दर्द के मद्दाह थे सो फ़िराक़ हुए रघुपति सहाय
फ़िराक़ गोरखपुरी की एक अकेली ज़िंदगी के इतने अफ़साने हैं कि एक अफ़साना छेड़ो, दूसरा ख़ुद ही चला आता है. उनकी बेबाकी और हाज़िरजवाबी के साथ ही ग़ुस्से और तुनकमिज़ाजी के कितने ही क़िस्से कहे-सुने जाते रहे हैं. तभी तो यह बात फ़िराक़ के सिवाय किसी और ने नहीं कही कि उर्दू ग़ज़ल को हिंदुस्तान आए अर्सा हो गया. लेकिन हैरत की बात है कि इसमें यहां के खेत-खलिहान, समाज-संस्कृति, गंगा-यमुना और हिमालय नहीं दिखाई पड़ते. वह मानते थे कि ग़ज़ल ज़िंदगी से बातचीत है और उनकी ग़ज़लें इस नज़रिये की नज़ीर भी देती हैं.
‘‘एक उम्दा मोती, ख़ुश लहजे के आसमान के चौहदवीं के चांद और इल्म की महफ़िल के सद्र. ज़हानत के क़ाफ़िले के सरदार. दुनिया के ताज़दार. समझदार, पारखी निगाह, ज़मीं पर उतरे फ़रिश्ते, शायरे-बुजु़र्ग और आला. अपने फ़िराक़ को मैं बरसों से जानता और उनकी ख़ासियतों का लोहा मानता हूं. इल्म और अदब के मसले पर जब वह ज़बान खोलते हैं, तो लफ़्ज़ और मायने के हज़ारों मोती रोलते हैं और इतने ज़्यादा कि सुनने वाले को अपनी कम समझ का एहसास होने लगता है. वह बला के हुस्नपरस्त और क़यामत के आशिक़ मिज़ाज हैं और यह पाक ख़ासियत है, जो दुनिया के तमाम अज़ीम फ़नकारों में पाई जाती है.’’ फ़िराक़ गोरखपुरी का यह मुख़्तसर-सा तआरुफ़ उनके दोस्त जोश मलीहाबादी की आत्मकथा ‘यादों की बरात’ में दर्ज है.
फ़िराक़ गोरखपुरी पर अपने इसी ख़ाके में उन्होंने यह एलान भी कर दिया, “जो शख़्स यह तस्लीम नहीं करता कि फ़िराक़ की अज़ीम शख़्सियत हिंदुस्तान के माथे का टीका और उर्दू ज़बान की आबरू, शायरी की मांग का संदल है, वह ख़ुदा की क़सम पैदाइशी अंधा है.” फ़िराक़ की सतरंगी शख़्सियत का इससे बेहतर तआरुफ़ भला और क्या हो सकता है.
रघुपति सहाय के फ़िराक़ गोरखपुरी तख़ल्लुस चुनने का भी मुख़्तसर-सा क़िस्सा है, जो उन्होंने मौलाना खै़र बहोरवी के नाम लिखे अपने एक ख़त में वाजेह किया था. इस ख़त में फिराक ने लिखा है कि वे ‘दर्द’ देहलवी के क़लाम से काफ़ी मुतास्सिर थे. ‘दर्द’ के उत्तराधिकारी नासिर अली ‘फ़िराक़’ थे. चूंकि वह ख़ुद भी ‘दर्द’ देहलवी के क़लाम के मद्दाह थे, लिहाजा उन्हें यह तख़ल्लुस ख़ूब पसंद आया. और दर्द के मद्दाह रघुपति इस तरह ‘फ़िराक़’ हुए.
फ़िराक़ के वालिद मुंशी गोरख प्रसाद ख़ुद अच्छे शायर थे और ‘इबरत’ तख़ल्लुस करते थे. फ़ारसी के आलिम थे और शेर उर्दू में कहते थे. शायरी से उनके लगाव की शुरूआत यों घर से ही हुई. बीस साल की उम्र में वह भी शे’र कहने लगे. शुरुआत में उन्होंने फ़ारसी के उस्ताद महदी हसन नासिरी से कुछ ग़ज़लों पर इस्लाह ली. बाद में ख़ुद ही शे’र कहने की इतनी सलाहियत आ गई कि किसी उस्ताद की ज़रूरत नहीं रह गई.
उनकी शुरुआती शायरी में उस दौर की रवायत के मुताबिक जुदाई का दर्द, ग़म और जज्बात शिद्दत से महसूस किए जा सकते हैं. ग़ज़लों, नज़्मों और रुबाईयों में बार-बार इसका इज़हार करते हैं,’वो सोज़-ओ-दर्द मिट गए, वो ज़िंदगी बदल गई/ सवाल-ए-इश्क है अभी ये क्या किया, ये क्या हुआ’. वे अपने ज़ाती दर्द को इस तरह आवाज़ देते हैं, ‘उम्र फ़िराक़ ने यों ही बसर की/ कुछ ग़में जानां, कुछ ग़में दौरां’. रूपक के तौर ‘रात’ उनकी अशआर का अटूट हिस्सा लगती है. उनके क़लाम का एक हिस्सा ऐसा है, जिसकी बिना पर उन्हें शायरे-नीमशबी कहा जा सकता है, ‘उजले-उजले से कफ़न में सहरे-शाम ‘फिराक’/ एक तस्वीर हूं मैं रात के कट जाने की’,’तारीकियां चमक गयीं आवाज़े-दर्द से/ मेरी ग़ज़ल से रात की जुल्फ़ें संवर गयीं’.
