मैरी कॉम का छरहरेपन का नुस्ख़ा और पीड़ाहारी बाम

  • 12:27 pm
  • 10 January 2020

‘मैरी कॉम’ देखते हुए बार-बार सोचा कि जिन धुरंधर फिल्म समीक्षकों ने इसे चार-पांच स्टार की रेटिंग दी है, वे इसमें ऐसा क्या देख पाए जो मुझसे छूट रहा है. सोचा तो यह भी कि मैरी की ज़िंदगी पर क्या संजीदा फ़िल्म बन ही नहीं सकती थी या फिर हॉलीवुड अगर अपने मुल्क के किसी हीरो की ज़िंदगी सिनेमा के पर्दे के लिए तैयार करता तो उसकी सूरत किस तरह अलग होती? तमाम बार ख़बरों में फ़िल्म से होने वाली कमाई के चर्चे भी होते हैं, जो परोक्ष रूप से उसकी सफलता का पैमाना तय करते हैं. कम समय में रिकॉर्ड कमाई, यानी बढ़िया और हिट फ़िल्म. जहां तक मुझे याद पड़ता है, तमाम चैंपियनशिप जीतने के बाद भी मैरी कॉम को विज्ञापनों में काम करते हुए मैंने नहीं देखा. मगर फ़िल्म में मैरी कॉम की ज़िंदगी जीने वाली प्रियंका चोपड़ा ने तो बाक़ायदा प्रोडक्ट प्रमोशन किया है. उन्होंने अपनी डायटिंग का हवाला देते हुए शुगरफ़्री के इस्तेमाल का मशविरा दिया है, कंधे का दर्द दूर करने में आयोडेक्स को कारगर बताया है, इन्टेक्स का फोन यूं इस्तेमाल किया है कि दर्शक उसका ब्रांड इत्मीनान से पढ़ पाएं, मोनेट वाले मजबूत सरिया बनाते हैं तो उनकी ट्रेनिंग एकेडमी का नाम भी यही है, उनके बच्चे को इलाज की ज़रूरत पड़ती है तो इम्फाल में बैठा डॉक्टर सीधे गुड़गांव के अस्पताल को रेफर करता है (फ़िल्म देखने और सोचने का काम एक साथ करते हुए मुझसे कोई प्रोडक्ट छूट रहा हो तो आप ख़ुद भी इसमें जोड़ सकते हैं). ज़ाहिर है कि प्रियंका ने यह सब ख़ुद तो नहीं किया होगा मगर भइया भंसाली ने फ़िल्म के बहाने विज्ञापन करने में कितने बनाए, इसकी चर्चा ख़बरों में नहीं हुई.

‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ देखते हुए यह चालाकी ख़ूब समझ में आती है. इस सीरियल का कोई पात्र अगर ऐसी टी शर्ट पहने हो, जिस पर ‘एंग्री बर्ड्स’ छपी हों तो एडिटिंग के वक्त शर्ट के सामने का हिस्सा धुंधला कर दिया जाता है, टीवी स्क्रीन पर कोई मोटर कॉलोनी में दाखिल होती दिखाई देती है तो बोनट पर जहां कंपनी का लोगो होता है, वहां एक गोल धब्बा नजर आता है. यहां तक कि कोई पात्र घर के दरवाज़े का ताला खोल रहा होता है तो ताले पर सामने लिखा हुआ उसका ब्रांड नेम धुंधला जाता है. ऐसा इसलिए नहीं है कि सीरियल बनाने वाले मैरी कॉम की तरह ब्रांड प्रमोशन करने से बचना चाहते हैं. वे यह बात भी बखूबी जानते हैं कि सीरियल देखने के तुरंत बाद हम वही शर्ट, ताला या मोटर खरीदने बाज़ार की ओर नहीं लपकने वाले. यह एक ख़ास क़िस्म का अर्थशास्त्र है. वही अर्थशास्त्र जिससे प्रभावित सलमान ख़ान सिर्फ़ तूफ़ानी पीते हैं, अमिताभ बच्चन सिर दर्द ग़ायब करने वाले तेल से लेकर दावत वाले चावल की सिफ़ारिश करते हैं या विद्या बालन बालों की हिफ़ाज़त के लिए आंवले का तेल लगाने की राय देती दिखाई पड़ती हैं. इसी सीरियल में कभी अमिताभ बच्चन भूत बनकर गोकुलधाम वालों को डराने आ जाते हैं, अजय भाई देवगन दया भाभी के हाथ के ढोकले की फ़रमाइश भेजते हैं, शाहिद कपूर लोगों के साथ ठुमके लगाने चले आते हैं और ये सब तभी आते हैं, जब उनकी नई फ़िल्म रिलीज़ होने वाली होती है. यानी पसंद आपकी और फ़ायदा उनका.

तो एक बात तो तय है कि जिस मैरी की जिंदगी पर फ़िल्म बनाने का प्रचार किया गया, उसकी ज़िंदगी का ऐसा मसालेदार ड्रामा बना डाला कि फ़िल्म की शुरुआत में सिर्फ़ डिस्क्लेमर की ज़रूरत ख़त्म हुई. हां, फ़िल्म में बॉक्सिंग फ़ेडरेशन के ओहदेदार की मौजूदगी खेल में राजनीति और शोषण की गाथाओं को पुनर्स्थापित करती है. इस कॉमिक किसिम के क़िरदार की मौजूदगी माहौल हल्का किए रहती है. इस क़िरदार की बोली जाने क्या सोचकर तय की गई होगी मगर यही इसे बॉलीवुड की सोच के ज्यादा क़रीब लाता है. यों सचमुच की मैरी कॉम की ख़्वाहिश है कि वह इम्फ़ाल में चल रही अपनी बॉक्सिंग एकेडमी को देश भर में फैलाएं और प्रियंका चोपड़ा एकेडमी की ब्रांड एम्बेसेडर बनें. अब पता नहीं यह प्रियंका के लिए मुमकिन होगा कि नहीं.

मेरी समझ में इस फ़िल्म के लिए कई स्टार दिए जा सकते हैं, उस मेकअप आर्टिस्ट को जिसने प्रियंका के चेहरे को फ़िल्म की ज़रूरत के क़ाबिल बनाया. क़ाबिले तारीफ़ यह भी है कि इस फ़िल्म के बहाने ही सही, बहुतों ने मणिपुर और मैरी कॉम को जाना. डबल ज़ीरो उन दर्शकों के हिस्से में है, जो राष्ट्रगान की पूर्व सूचना और खड़े होने के आग्रह को पर्दे पर पढ़ लेने के बाद भी अपनी कुर्सी पर जमे रहते हैं. राष्ट्रवाद की प्रयोगशाला बन गए अपने देश में फ़िल्म देखने वालों को अब तक कम से कम यह शऊर तो आ ही जाना चाहिए कि राष्ट्रगान के वक्त उन्हें करना क्या है?

(सितम्बर, 2014)

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