हिन्दुस्तानी पत्रकारिता पर नेहरू का नज़रिया

अख़बारों के लिए किसानों-मजदूरों का महत्व ही क्या

जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में औपनिवेशिक भारत में पत्रकारिता के हाल का जो बयान किया है उस पर नज़र डालना दिलचस्प हो सकता है. उन्होंने लिखा है कि ‘किसी अख़बार का कोई पाठक शायद ही उन दिनों ख़्याल करता होगा कि हिन्दुस्तान में करोड़ों किसान और लाखों मजदूर हैं या उनका कोई महत्व है. अंग्रेज़ों के अख़बार बड़े अफ़सरों के कारनामों से भरे रहते. उनमें शहरों और पहाड़ों पर रहने वाले अंग्रेज़ों के सामाजिक जीवन की यानी उनकी पार्टियों की, नाच-गानों और नाटकों की, लंबी-लंबी ख़बरें छपा करतीं. उनमें हिन्दुस्तानियों के नज़रिये से हिन्दुस्तान की राजनीति की चर्चा प्रायः बिल्कुल नहीं की जाती थी, यहां तक कि कांग्रेस के अधिवेशन के समाचार भी किसी ऐसे-वैसे पन्ने के एक कोने में, और सो भी कुछ सतरों में, दिया करते. कोई ख़बर तभी किसी काम की समझी जाती, जब हिन्दुस्तानी, चाहे बड़ा हो या मामूली, कांग्रेस को या उसके दावों को बुरा-भला कह बैठता या नुक़्ताचीनी कर बैठता. कभी-कभी किसी हड़ताल का थोड़़ा ज़िक्र आ जाता, और देहात को तो महत्व तभी दिया जाता जब वहां कोई दंगा-फ़साद हो जाता.’
(मेरी कहानी, सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 80-81)

देशी अख़बार भी कुछ अलग नहीं थे – ‘हिन्दुस्तानी अख़बार भी अंग्रेज़ी अख़बारों की नक़ल करने की कोशिश करते लेकिन वे राष्ट्रीय आंदोलन को उनसे कहीं ज्यादा महत्व देते थे. यों तो वे हिन्दुस्तानियों को छोटी-बड़ी नौकरियां दिलवाने, उनकी तरक्की और तबादले में, और किसी जाने वाले अफ़सर की विदाई में दी जाने वाली पार्टी में, जिनमें लोगों में बड़ा उत्साह होता था, दिलचस्पी लेते थे. जब कभी नया बंदोबस्त होता, तो करीब-करीब हमेशा ही लगान वगैरह बढ़ जाता था, जिससे पुकार मच जाती, क्योंकि उसका असर ज़मींदारों की जेब पर भी पड़ता. बेचारे किसान, जो जमीन जोतते थे, उनकी कोई बात ही नहीं पूछता था. ये अख़बार ज़मींदारों और कल-कारख़ानोंदारों के होते थे. यह हालत थी उन अख़बारों की जो ‘राष्ट्रीय’ कहे जाते थे.’ (मेरी कहानी, पृष्ठ 81) किन्तु, ‘धीरे-धीरे स्थिति बदलती है और अब अंग्रेज़ों के अख़बारों को भी हिन्दुस्तान के राजनैतिक प्रश्नों के लिए जगह देनी पड़ती है; क्योंकि ऐसा न करें तो हिन्दुस्तानी पाठकों के टूट जाने का अन्देशा रहता है. परंतु यह बात वे अपने ख़ास ढंग से ही करते हैं. हिन्दुस्तानी अख़बारों की दृष्टि कुछ ‘विशाल’ हो गई है. वे किसानों और मजदूरों की भी बात किया करते हैं; क्योंकि एक तो आजकल यह फ़ैशन हो गया है और दूसरे उनके पाठकों में कल-कारखानों और गांव-संबंधी बातों के जानने की तरफ दिलचस्पी बढ़ रही है. परन्तु दरअसल तो अब भी वे पहले की तरह हिन्दुस्तानी पूंजीपतियों और ज़मींदार वर्ग के हितों का ही ध्यान रखते हैं, जो कि उनके मालिक होते हैं. कितने ही हिन्दुस्तानी राजा-महाराजा भी अख़बारों में अपना रुपया लगाने लगे हैं और वे हर तरह कोशिश करते हैं कि उन्हें अपने रुपयों का मुआवजा मिले. फिर भी इनमें से बहुत-से अख़बार ‘कांग्रेसी’ कहलाते हैं, हालांकि वे जिनके नियंत्रण में हैं, उनमें से बहुतेरे कांग्रेस के मेंबर भी न होंगे. जो अख़बार जरा आगे बढ़े विचारों का प्रतिपादन करते हैं, उन्हें या तो बड़े-बड़े जुर्माने का, यहां तक कि प्रेस-एक्ट के जरिये दबा दिये जाने या सेंसर किये जाने का भी डर बना रहता है.’ (मेरी कहानी, पृष्ठ 81-82)

