चराग़ की तरह रोशनी बिखेरती सुदर्शन फ़ाकिर की शायरी

  • 1:15 am
  • 19 December 2019

जगजीत सिंह की गाई हुई नज़्म ‘वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी’ तो आपको याद है न! यह नज़्म लिखने वाले अज़ीम शायर सुदर्शन फ़ाकिर ने अपनी ज़िंदगी के तमाम वाक़यात को ग़ज़लों-नज़्मों में कुछ तरह बयान किया है कि सुनने वालों के दिल को गहरे तक छू जाती हैं. यह बात भी कम हैरान नहीं करती कि अल्फ़ाज़ के इस जादूगर की दुनिया से रुख़सती के कोई ग्यारह साल बाद इसी महीने उनकी पहली किताब ‘कागज की कश्ती’ छपकर आई है, जिसमें उनकी प्रतिनिधि रचनाएं शामिल हैं.

सुदर्शन फ़ाकिर की रचनाओं को नए और पुराने तमाम नामचीन गायकों ने आवाज़ दी है मगर उनकी सबसे ज्यादा ग़ज़लें जगजीत सिंह ने गाईं. सुदर्शन फ़ाकिर और जगजीत सिंह जालंधर में कॉलेज के दिनों के गहरे दोस्त थे और उनकी यह दोस्ती ताउम्र बनी रही. फ़ाकिर कहा करते थे कि जगजीत के बग़ैर वह अधूरे हैं और जगजीत भी ठीक ऐसा ही कहते थे. सुदर्शन फ़ाकिर ने एक इंटरव्यू में कहा था कि अपना लिखा वह सिर्फ़ जगजीत सिंह को देना चाहते हैं. जगजीत सिंह का एक भी कार्यक्रम ऐसा नहीं था, जिसमें उन्होंने ‘वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी’ न गाई हो या फिर उनसे इसकी फ़रमाइश न की गई हो. इस नज़्म की एक दिलचस्प कहानी है. इसमें फ़ाकिर के अपने बचपन की छवियां हैं.

बचपन से ही सुदर्शन अलहदा स्वभाव के थे. घर के लोगों से भी बहुत कम बात करते थे. पढ़ाई में मन कभी नहीं लगा लेकिन ऐसा भी नहीं कि पढ़ाई छोड़ दी हो. हां, स्कूल से कभी-कभी छुट्टी मार लिया करते थे. फ़िरोजपुर के रत्तेवाली गांव में उनका बचपन बीता. वहां शहर के पास ही नहर बहती है. एक दिन स्कूल न जाकर नहर की ओर चल दिए और थक कर एक जगह बैठे तो काग़ज़ की कश्ती बनाई और पानी में फेंक दी. इतने में बारिश आ गई तो कश्ती गीली होकर डूब गई. फिर पास के एक टीले पर जा बैठे और रेत का घरौंदा बनाया. चूंकि स्कूल का समय पूरा होने पर ही घर लौट सकते थे. यह बात तब की है, जब वह सातवीं में पढ़ते थे. इस तरह की बेफ़िक्री उनका स्वभाव बन गई. बचपन की ये यादें ही बाद में नज़्म की शक्ल में सामने आईं. ‘वो बुढ़िया, जिसे बच्चे कहते थे नानी…’ भी उनके घर में काम करने वाली वह वृद्धा थीं, जिसे वे ख़ुद नानी पुकारा करते थे. मुंबई के तंगी और संघर्ष के दौर में उन्हें अपने बचपन के बेफ़िक्री के पल, वे दोस्त याद आते थे, जिनके लिए उन्होंने लिखा था, ‘ये दौलत भी ले लो, यह शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझ को लौटा दो, बचपन का सावन, वह काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी’.

