चुनी दा | अपने क़द की तरह ही ऊंचे खिलाड़ी

इस समय सोशल मीडिया पर एक मीम खूब चल रहा है. ये कुछ इस तरह से है कि ‘भगवान सन् 2020 को डिलीट कर दो इसमें वायरस है.’ यूं तो इसे हल्के-फुल्के से परिहास के लिए बनाया गया होगा, पर इस हल्के हास्य के पीछे कितनी क्रूर सच्चाई छिपी है यह किसी से नहीं छिपा है. एक नए अनजाने वायरस की वजह से लाखों लोग जान गंवा चुके हैं और अभी इस त्रासदी का कोई अंत नहीं है. सच है कि मृत्यु शाश्वत है. एक सच्चाई है. लेकिन किसी का भी इस संसार से जाना गहन विषाद से भर देता है. पर इससे लोगों का जाना थोड़े ही न रुकता है. अभी कितने दिन ही हुए थे जब ‘पीके दा’ इस दुनिया को अलविदा कह गए थे. वह विषाद अभी मद्धिम नहीं हुआ था कि ‘चुनी दा’ के जाने की ख़बर आ गई.

साठ और सत्तर के दशक का काल भारतीय फुटबॉल इतिहास का स्वर्ण काल है वैसे ही जैसे भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल गुप्त युग. इस दौरान भारतीय फुटबॉल ने जिन ऊंचाइयों को छुआ था, अब वो किसी सपने से कम नहीं है. उस काल को भारतीय फुटबॉल का सोने का काल बनाने वाले तीन राजकुमार थे- प्रदीप कुमार बनर्जी, सुबिमल गोस्वामी और तुलसीदास बलराम. इस त्रिमूर्ति में से दो अब हमारे बीच नहीं हैं. 30 अप्रैल को 82 वर्ष की अवस्था में सुबिमल गोस्वामी उर्फ चुनी दा ने भी संसार से विदा ली. चुनी दा भारतीय फुटबॉल के स्वर्णिम काल की कुछ शेष जीवित विभूतियों में से थे. उनका जाना दरअसल इस बात का प्रतीक है कि फुटबॉल का वो स्वर्णिम दौर अब केवल रिकार्डो की किताबों और स्मृतियों के कोटर भर में रह जाना है.

वर्तमान में बांग्लादेश के किशोरगंज जिले में 15 जनवरी 1938 को जन्मे चुनी दा आठ वर्ष की उम्र में ही 1946 में मोहन बागान की जूनियर टीम में चुन लिए गए. उसके बाद 1954 में सीनियर टीम में आए और 1968 में रिटायरमेंट तक लगातार मोहन बागान के लिए खेलते रहे. इस दौरान वे 1960 से 1964 तक पांच सीज़न तक क्लब के कप्तान भी रहे. इस दौरान उन्होंने क्लब के लिए 200 गोल किये और 31 ट्रॉफी दिलाईं. उनका अंतर्राष्ट्रीय करिअर 1956 में शुरू हुआ, जब उन्हें चीन के ख़िलाफ भारतीय टीम में चुना गया और मैच भारत ने 1-0 से जीता था. हालांकि ये अधिकृत मैच नहीं था. उनका पहला अधिकृत अंतर्राष्ट्रीय मैच 1958 में एशिया कप में बर्मा के विरुद्ध था, जिसमें उन्होंने अपना पहला अंतर्राष्ट्रीय गोल किया और भारत ने ये मैच 3-2 से जीता. उन्होंने मर्देका कप, एशिया कप, एशियाड और ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए 50 अंतर्राष्ट्रीय मैच खेले. सन् 1964 में  27 वर्ष की उम्र में अंतरराष्ट्रीय करिअर को अलविदा कहा. लेकिन इससे पहले वे अपनी कप्तानी में 1962 में एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक और 1964 में एशिया कप और मर्देका कप में भारत को रजत पदक जिता चुके थे.