इन अख़बारों से अवध का किसान आन्दोलन तक ग़ायब होना नेहरू के लिए काफी तक़लीफ़देह था. लिखा है, ‘मुझे सबसे बड़ा आश्चर्य इस बात पर हुआ कि हम शहर वालों को इतने बड़े किसान आंदोलन का पता तक नहीं था. किसी अख़बार में उस पर एक सतर भी नहीं आती थी. उन्हें देहात की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी. मैंने इस बात को और भी ज्यादा महसूस किया कि हम अपने लोगों से किस तरह दूर पड़े हुए हैं, और उनसे अलग अपनी छोटी-सी दुनिया में किस तरह रहते और काम करते हैं. (मेरी कहानी, पृष्ठ 89)

यह जानना भी दिलचस्प है कि इस औपनिवेशिक भारत में नेहरू ने कैसी पत्रकारिता की. एम चेलापति राव ने लिखा है कि नेहरु उन्हें रायबरेली, प्रतापगढ़ और सुल्तानपुर के गांवों की यात्रा पर ले गए. एक पखवाड़े की यात्रा के बाद वे रात को बाराबंकी से लखनऊ पहुंचे और सीधे ‘नेशनल हेरल्ड’ के दफ़्तर आए. वहां उप-संपादक से पैड मांगा और अपने भाषण की एक बहुत अच्छी रिपोर्ट लिखी. वह बाराबंकी संवाददाता के नाम से छपी. एम चेलापति राव ने उसे पढ़ने के बाद मूल प्रति मंगवाई तब जाना कि वह कॉपी नेहरू की लिखावट में थी.

अंग्रेज़ी राज और अफ़वाह की पत्रकारिता

‘अख़बारों में एक बेसिर-पैर की ख़बर निकली थी, और हालांकि उसका खंडन किया जा चुका है, फिर भी वह समय-समय पर छपती रहती है. वह यह कि उस वक्त के यू.पी. के गवर्नर सर हारकोर्ट बटलर ने जेल में मेरे पिताजी के पास शेम्पेन शराब भेजी. सच तो यह है कि सर हारकोर्ट ने पिताजी के लिए जेल में कुछ नहीं भेजा, और न किसी दूसरे ने ही शेम्पेन या दूसरी कोई नशीली चीज़ भेजी. वास्तव में कांग्रेस के असहयोग को अपना लेने के बाद, 1920 से, उन्होंने शराब वगैरा पीना सब छोड़ दिया था, और उस वक्त वह कोई ऐसी चीज़ नहीं पीते थे.’ (मेरी कहानी, पृष्ठ 137, पाद टिप्पणी 1)