जगजीत सिंह ने उनकी एक और बेहद मक़बूल ग़ज़ल गाई है, ‘पत्थर के ख़ुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसां पाए हैं / तुम शहर–ए–मुहब्बत कहते हो, हम जान बचाकर आए हैं..’ इस ग़ज़ल के पीछे की कहानी का भी ज़िक्र ख़ास है. बात सन् 1983 की है. फ़ाकिर साहब बंबई से पंजाब आने लगे तो एक दोस्त से मुलाक़ात हुई. लेकिन वह उसके पास ज्यादा देर रुके नहीं. उसे बताया कि मुझे ट्रेन पकड़नी है, पंजाब जा रहा हूं. इस पर दोस्त ने कहा था, ‘तो यूं कहो न कि ‘शहर–ए–मोहब्बत’ जा रहा हूं.’ ख़ैर, सुदर्शन फ़ाकिर सफ़र पर निकल पड़े. उन दिनों पंजाब पर आतंकवाद का साया था. मुसाफ़िरों को बस से उतारकर मार देने की कई घटनाएं हो चुकी थीं. उन्हीं दिनों किसी काम से फ़ाकिर साहब को अपने परिवार के साथ चंडीगढ़ जाना पड़ा. चंडीगढ़ से जालंधर लौटते समय बस कुराली रुकी. वहां से चली तो कुछ ही दूरी पर रास्ते में दोशाला ओढ़े तीन लोग खड़े मिले. उन्होंने हाथ दिया और ड्राइवर ने बस रोक दी. एक सीट पर बेटा मानव और पत्नी सुदेश बैठी थीं और फ़ाकिर साहब दूसरी सीट पर अकेले बैठे थे. रास्ते में चढ़े लोगों में से एक उनके साथ बैठ गया. बैठते वक़्त उसका दोशाला कुछ ऊंचा हुआ तो फ़ाकिर को उसकी बंदूक दिख गई. उसके साथियों को भी ग़ौर से देखा तो उनके पास भी हथियार थे. फ़ाकिर साहब का रंग उड़ा देखा तो पत्नी ने पूछा, ‘क्या हुआ?’ इस पर उन्होंने इशारे से उनके हथियारों के बारे में बताया. फिर वे बलाचौर के चौक पर उतर गए तो जान में जान आई. अगले रोज़ अख़बार में उन्होंने ख़बर पढ़ी कि बलाचौर के पास आतंकियों ने एक बस के यात्रियों की हत्या कर दी थी. मुंबई लौट कर उन्होंने अपने तर्जुबे के हवाले से यह ग़ज़ल लिखी थी.

उनके जालंधर से बंबई जाने और फ़िल्मी दुनिया से वाबस्ता होने का क़िस्सा भी कम दिलचस्प नहीं. और इसका ज़रिया बनीं बेग़म अख़्तर. सन् 1968 की बात है. सुदर्शन फ़ाकिर जालंधर के ऑल इंडिया रेडियो में बतौर आर्टिस्ट काम करते थे. उन्हीं दिनों आईजी अश्विनी कुमार के निमंत्रण पर बेग़म अख़्तर जालंधर आईं. रेडियो स्टेशन में उन्होंने अश्विनी कुमार की लिखी कुछ ग़ज़लें गाईं. फिर उन्हें सुदर्शन फ़ाकिर की एक ग़ज़ल ‘कुछ तो दुनिया की इनायत है दिल तोड़ दिया..’पकड़ा दी गई. बाद में उन्होंने यह बात क़बूल की कि ग़ज़ल का वह पन्ना पकड़ते हुए उनके मन में आया कि ‘इस छोटी सी उम्र वाले युवक की ग़ज़ल में भला क्या दम होगा?’ फिर भी उन्होंने स्टूडियो में ही उसकी धुन बनाई और उसे गाया. जब गाना शुरू किया तो इतनी प्रभावित हुईं कि अलग–अलग नोट्स पर उन तीन अंतरों को बार-बार गाती रहीं. वह अश्विनी कुमार की ग़ज़लें गाने आई थीं, लेकिन उनसे ज्यादा समय उन्होंने सुदर्शन फ़ाकिर की एक ग़ज़ल को ही दिया. और बंबई जाकर इस ग़ज़ल को रिकॉर्ड कराने का वादा करते हुए बोलीं, ‘सुदर्शन, तुम्हारी इस ग़ज़ल ने मेरा जालंधर आना सार्थक कर दिया.’ कुछ अर्से बाद सुदर्शन फ़ाकिर के पास बेग़म अख़्तर का फोन आया कि ग़ज़ल रिकॉर्ड हो गई है और तुम बंबई आ जाओ. फ़ाकिर साहब मुंबई पहुंचे तो बेगम अख्तर ने उनकी मुलाक़ात म्यूज़िक डायरेक्टर मदन मोहन से कराई. सुदर्शन फ़ाकिर ने अपनी यह ग़ज़ल मदन मोहन को दे दी. यहीं से मायानगरी का उनका सफर शुरु हुआ. ‘इश्क में ग़ैरत–ए–जज़्बात ने रोने न दिया…’ से उनकी पहचान बनी और शोहरत दुनिया में फैलने लगी. मदन मोहन ने उनसे कुछ गीत लिए, धुन भी बनी लेकिन फ़ाकिर साहब कहते थे यह उनकी बदक़िस्मती रही कि मदन मोहन दुनिया से जल्दी चले गए. सन् 1969 में सुदर्शन फ़ाकिर जो जालंधर से मुंबई गए तो ताउम्र इन दोनों शहरों के बीच आवाजाही करते रहे.