वे एक शानदार फारवर्ड थे. दरअसल वे उस युग के खिलाड़ी थे, जब खेल दिल से खेले जाते थे. जब  खेल बाज़ार के आश्रित नहीं हुए थे. जब खेल विज्ञान से ज़्यादा कला हुआ करते थे. उसमें पावर से ज़्यादा कलात्मकता हुआ करती थी. उस समय खिलाड़ी अपने खेल को किसी विज्ञान प्रयोगशाला के उपकरणों से खेलों में एक्यूरेसी लाने से अधिक एक कलाकार की कूँची से अपने खेल को किसी कलाकृति की तरह ख़ूबसूरत बनाने की कोशिश करते थे. चुनी का खेल ऐसा ही था. उनका गेंद पर गज़ब का नियंत्रण होता था. वे शानदार ड्रिब्लिंग करते थे. उस समय जब खिलाड़ी अपनी पोजीशन से कम ही इधर उधर होते थे, वे शानदार तरीके से राइट से लेफ्ट और लेफ्ट से राइट फ्लेंक में पानी से बहते थे. आधुनिक फुटबॉल में मेस्सी जैसे कलात्मक खिलाड़ी कितने हैं. उनके फ्री किक गोल कलात्मकता की ऊंचाई होते हैं. और जब चुनी के साथी ओलंपियन एस एस हकीम एक पत्रिका को दिए अपने इंटरव्यू में कहते हैं ‘आज आप महान मेस्सी की बात करते हो. उन दिनों हमने चुनी को देखा था जो मेस्सी से किसी मायने में कम नहीं थे. जो दिन उनका होता था उस दिन उनको रोक पाना असंभव था.’ अगर कोई उन्हें मेस्सी कहता है तो आप उनके खेल की कलात्मकता और ऊंचाई को महसूस कर सकते हैं. हकीम कहते हैं ‘वे जीनियस थे. 1958 से 1965 के बीच बिना चुनी के भारतीय फुटबॉल टीम की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.’  वह 6 फ़ीट लंबे खिलाड़ी थे. उनके क़द की ऊंचाई की तरह उनके खेल का क़द भी इतना ऊंचा था जिसे छू पाना औरों के लिए संभव नहीं था.

वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. उनकी बहुमुखी  प्रतिभा को जानकर आश्चर्य होता है. वे फुटबॉल के अलावा क्रिकेट के भी उतने ही शानदार खिलाड़ी थे. वे आल राउंडर थे. उन्होंने बंगाल के लिए 1962  में पहला रणजी मैच खेला और कुल मिलाकर 46 प्रथम श्रेणी मैच खेले, जिसमें उन्होंने एक  शतक और 7 अर्द्ध शतकों की सहायता से 1592 रन बनाए और 47 विकेट लिए. 1971-72 के सीज़न में उनकी कप्तानी में बंगाल की टीम फ़ाइनल में पहुंची जहां अन्ततः मुम्बई से हारी. इससे पहले 1968-69 के सीजन के फ़ाइनल में पहुंचने वाली बंगाल की टीम के भी सदस्य थे.

वे यहीं नहीं रुकते. वे अपने क्लब के लिए हॉकी भी खेले और साउथ क्लब के लिए टेनिस भी. उन्होंने बांग्ला फ़ीचर फ़िल्म ‘प्रथमो प्रेम’ में अभिनय किया और कलकत्ता शहर के शेरिफ भी रहे. लेकिन आश्चर्य की बात ये है कि उन्होंने सब कुछ किया यहां तक कि इंडियन टीम के सिलेक्टर रहे,  टाटा फुटबॉल अकादमी के डायरेक्टर रहे, पर कभी कोच नहीं बने.

वे भारतीय फुटबॉल का सबसे बड़ा चेहरा थे, पितामह थे, वटवृक्ष थे. उनका जाना फुटबॉल जगत के लिए अपूरणीय क्षति है. उनके जाने से भारतीय फुटबॉल में एक ऐसा निर्वात बना है जिसे जल्द भर पाना मुमकिन नहीं. वे अपने पूरे फुटबॉल करिअर में मोहन बागान की लाल हरी पट्टी वाली जर्सी में लिपटे रहे. उनकी समृद्ध बहुमुखी प्रतिभा के हरे रंग और और उस प्रतिभा के विस्फोट के लाल रंग के बिना मोहन बागान की जर्सी ही रंगहीन नहीं हो गई है बल्कि पूरा फुटबॉल परिदृश्य उदास-उदास सा है,सूना सूना है.

अलविदा सुबिमल चुनी गोस्वामी दा.

 

सम्बंधित

चुन्नी गोस्वामी | उस्ताद फुटबॉलर जो बेहतरीन क्रिकेटर भी रहे


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.