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के दिनों में एक अख़बार में रिपोर्ट छपी, जिसमें कहा गया कि ‘गांधी जी के पास अपार दौलत है, जो कई करोड़ होगी’. (मेरी कहानी, पृष्ठ 407) जब गांधीजी 1931 में यूरोप रवाना हुए, तब उसके बाद फ़ौरन ही, जवाहरलाल नेहरू ने पेरिस के एक प्रसिद्ध संवाददाता का एक लेख पढ़ा था. उन दिनों वह लंदन के एक अख़बार का संवाददाता था. उसका वह लेख हिंदुस्तान के बारे में था. उस लेख में एक ऐसी घटना का ज़िक्र था, जो उसके कहने के मुताबिक, 1921 में उस वक्त हुई जब असहयोग के दौरान में प्रिंस ऑफ वेल्स ने यहां दौरा किया था. उसमें कहा गया था कि ‘किसी जगह (शायद वह दिल्ली थी), महात्मा गांधी एकाएक, जैसे नाटक में होता है, बिना इत्तिला के ही, युवराज के सामने जा पहुंचे और उन्होंने घुटने टेककर युवराज के पैर पकड़ लिये और दहाड़ मार-मारकर रोते हुए उनसे विनती की कि इस अभागे देश को शांति दीजिए.’ (मेरी कहानी, पृष्ठ 406) यह प्रसिद्ध पत्रकार ‘डेली हैरल्ड’ के स्लोकोम्ब हैं. ‘गांधीजी जब विलायत गये तब फ्रांस में वह उनसे मिले थे और उन्होंने गांधी जी से क़बूल किया था कि यह बात बिल्कुल मनगढ़ंत थी और उसके लिए माफ़ी भी मांगी थी.’ (मेरी कहानी, पृष्ठ 407 की पाद टिप्पणी-1 में अनुवादक की टिप्पणी)

नेहरू लिखते हैं कि ‘हिंदुस्तान के अधगोरों (ऐंग्लो-इंडियन) के जो अख़बार निकलते हैं और जिनके मालिक अंग्रेज़ हैं, वे भी बड़े रस के साथ इस हर्ष-प्रदर्शन में शामिल हुए और उन्होंने ऐसे बहुत से विचार प्रकट किये और फैलाये, जो शायद बहुत दिनों से उनके दिलों में दबे हुए पड़े थे. यों आमतौर पर उन्हें अपनी बात कुछ समझ-बूझकर कहनी पड़ती है, क्योंकि बहुत से हिन्दुस्तानी उनके अख़बारों के ग्राहक हैं; लेकिन जब नाज़ुक वक्त आ गया तब यह सब संयम बह गया और हमें अंग्रेज़ और हिन्दुस्तानी दोनों ही के मन की झलक मिल गई.’ सारे अख़बार एक जैसे नहीं हैं. नेहरू फ़र्क करते लिखते हैं, ‘अब हिंदुस्तान में अधगोरे अख़बार बहुत कम रह गये हैं, वे एक-एक करके बंद हो गये हैं, लेकिन जो बाक़ी बचे हैं, उनमें कई ऊंचे दर्जे के हैं – ख़बरों के लिहाज़ से भी और आकार-प्रकार की सुन्दरता के लिहाज़ से भी. दुनिया की समस्याओं पर उनके जो अग्रलेख होते हैं, यद्यपि वे हमेशा अनुदार लोगों के दृष्टिकोण से लिखे जाते हैं, फिर भी उनमें लिखने वालों की योग्यता झलकती है, और इस बात का पता चलता है कि उन्हें अपने विषय का ज्ञान है और उस पर पूरा अधिकार है.’ लेकिन इन अख़बारों की ‘अभारतीय’ दृष्टि नेहरू को खलती है – ‘इसमें कोई शक नहीं है कि अख़बारों की दृष्टि से संभवतः वे हिंदुस्तान के सबसे अच्छे हैं; लेकिन हिन्दुस्तान के राजनैतिक मामलों में वे अपने उस गौरव से गिर जाते हैं. उनके एकपक्षीय विचारों को देखकर ताज्जुब होता है. और जब कभी आन-बान का मौक़ा आता है तब तो उनकी वह हिमायत प्रायः बकवास और गंवारूपन का रूप धारण कर लेती है. वे सचाई के साथ भारत सरकार की राय को प्रकट करते हैं और इस सरकार के हक़ में जो लगातार प्रचार करते हैं उसमें अपनी बात किसी पर जबरदस्ती न थोपने का गुण नहीं होता.’ (मेरी कहानी, पृष्ठ 456)

