहुत मुश्किल से कभी-कभी राकेश के रेगिस्तान से एक आवाज़ आया करती थी – ‘रेगिस्तान में घर कैसे बनाए जाते हैं? रेत का ही सही, लेकिन एक घर तो होना चाहिए !’ साहित्य के लिए वह पुख्ता घर बना गया, पर अपने लिए वह पूरी रेत भी जमा नहीं कर पाया. उसने कई घर बसाये, पर उसे उसके मन का घर किसी ने बना कर नहीं दिया ! अधूरे घरों की रेतीली कहानियों के बहुत से प्रसंग उसकी डायरियों में होंगे…सम्बन्धों और दोस्ती की बहुत-सी ईंटें उसने थापीं, उन्हें आंवें में पकाया…पर बंजारों की तरह पुख्ता ईंटों की अधबनी दीवारें वहीं छोड़कर वह कहीं और चला गया…

राकेश एक ऐसा नाम था, जिसके पते हमेशा बदलते रहे और ज़िंदगी के सारे अहम खत उसे रिडायरेक्ट होकर देर से मिलते रहे ! अपना उपन्यास ‘डाक बंगला’ लिखने के समय जब मैंने उसे ‘थीम’ बताई कि ‘ज़िंदगी में हर आदमी को वह सब कुछ मिल ही जाता है, जिसकी वह कामना करता है, पर मनुष्य की त्रासदी यही है कि उसे उस वक्त वह नहीं मिलता, जब वह उसकी कामना करता है !’ तो राकेश अपने मोटे चश्मे के भीतर से कई पल ताकता रहा था और दूसरे दिन शिमला जाने का टिकट ले आया था. वह अपना टाइपराइटर लेकर लिखने के लिए कुफ्री जा रहा था.

उसकी यह लेखन-यात्रायें अपने भीतर छुपे एक शून्य को भरने की व्यक्तिगत यात्रायें भी होती थीं, क्योंकि कभी-कभी अपना टाइपराइटर लटकाए वह दूसरे दिन ही लौट आता था और अपने मन पर लगे किसी घाव या दर्द की टीस को छुपाते हुए झूठ बोलता था कि लिखने का माहौल ठीक नहीं बना, इसलिए वह लौट आया है!

राकेश लगातार संबंधों के विविध आयामों को अपनी रचनाओं में खोजता और विश्लेषित करता रहा है, लेकिन उसकी डायरियां अपने साथ अपने संबंधों की खीज का ज़रिया रही हैं ! राकेश के संबंध राकेश की साहित्यिक ‘इमेज’ के साथ बहुत संतुलित थे. राकेश के संबंध खुद राकेश के साथ बहुत हलचल से भरे थे…जिनको वह समेट नहीं पाता था. उसके यह सूत्र बिखरे ही रह जाते थे और कभी कभी तो बहुत उलझ भी जाते थे – पर अपने मन की भाषा को वह बहुत गहराई से पढ़ता रहता था और अपने बारे में वह हमेशा बहुत साफ निर्णय लेता था.. और मुझे उम्मीद है कि उसकी डायरियों में रहस्यों, दुराव, कटुता, द्वेष और भण्डाफोड़क प्रवृत्तियों की बहुलता नहीं बल्कि उनमें समय, संबंधों और व्यक्तिगत प्रश्नों और उन प्रश्नों के मनमाफिक उत्तर पाने की आकांक्षाएं ही शब्दबद्ध की गई हें – (यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि प्रकाशन से पहले राकेश की डायरियों को मैंने बहुत सरसरी तौर से ही पढ़ा है).

एक बार राकेश ने कुछ तकलीफ़ के क्षणों में कहा था – ‘डियर, एक बात बता…दुनिया के सारे सवालों के जवाब तो हम दे देते हैं और दे लेते है, पर अपने मन के सवालों के जवाब इस दुनिया से क्यों नहीं मिलते ?’ मन के जिन सवालों के जवाब वह जिस दुनिया से मांगना चाह रहा था, उसकी वह दुनिया कुछ व्यक्तियों की दुनिया थी…जहां वह ज्यादातर निराश ही रहा है, क्योंकि सब अपना-अपना प्राप्य चाहते थे, पर राकेश क्या चाहता था, यह ‘उन्होंने’ नहीं समझा जिन्हें वह चाहता था ! अतीत का यह बोझ वर्तमान के संबंधों को अनजाने ही प्रभावित करता रहता है और एक लेखक अपने वर्तमान और भविष्य पर अपने अतीत की अपेक्षाओं का दायित्व भी डालता रहता है…और इसी कारण उसका रेगिस्तान निरंतर बड़ा होता जाता है और संबंधों की सघनता और आंशिक तृप्ति के बावजूद उसके मन का सन्नाटा बढ़ता जाता है और तब लेखक अपना पोस्टमार्टम खुद करता है…और अपने पोस्ट-मार्टम की रिपोर्ट छोड़ जाता है !

राकेश की ये डायरियां – उसकी अपनी रिपोर्टें हैं, जो उसने अपने लिए तैयार की थीं…जो उसके एकांतिक संताप और सच्चाई की दास्तानें हैं !

(मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव की त्रयी को नई कहानी आंदोलन का अगुवा माना जाता है. राजपाल एण्ड संस से छपी मोहन राकेश की डायरी में कमलेश्वर की यह आत्मीय टिप्पणी लेखक और व्यक्ति मोहन राकेश का रेखाचित्र मालूम होती है.)

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