SRF | पिता तुल्य दोस्त को, शहर के नूर को अलविदा

  • 11:40 pm
  • 25 December 2020

किसी आत्मीय को खो देना और उस विछोह को महसूस करते हुए कुछ कह पाना आसान हरगिज़ नहीं होता. शुक्रवार की शाम को क़ब्रिस्तान से लौटे प्रवीन के लिए भी यह सब कुछ याद करना यक़ीनन ख़ासा तकलीफ़देह रहा होगा. – सं.

अलविदा! मेरे सरपरस्त.
मेरे SRF चले गए. हमारे शहर के, हमारी तहज़ीब के, हमारी अदब के, क्लासिकल-मॉडर्न इल्मी रवायत के नूर शम्सुर रहमान फ़ारुक़ी चले गए. शहर सुनसान है. हम किधर जाएं? उनके हेस्टिंग्स रोड वाले घर से अभी लौटा लेकिन रास्ते भर सब दरख़्तों के पत्ते भी उदास दिखे. धुंध भरा शहर का सर्द मौसम उन्हीं पत्तों में मुंह छुपाए रो रहा है. उन्हीं के साथ फिर अशोकनगर के शहर-ए- खामोशां की तरफ़ चला गया. यहां भी रहना करना मुश्किल. किसी दोस्त जैसे पिता की तरह जिस् शरीर से मुझे चिपटा लेते रहे हों, उस देह को दफ़्न होते कैसे कोई देख सकता है?

साल 1994 का वह दिन याद है. जब SRF से मिलने के लिए उनके घर का फ़ोन नंबर चाहा था. उर्दू वालों ने रोका. हिंदी वालों ने टोका. उनके लिए न जाने कितने कड़वे बोल कहे थे लोगों ने. लोगों ने कहा कि वह लोगों से मिलते नहीं, वह ऐसे हैं, वह वैसे हैं. शम्सुर रहमान फ़ारुक़ी साब को नाम बताने के बाद फ़ारुक़ी साब ने कहा, ‘बेटा जब मन हो तब आ जाओ.’ मैंने अपनी सहूलियत से अगले दिन 12 बजे का वक़्त कहा. अगले रोज़ मुलाक़ात हुई तो उनके लिए कही उर्दू-हिंदी वालों की सारी बातें भसम हो गईं. तब से अनगिनत मुलाक़ातें, बातें जहान की – अदब पर, फ़लसफ़े पर, आइडोलॉजी पर, ट्रेडिशन पर, हिस्ट्री पर, क्रिकेट पर, घर-परिवार की, ड्रामा-थिएटर की बातें… न जाने क्या-क्या…वह संस्कृत, उर्दू हिंदी, फ़ारसी, अरबी और अंग्रेज़ा के समुंदर में ले चलते थे, रास्ता दिखाते हुए.

SRF ने मुझे प्यार किया, मेरे दोस्तो को चाहा, मेरी किताब से मोहब्बत की, उस पर लिखा और रतन थियाम दा के साथ उस रिलीज़ किया, मेरे परिवार से, मेरे थिएटर से प्रेम किया, उसके सरपरस्त बने रहे, वह मेरे लिखे को मन से पढ़ते रहे, स्टेज पर मेरे किए को देखते, पसंद करते. जब भी डांटना हुआ तो पहले कस के भींच कर, गले लगाकर कान के पास कहते ‘यार तुम मुझे बहुत परेशान करते हो. कहां गायब हो जाते हो? आसपास के लोगों से कहते, ‘मेरा दोस्त है, बेटा है लेकिन बदमाश है.’ जब भी उनसे मिलता तो उनके पैरों तक मेरे हाथ पहुंचने के पहले आगोश में ले लेते.

एक बार उनसे मिलने के बाद चाय पीते समय पॉकेट डायरी निकालकर उस दिन के पहले काम के हो जाने का निशान लगाया. उन्होंने देख लिया और पूछा कि डायरी पर क्या लिखा? उन्हें दिखाया, लिखा था, SRF 11 a.m. वह हंसे और कि कहा, ‘अच्छा मुझे SRF कहते हो? हाँ, कौन शम्सुर रहमान फ़ारुक़ी कहने की ज़हमत ले’. मैंने कहा कि यह मैं ही लिखता हूं और मैं ही जानता हूं. वह मुस्कुराने लगे.

कवि चिंतक उदयन वाजपेई, नाट्य विद्वान संगीता गुंदेचा, रिसर्चर-फ़ोटोग्राफ़र प्रभात सिंह, अख़बार के एडिटर मनोज मिश्रा की सोहबत में बहुत-सी बातों के अलावा SRF के फ़न और शख़्सियत पर हमेशा बातें होती रही हैं, बातें अब भी होंगी लेकिन दर्द यह है कि यह सब अब माज़ी के हवाले से तवारीख़ के दायरे में होगा. खीरकदम मिठाई का स्वाद अब वैसा न होगा जैसा उनके साथ खाने पर होता था. उनके पसंद की मिठाई यही थी. बीते साल भोपाल से उदय जी और संगीता जी ने उनके लिए खीरकदम से भरा डिब्बा भेजा था. वह चार-पांच मिठाइयां खा गए. बेटी बरां के कहने पर ही रुके.

यीशु के जन्मदिन क्रिसमस पर हम शहर में घूमते रहे हैं, कोहरे को लपेटकर, ठंड को ओढ़कर. आज जार्जटाउन से हेस्टिंग्स रोड और अशोक नगर के क़ब्रिस्तान तक जाकर उदासी और अवसाद मन और आत्मा पर लिए वापस आया हूं. बार-बार उनकी याद में मन और दिल बेक़रार है, बेचैन है, दर्द से बोझिल है. दुनिया का अदबी मंज़र हैरान-परेशान है. अब उसे शम्सुर रहमान फ़ारुक़ी की आंच से महरूम होना होगा.

इल्म के शैदाई जब भी यह नाम लेंगे तो उनकी आंख का कोई कोना भर जाएगा या उनके ओंठों का कोई हिस्सा खिल उठेगा. उनके लिखे हुए, बोले हुए लफ़्ज़ हमारी धरोहर हैं, नस्लें उन पर बात करेंगी, उनमें अपना रास्ता देखेंगी, रौशनी पाएंगी. रश्क करेंगी.
दिन ढला, रात फिर आ गई, सो रहो, सो रहो
मंज़िलों छा गई ख़ामोशी, सो रहो, सो रहो.

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लेखक-आलोचक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी नहीं रहे


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