वह बेहद एकांतप्रिय और संकोची स्वभाव वाले इंसान थे, इसीलिए उनके दोस्त भी बहुत नहीं थे. जगजीत सिंह तो ख़ैर जिगरी थे ही, फ़िल्मी दुनिया में फ़िरोज ख़ान, राजेश खन्ना और डैनी डेन्ज़ोंग्पा ज़रूर उनके गहरे दोस्त थे. फ़िरोज ख़ान को जब लाइफ़टाइम अचीवमेंट अवार्ड मिला तो उन्होंने फ़ाकिर साहब का ज़िक्र करते हुए अपनी पसंदीदा ग़ज़ल का मुखड़ा बहुत भावुक होकर सुनाया, ‘न मोहब्बत के लिए न दोस्ती के लिए/ वक़्त रुकता नहीं किसी के लिए’. कुमार सानू का गाया सुदर्शन फ़ाकिर का गीत ‘किस मौसम में…’ जब राजेश खन्ना ने सुना तो फ़ाकिर साहब से मिलने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की. इस गीत को वह अपनी ज़िदगी से जोड़कर देखते थे. दुख, परेशानी और उदासी के उन दिनों में फ़ाकिर साहब से मिलकर उन्होंने कहा था कि उनके लिए कोई ग़ज़ल लिखें. कम लोग जानते होंगे कि अभिनेता डैनी डेन्ज़ोंग्पा को संगीत से बेहद लगाव है. एक प्राइवेट एल्बम में उन्होंने अपने दोस्त और पसंदीदा शायर सुदर्शन फ़ाकिर की यह ग़ज़ल बख़ूबी गई है, ‘तुम्हारे इश्क में हमने जो जख़्म खाए हैं/ वह ज़िंदगी के अंधेरों में काम आए हैं.’ सुदर्शन फ़ाकिर यों किसी मजहब को नहीं मानते थे लेकिन उनका लिखा और जगजीत सिंह का गाया गीत (अनुराधा पोडवाल ने भी गाया है) ‘हे राम’ बेहद मक़बूल हुआ. फ़ाकिर साहब का यह इकलौता भक्ति गीत है. एनसीसी का राष्ट्रीय गीत ‘हम सब भारतीय हैं’ भी उनका लिखा हुआ है. हमारे दौर के ताज़ा हालात पर उनकी एक ग़ज़ल मौजूं है, ‘आज के दौर में ए दोस्त यह मंज़र क्यों है/ जख़्म हर सर पे हर एक हाथ में पत्थर क्यूं है’. इसी ग़ज़ल का एक शेर है, ‘जब हक़ीक़त है कि हर ज़र्रे में तू रहता है/ फिर कलीसा, कहीं मस्जिद, कहीं मंदिर क्यों है?’ बेशक ख़ुद सुदर्शन फ़ाकिर को गुमनामी के अंधेरे पसंद थे लेकिन उनकी शायरी आज भी चराग़ की तरह रोशन है और हमेशा रहेगी.

(सुदर्शन फ़ाकिर 19 दिसंबर 1934 को पैदा हुए थे. 18 फरवरी 2008 को उनका निधन हो गया.)

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