बंसी कौल | निर्देशक जो रंग शैली और सीमाओं से परे रहे

  • 8:23 pm
  • 6 February 2021

कुछ बरस पहले दिल्ली में हुए चार रंग उत्सव में ‘डिप्टी कलक्टर और जिंदगी और जोंक’ बंसी कौल की आख़िरी प्रस्तुतियों में शामिल रहीं और इनमें साफ़ देखा जा सकता था कि वह अपनी सीमाओं को कभी भी विस्तारित कर सकते थे, शैली उनके लिए हरगिज़ ज़रूरी नहीं थी.

बंसी कौल अभी 71 साल के ही हुए थे. कुछ ही महीनों पहले तक वह ऊर्जा से भरे हुए थे. कोरोना से उपजी परिस्थितियों को देखते हुए लॉकडाउन के दौरान उन्होंने सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हुए समाज और सरकार से संस्कृति को लेकर असहज करने वाले और चेतना को झकझोरने वाले सवाल लगातार पूछे. तभी उनके बीमार होने की ख़बर आई और उनकी सलामती के लिए हज़ारों हाथ दुआ में उठ गए. उनका इलाज शुरू हुआ. उनकी दिनचर्या के बारे में ख़बरें आती रही और तभी सूचना आई उनके निधन की. दिल्ली के द्वारका में उन्होंने अंतिम सांस ली और 1949 से शुरू हुआ जीवन का सफ़र तमाम हुआ.

कला जगत में उनकी शुरूआत चित्रकला से हुई थी. साइनबोर्ड बनाए, ट्रकों के पीछे शेर लिखे, नंबर प्लेट बनाईं, इंटीरियर डिजाइनिंग भी की. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि) का वज़ीफ़ा पहले मिल गया, अन्यथा बड़ौदा जाकर चित्रकारी का कॅरिअर आगे बढ़ाते. 1973 में रानावि से अभिकल्पना में विशेषज्ञता के साथ स्नातक उत्तीर्ण किया. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में अध्यापन किया, श्रीराम कला केंद्र के निदेशक रहे और 1984 में भोपाल में अपने समूह ‘रंग विदूषक’ की स्थापना की.

देवेंद्र राज अंकुर ने बंसी कौल के लिए लिखा है कि ब.व. कारंत के बाद बंसी कौल ही थे, जिनकी रंगमंच में यायावरी प्रवृति रही, यानी देश में घूम-घूम कर नाट्य निर्देशन प्रशिक्षण किया और यह अनायास नहीं था कि कारंत की तरह ही बंसी कौल ने स्थायित्व का ठिकाना भोपाल रखा. बाद में भोपाल की सांस्कृतिक सक्रियता की वह केंद्रीय उपस्थिति भी बन गए. और यहां यह भी ग़ौर करना चाहिए कि आधुनिक रंगभाषा में पारंपरिक रंगतत्वों को अपनाने वाले और उनकी तलाश करने वाले तीन मूर्धन्यों हबीब तनवीर, ब.व.कारंत और बंसी कौल का संपर्क भोपाल से रहा.

गोगोल के नाटक इंस्पेक्टर जनरल की ‘आला अफ़सर’ (मुद्राराक्षस) के नाम से की गई प्रस्तुति से बंसी कौल ने रंग जगत का ध्यान अपनी ओर खींचा. चार दशकों से अधिक की अपनी रंग यात्रा में उन्होंने ‘अंधा युग’, ‘रस गंधर्व’, ‘कहन कबीर’, ‘सौदागर’, ज़िन्दगी और जोंक, तुक्के पर तुक्का इत्यादि कई चर्चित नाटकों का निर्देशन किया.

हबीब तनवीर के बाद ये बंसी कौल ही थे, जिन्होंने पांरपरिक रंग तत्वों को रंग भाषा में बरतने के लिए परंपरागत कलाकारों का सहारा लिया. एक तरफ़ उन्होंने भारतीय विदूषक और पश्चिम के मसखरे को मिलाकर अपनी एक मौलिक रंग भाषा गढ़ी, जिसमें मसखरे केवल शारीरिक करतब दिखाने वाले भर नहीं थे, सूत्रधार और अभिनेता भी थे. बंसी मानते थे कि विदूषक केवल हंसाने वाला पात्र नहीं होता बल्कि वह आलोचक की भी भूमिका में होता है. ‘सौदागर’, ‘तुक्के पर तुक्का’… जैसी प्रस्तुतियों में यह दिखता भी था, और यह उनकी शैली भी बन गई थी.

