पढ़ते हुए | भगवत रावत और उनकी कविताएं

  • 11:59 am
  • 23 August 2020

कुछ कहानियां ऐसी हैं, जिनके बारे में अपने अनुभव साझा करते हुए दोस्तों से अक्सर कहता हूं, ‘तुम एक साथ दो कहानियां नहीं पढ़ सकते.’ दरअसल यह उन कहानियों की ताक़त और उनके असर के बयान का यह मेरा तरीक़ा है. मंटो और गुलज़ार को भी पढ़ते हुए मैं हमेशा ऐसा ही महसूस करता हूं. भगवत रावत की कविताओं के बारे में अगर मुझे किसी दोस्त को मशविरा देना होगा तो मैं उन्हीं की एक कविता के हवाले से कहना चाहूंगा. लगभग चार बरस की बिटिया ने/ मां से/ हाथ फैलाते हुए कहा/ दीदी की किताब में/ इत्ता बड़ा समुद्र है/ मां ने आश्चर्य जताते हुए कहा/ अच्छा/ हां/ बिटिया ने कहा/ देखो मैंने उसमें उंगली डाली/ तो भीग गई. उनके रचना संसार के बारे में समझने-समझाने के लिए उन्हीं की यह कविता बड़ी मौजूं है.

भगवत जी की कविताओं का अकादमिक या यों कहें शास्त्रीय विश्लेषण विद्वानों की ज़िम्मेदारी है, मैं एक पाठक की हैसियत से अपना नज़रिया, अपनी भावना ज़ाहिर करने की कोशिश कर रहा हूं. उनकी कविताओं को पढ़ते हुए एक बात बहुत आसानी से रेखांकित की जा सकती है और वो यह कि कवि होने के नाते वह अपने समय और समाज को लेकर कभी गाफ़िल नहीं रहे. हां, उनकी अभिव्यक्ति किसी आचार संहिता या ऐजेंडे से बंधी हुई नहीं मिलती. मार्क्सवादी विचारधारा के लिए आयुपर्यंत प्रतिबद्ध रहे लेकिन उनकी कविता में खोखले नारों का पाखण्ड भी नहीं झलकता. तभी तो वे ललकारते हुए या आह्वान करते हुए नहीं मिलते.

उनकी कविता पाठकों से बतियाती है, न कि उपदेश या परामर्श देती. और कविता की यह शैली उनकी अपनी है. उनकी कविता दरअसल मानवीय बोध से संस्कारित है, मानवीय संवेदनाओं की सहज अनुभूति और अभिव्यक्ति से लबरेज़. यह सहजता ही दरअसल भगवत जी की कविताओं की सबसे बड़ी ताकत है. भाषा की सहजता, बिना किसी बौद्धिक संजाल के अभिव्यक्ति की सहजता सही अर्थों में उन्हें लोक का कवि बनाती है. लोक जीवन के जटिल प्रश्न भी उनकी कविता में ढलकर आसान लगने लगते हैं. वह ‘प्याज़ की एक गांठ’ हो या फिर ‘भइया आपसे नहीं’.

अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा भी था, ‘मेरी कविता में वैचारिकता ऊपर-ऊपर तैरती नहीं दिखाई दे सकती. उनमें जीवन का अनुभव ही प्रमुख है और अनुभवों के लिए सबसे पहले आपका घर-परिवार होता है, मोहल्ला होता है, आसपास का समाज होता है. सारी दुनिया को आपको इन्हीं माध्यमों से समझना होता है. मेरे जैसा लेखक इसीलिए अपने घर के अर्थशास्त्र से ही सारी दुनिया के अर्थतंत्र को समझने की कोशिश करता है.’ यक़ीन मानें, मैं ऐसे दो-एक कवियों को जानता हूं जो इस बात पर आपसे झगड़ाकर सकते हैं कि ज़रूरी नहीं कि जो आपकी कविता में हो, वह आपके जीवन में भी हो. उनका मत है कि कवि का जीवन अलग है और कविता अलग.