हिन्दुस्तानी कहे जा सकने वाले अख़बारों के बारे में भी नेहरू की राय अच्छी नहीं कही जा सकती – ‘इन कुछ गिने-चुने अख़बारों के मुकाबले हिन्दुस्तानी अख़बार नीचे दरजे के हैं. उनके पास आर्थिक साधन बहुत कम होते हैं और उनके मालिक प्रायः तरक्की करने की बहुत कम कोशिश करते हैं. वे अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी मुश्किल से चला पाते हैं और बेचारे दुखी सम्पादकीय विभाग को बड़ी मुसीबत का सामना करना पड़ता है. उनका आकार-प्रकार भद्दा है, उनमें छपने वाले विज्ञापन अक्सर बहुत आपत्तिजनक होते हैं और क्या राजनीति और क्या सामान्य जीवन, दोनों में वे बड़ी भावुकता का परिचय देते हैं. मैं समझता हूं कि कुछ तो इसकी वजह यह है कि हम लोगों की जाति ही भावुकतामय है और कुछ यह कि जिस भाषा में (यानी अंग्रेजी में) वे निकलते हैं वह विदेशी भाषा है और उसमें सरलता से और साथ ही ज़ोर के साथ लिखना आसान नहीं है. लेकिन असली कारण तो यह है कि हम सब लोगों के मन में दीर्घकालीन दमन और ग़ुलामी की वजह से कई प्रकार की गांठें पड़ गई हैं, इसलिए अपने भावों को बाहर निकालने की हमारी प्रत्येक विधि भावुकता से भरी हुई होती है.’ (मेरी कहानी, पृष्ठ 457)

संतोष की बात है कि अफ़वाह और भावुकता से भरे अख़बारों के बीच नेहरू को अंग्रेजी में निकलने वाले हिन्दुस्तानी मालिकों के अख़बारों में, जहां तक बहिरंग की सुन्दरता और समाचार-संपादन से सम्बन्ध है, मद्रास का ‘द हिन्दू’ संभवतः सबसे अच्छा लगता है. नेहरू ने लिखा है कि ‘उसे पढ़कर मुझे हमेशा किसी अविवाहित वृद्धा की याद आ जाती है, जो हमेशा मर्यादा और औचित्य को पसंद करती है और अगर उसके सामने बेअदबी का एक हरुफ़ भी कह दिया जाय तो उसे बहुत बुरा मालूम होता है.’ (मेरी कहानी, पृष्ठ 457) और बात है कि ‘यह अख़बार ख़ास तौर पर मध्यम श्रेणीवालों का अख़बार है, जिनकी जिंदगी चैन से गुजरती है. जीवन के संघर्षों और उसकी धक्का-मुक्की का, उसको कोई पता नहीं.’ (मेरी कहानी, पृष्ठ 457) नरम-दल के और भी कई अख़बारों का स्टैण्डर्ड भी यही ‘अविवाहित वृद्धाओं’ का-सा है. नेहरू के अनुसार, ‘इस स्टैण्डर्ड तक तो वे पहुंच जाते हैं, लेकिन उनमें वह ख़ूबी नहीं आ पाती, जो ‘‘द हिन्दू’’ में है और इसलिए वे हर लिहाज़ से बहुत नीरस हो जाते हैं.’ (मेरी कहानी, पृष्ठ 457)