यह अलग बात है कि इस शैली में एक जड़ता और एकरसता भी आ गई थी. ऐसा लंबे समय तक चलने वाली हर शैली के साथ होता है. दूसरी तरफ, भारत के विभिन्न इलाकों के परंपरागत अखाड़ों, मजमेबाजों, नटों, कंजरों की संस्कृति, शारीरिक करतबों और भाषाओं का अध्ययन कर उसमें से रंगमंच के लिए उपयोगी तत्वों को खोजने की कोशिश की और इन कलाओं का इस्तेमाल अभिनेताओं को प्रशिक्षण के लिए भी किया. देश भर में घूम-घूम कर प्रशिक्षण देने के कारण उनके शिष्य देश भर में फैले हुए हैं और बहुतों ने रंगकर्म में अपना मुकाम भी हासिल किया है.

बंसी कौल का रंग समूह ‘रंग विदूषक’ निरंतर सक्रिय रहा और स्थायी अभिनेताओं के साथ काम करने वाली यह हिंदी प्रदेश की चुनिंदा रंग मंडलियों में से एक है. ऐसी रंग मंडलियों में अक्सर एक ही निर्देशक प्रधानत: नाटक निर्देशित करता रहता है. बंसी कौल ने इस परंपरा को तोड़ते हुए समूह से बाहर और भीतर के सदस्यों को ‘रंग विदूषक’ के लिए निर्देशन करने का मौका दिया.

ये बंसी कौल ही थे जिन्होंने कवि राजेश जोशी से नाट्यालेख लिखवाए. बाल रंगमंच में भी वह लगातार काम करते रहे, अपने समूह के लिए भी और रानावि की ‘संस्कार रंग टोली’ के लिए भी. ‘संस्कार रंग टोली’ के दफ़्तर में ही उनसे एक लंबी बातचीत करने का मौका मिला था, जिसमें उन्होंने यह चिंता प्रकट की थी कि इस लोकतंत्र में रंगमंच की जगह कहाँ है और कैसे बन सकती है?

बंसी कौल की रंगभाषा टोटल थिएटर की थी. गीत संगीत युक्त एक नाट्य शैली जिसमें विदेशी और देसी नाट्यालेखकों की विनोदपूर्ण प्रस्तुतियां होती रहीं. निर्देशक के साथ वह अभिकल्पक भी थे, तो देश-विदेश में बड़े-बड़े समारोहों की अभिकल्पना भी उन्होंने की. चित्रकला की पृष्ठभूमि के कारण समारोहों और मंच के लिए की गई कल्पनाओं में रंगों और रेखाओं की उपस्थिति को देखा जा सकता था.

बंसी कौल के निधन से हिंदी रंगमंच के केन्द्रीय व्यक्तित्व की जगह भी रिक्त हो गई. बंसी कौल वैसे निर्देशक थे जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी लेकिन उन्होंने हिंदी को अपनी अभिव्यक्ति की भाषा बनाया और हिंदी के रंगमंच में और इसके लोकवृत में अपनी ख़ास जगह बनाई थी, जिसमें वह सीधे सत्ता तो नहीं थे लेकिन सत्ता का रास्ता उनसे होकर गुजरता था.

इस लेख का समापन मैं उनके द्वारा निर्देशित एक नाटक के ज़िक्र से करना चाहता हूं. 2015 में दिल्ली में हिंदी अकादमी ने ‘चार रंग’ नाम से कहानी के रंगमंच का उत्सव आयोजित किया, जिसमें बंसी कौल ने दो कहानियों ‘डिप्टी कलक्टर और जिंदगी और जोंक’ की प्रस्तुति की थी. प्रस्तुति में डिज़ाइन की आभा थी जिससे मध्यवर्गीय मोहल्ला रचा गया था, मंच के पिछले हिस्से में बहुधरातलीय रंगमंच पर प्रवेश प्रस्थान और गति को अच्छी तरह नियोजित किया गया था.

संगीत प्रस्तुति को अर्थ गांभीर्य दे रहा था, विशेषकर कबीर के निर्गुण ज़िंदगी की जटिलताओं को व्यक्त करने के लिये पृष्ठभूमि का काम कर रहे थे. बंसी कौल के चिर-परिचित विदूषक प्रस्तुति में नहीं थे लेकिन कहानी में छिपे गहरे व्यंग्य को उजागर करने के लिये निर्देशकीय परिकल्पना में वह चेतना मौजूद थी, जिससे अभिनेता प्रदर्शन करते हुए आलोचक की भूमिका में भी रहते हैं. उनके द्वारा निर्देशित आख़िरी प्रस्तुतियों में से एक रही इस प्रस्तुति में यह दिखा था कि वह अपनी सीमाओं को कभी भी विस्तारित कर सकते थे, शैली उनके लिए अनिवार्य नहीं थी.


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