तो यह एक और बात है जो उन्हें अपने समय के कवियों से अलग करती है. भगवत रावत की कविताओं में जीवन के प्रति वही दृष्टि, वही सोच देखने को मिलती है जो उनके निज के जीवन और उनके आसपास बिखरा हुआ है. तभी तो उनकी कविताएं पढ़ते वक्त जो सूरतें ज़ेहन में आती हैं, वह हमारी जानी-पहचानी हैं. हमारे आसपास के ये चेहरे तमाम तरह की अनुभूतियां पैदा करते हैं- संघर्ष की चेतना, दया-करुणा और प्रेम का भाव, इन्सानी छल और पाखण्ड, हमारे समय के सवाल और सपने.

और इन्हीं अनुभूतियों को ईमानदारी से संचित करने के लिए मुझे लगता है कि एक साथ उनकी दो कविताएं पढ़ना मुमकिन नहीं. आप ही बताइए कि ‘साहबान’, ‘भरोसा’, ‘अम्मा से बातें’, ‘देश एक राग है’ या फिर ‘अब ऐसा कोई रास्ता नहीं बचा’ सी कोई एक कविता पढ़कर ख़त्म कर लेने के बाद उनकी दूसरी कविता भला कैसे पढ़ी जा सकती है.

‘डर’ पढ़ते हुए मुझे बार-बार लगता रहा कि जिन लोगों से मिलकर वह चले गए, उन लोगों की नई पीढ़ियां भी जन्म ले चुकी हैं. ‘उन लोगों से मिला था मैं कल शाम एक सभा में/ सुविधाओं के मारे हुए/ वे ज़ुबान की जगह टेपरिकार्ड लाए थे/ मुद्दों के बजाय वे पहले/ मुद्दे की परिभाषा पर/ बहस करना चाहते थे/ कोई भी निर्णय लेते-लेते/ उन्हें डर था कि कहीं/ निर्णय हो तो नहीं गया’. एक ओर ख़तरे को ख़तरा न कह पाने वाले इन्हीं डरे हुए लोगों की भीड़ है तो दूसरी ओर समय की ऐसी ही तल्ख़ सच्चाई — सब तरफ सावधानियां ही सावधानियां/ जीभ जल जाए जो सच मुंह से निकल भर आए/अब ऐसा कोई रास्ता नहीं बचा/ कि बिना दहशत, बग़ैर चोट खाए/ कोई घर पहुंच जाए.

डर और दहशत के इस माहौल में एक आकांक्षा यह भी कि ‘पता नहीं/ आने वाले लोगों को कैसी दुनिया चाहिए/ कैसी हवा कैसा पानी चाहिए/ पर इतना तो तय है/ कि इस समय दुनिया को ढेर सारी करूणा चाहिए’. वह कहते तो हैं कि मज़े में हैं यहां सब/ हे बाबा तुलसीदास/ कविताई ससुरी अब/ कहां जाय का करी. मगर भगवत रावत हमारे समय के ऐसे कवि रहे, जिन्होंने लोक-संघर्षों के साथ ही लोक आकांक्षाओं को ज़बान देते हुए उसे भरोसा करना सिखाया, इस भरोसे की ताक़त बताई है.

उनकी प्रतिनिधि कविताओं का यह संग्रह उनकी काव्य-यात्रा की बहुविध छवियां पेश करता है, उन्हें और बेहतर ढंग से समझने-गुनने को प्रेरित करता है.

करुणा / भगवत रावत

सूरज के ताप में कहीं कोई कमी नहीं

न चंद्रमा की ठंडक में

लेकिन हवा और पानी में जरूर कुछ ऐसा हुआ है

कि दुनिया में

करुणा की कमी पड़ गई है.

इतनी कम पड़ गई है करुणा कि बर्फ पिघल नहीं रही

नदियाँ बह नहीं रहीं, झरने झर नहीं रहे

चिड़ियाँ गा नहीं रहीं, गायें रँभा नहीं रहीं.

कहीं पानी का कोई ऐसा पारदर्शी टुकड़ा नहीं

कि आदमी उसमें अपना चेहरा देख सके

और उसमें तैरते बादल के टुकड़े से उसे धो-पोंछ सके.

दरअसल पानी से हो कर देखो

तभी दुनिया पानीदार रहती है

उसमें पानी के गुण समा जाते हैं

वरना कोरी आँखों से कौन कितना देख पाता है.

पता नहीं

आने वाले लोगों को दुनिया कैसी चाहिए

कैसी हवा कैसा पानी चाहिए

पर इतना तो तय है

कि इस समय दुनिया को

ढेर सारी करुणा चाहिए.

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