अख़बारों की आज़ादी और नेहरू के विचार

नेहरू लिखते हैं, ‘मैं अख़बारों की आज़ादी का बहुत कायल हूँ. मेरे ख़्याल से अख़बारों को अपनी राय ज़ाहिर करने और नीति की आलोचना करने की पूरी आज़ादी मिलनी चाहिए. हां, इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि अख़बार या इंसान द्वेष-भरे हमले किसी दूसरे पर करे या गंदी तरह की अख़बार-नवीसी में पड़े, जैसे कि हमारे आजकल के साम्प्रदायिक पत्रों की विशेषता है. लेकिन मेरा पक्का यक़ीन है कि सार्वजनिक जीवन का निर्माण आज़ाद अख़बारों की नींव पर होना चाहिए.’ (नेहरु, हिंदुस्तान की समस्याएं, सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 143)

नेहरू बड़े अख़बारों की तुलना में छोटे अख़बारों की आज़ादी की चिंता ज्यादा सताती थी – ‘मशहूर राष्ट्रवादी अख़बार, जिन्होंने अपनी स्थिति बना ली है, बड़ी हद तक ख़ुद अपना ख़्याल रख सकते हैं. उन पर कोई मुसीबत आती है तो जनता का ध्यान उनकी तरफ़ जाता है. मदद भी उन्हें मिलती है. पर जो छोटे और ऐसे अख़बार हैं जिनका नाम थोड़ा ही है, उनमें सरकार अक्सर दख़ल देती है, क्योंकि उनकी प्रसिद्धि उतनी नहीं है. फिर भी हमारे छोटे-छोटे और कमज़ोर-से-कमज़ोर अख़बारों को सरकारी दबाव का शिकार होने देना ख़तरे की बात है; क्योंकि ज्यों-ज्यों दबाव पड़ता है त्यों-त्यों दबाव डालने की आदत बढ़ती जाती है और उससे धीरे-धीरे जनता का मन सरकार द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग किये जाने का आदी हो जाता है. इसलिए पत्रकारों की एसोसिएशन तथा सब अख़बारों के लिए यह जरूरी है कि कम मशहूर अख़बारों तक के मामलों को यों ही न जाने दें. अगर वे प्रेस की आज़ादी बनाये रखने के ख़्वाहिशमंद हैं तो उन्हें सजग रह कर इस आज़ादी की रक्षा करनी चाहिए और हर प्रकार के अतिक्रमण को, फिर वह कहीं से भी हो, रोकना चाहिए. यह राजनैतिक विचारों या मतों का ही मामला नहीं है. जिस घड़ी हम उस अख़बार पर हमला होने में अपनी रज़ामंदी दे देते हैं, जिससे हमारा मत-भेद है तभी उसूलन हम अपनी हार स्वीकार कर लेते हैं और जब हमारे ऊपर हमला होता है तो उसका मुक़ाबिला करने की शक्ति हममें बाकी नहीं रहती.’ (हिंदुस्तान की समस्याएं, पृष्ठ 143)

नेहरू के अनुसार, ‘प्रेस की आज़ादी इसमें नहीं है कि जो चीज़ हम चाहें, वही छप जाय. एक अत्याचारी भी इस तरह की आज़ादी को मंजूर करता है. प्रेस की आज़ादी इसमें है कि हम उन चीज़ों को भी छपने दें, जिन्हें हम पसंद नहीं करते. हमारी अपनी भी जो आलोचनाएं हुई हैं उन्हें भी हम बर्दाश्त कर लें और जनता को उन विचारों को ज़ाहिर कर लेने दें जो हमारे पक्ष के लिए नुकसानदेह ही क्यों न हों; क्योंकि बड़े लाभ या अन्तिम ध्येय की कीमत पर क्षणिक लाभ पाने की कोशिश करना हमेशा एक ख़तरे की बात है.’ (हिंदुस्तान की समस्याएं, पृष्ठ 144)

(हिन्दी पत्रकारिता के फ़ेसबुक पेज से साभार)


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