सन् 1936 में जब ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ बना तो उसके घोषणा-पत्र पर विचार-विमर्श के लिए सज्जाद ज़हीर देश भर के जिन लेखकों से मिले, उनमें फ़िराक़ गोरखपुरी भी थे. सज्जाद ज़हीर ने उनसे पीडब्लूए के घोषणा-पत्र पर तो राय-मशिवरा किया ही, संगठन के पहले राष्ट्रीय अधिवेशन में उनसे पर्चा भी पढ़वाया. इसके बाद वाले दौर में फ़िराक़ के क़लाम में बदलाव दिखाई देता है. अब वे मकसदी अदब के कायल हो जाते हैं. शायरी से मुआशरे में बदलाव उनका मकसद हो जाता है. उनके लहजे में तल्ख़ियां और एहतेजाज दिखाई देने लगता है – ‘मायूस नहीं होते अफ़सुर्दा नहीं होते/ हर जुर्म-ओ-गुनाह करके इन्सान है फिर इन्सां.’ साम्यवादी ख़्याल उनके लिखे में जगह पाने लगते हैं.
ग़ुलाम भारत में किसानों-मजदूरों के दुःख-दर्द को उन्होंने समझा और अपनी शायरी में उसे आवाज़ दी. जोश की तरह ही उनकी इन नज़्मों का फ़लक बड़ा होता. मजदूरों का आहृान करते हुए वह लिखते हैं, ‘तोड़ा धरती का सन्नाटा किसने हम मजदूरों ने/ डंका बजा दिया आदम का किसने हम मजदूरों ने/ ओट में छिपी हुई तहजीबों का घूंघट सरकाया किसने/ शर्मीली तक़दीर की देवी का आंचल ढलकाया किसने/ कामचारे सपनों की काया में शोला भड़काया किसने/ बदनचोर इस प्रकृति कामिनी का सीना धड़काया किसने’ ‘धरती की करवट’ में इसी तरह वह किसानों को भी खिताब करते हैं.
फ़िराक़ गोरखपुरी हालांकि अपनी ग़ज़लों और मानीख़ेज शे’र के लिए जाने जाते हैं, मगर उनकी नज़्में भी ख़ूब मकबूल हुईं. ‘आधी रात’, ‘परछाइयां’ और ‘रक्से शबाब’ ऐसी नज़्में हैं, जिन्हें जिगर, जोश से लेकर अली सरदार जाफरी तक ने दिल से सराहा. ‘दास्ताने-आदम’, ‘रोटियां’, ‘जुगनू’, ‘रूप’, ‘हिंडोला’ भी उनके नज़रिये का नायाब आईना मालूम होती हैं. ‘हिंडोला’ में उन्होंने हिंदुस्तानी तहज़ीब की शानदार तस्वीर खींचते हुए देवी-देवताओं, नदियों, त्यौहारों, रीति-रिवाजों और अनेक मजहबी-समाजी यक़ीनों का इज़हार किया है.
फ़िराक़ गोरखपुरी की ग़ज़लों-नज़्मों में मुश्किल फ़ारसी या अरबी का इस्तेमाल नहीं होता, बल्कि कई बार अपने शे’र ऐसी हिंदुस्तानी ज़बान में कहते, जो हर एक के लिए सहल है. मिसाल के तौर पर,’मजहब कोई लौटा ले, और उसकी जगह दे दे/ तहजीब सलीके की, इंसान करीने के’, ‘आए थे हंसते खेलते मय-ख़ाने में फ़िराक़ /जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए’, ‘एक मुद्दत से तेरी याद भी न आई हमें/ और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं’.
फ़िराक़ ने श्रृंगार रस में डूबी अनगिनत ग़ज़लें लिखीं. जब इनसे दिल भर गया, तो रुबाइयाँ लिखीं, नज़्में लिखीं. गद्य और पद्य दोनों में ही उन्होंने बेशुमार लिखा और अदब को अपने क़लाम से ख़ूब मालामाल किया. उर्दू अदब में बेमिसाल योगदान के लिए फ़िराक़ गोरखपुरी साहित्य अकादमी (1960), सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार (1968), भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान (970) और 1968 में ‘पद्म भूषण’ से नवाज़े गए.
पचास साल से ज्यादा की अपनी अदबी ज़िंदगी में उन्होंने तक़रीबन 40 हज़ार अशआर लिखे. ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त तक वह एकेडमिक और अदबी महफ़िलों की रौनक बने रहे.
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फ़िराक़ गोरखपुरी | उर्दू-हिन्दी के सच्चे दोआब
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